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माननीयों की न्यूनतम शिक्षा और पात्रता प्रवेश परीक्षा निर्धारित हो

bharat
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माननीयों की न्यूनतम शिक्षा और पात्रता प्रवेश परीक्षा निर्धारित हो
एकल व्यक्तित्व और सर्वांगीण राष्ट्रीय विकास के लिये अक्षरज्ञान से लेकर व्यवहारिक ज्ञान,भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान तक का अत्यधिक महत्व है और विशेषतः राष्ट्र के शासक के लिए तो अनिवार्य है /भारतीय नारी स्वयमेव एक आदर्श स्वरुप है और केवल भारतीय नारी को भगवान् को गर्भ में धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है /कौरव पांडव दुष्यंत अशोक ही नहीं बल्कि भगवान् राम और कृष्ण की भी माताओं ने भी बच्चों को वैदिक धर्म ,शास्त्र और शस्त्र समझने जानने पढ़ने के लिये गुरुकुल में भेजा था और छत्रपति शिवाजी की माँ ने भी शिवाजी को हर प्रकार की शिक्षा दिलवाई थी और उसके बाद ही राजा के पद के योग्य बने /वर्तमान समय में भी भारत के हर वर्ग, हर धर्म,और हर समाज की नारी अपने बच्चों को हर संभव शिक्षा दिलवाने के लिये संघर्षशील रहती है क्योंकि भारतीय नारी अपने बच्चों को एक आदर्श बनाना चाहती है क्योंकि भारत भूमि को यह अभूतपूर्व वरदान प्राप्त है तभी तो भारत अतीत में विश्वगुरु था और भविष्य में विश्वगुरु बनने का अधिकारी भी है /स्वतंत्र भारत का पहला राष्ट्रपति ,पहला उपराष्ट्रपति और पहला पीएम भी पढ़ा लिखा था और स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी नेता भी शिक्षित थे और उनकी डिग्री पर कभी कोई विवाद नहीं था लेकिन अब ! /आज भारत में विद्यालय तो बहुत हैं लेकिन उनमे “विद्या” के अलावा सब कुछ है और “विद्या” के हुए इस सत्यानाश के लिये कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं बल्कि इसकी सामूहिक जिम्मेदारी उन् सब लोगों के सिर पर मंढ़ी जानी चाहिये जिन्होंने भारत का भाग्यविधाता बनकर शासन किया /मुग़ल शासक अकबर को मरते समय तक यह दुःख सताता रहा कि वह अनपढ़ जिया और अनपढ़ ही मर रहा है और उसने अपनी जीवन काल में बहुत से विद्यालय खोले और स्वयं विद्यालयों का निरीक्षण करने जाता था /ईश्वरचंद विद्यासागर मुफ्त में बच्चों को शिक्षा देते थे और रविंद्रनाथ टैगोर तो इतिहास में दर्ज हैं ही/”विद्यार्थी” शब्द की व्याख्या केवल “विद्या” ग्रहण करने वाला जिज्ञासु ही नहीं बल्कि “अर्थ” करी विद्या भी है यानि जिस विद्या से अर्थ अर्जन किया जा सके और वर्तमान समय में “विद्या की अर्थी” उठाना बन गया है क्योंकि “प्राथमिक स्तर” से लेकर “उच्च तकनीकि स्तर” तक गुणवत्ता विहीन शिक्षा परोसी जा रही है/ स्कूल कॉलिजों यूनिवर्सिटी से मिले सर्टिफिकेट छात्रों को नौकरी दिलवाने में कितने समर्थ है यह बेरोजगारी का आंकड़ें बता ही रहे हैं ?गुणवत्ताविहीन शिक्षा और बेरोजगारी को स्वीकार करने के बजाय वर्तमान नेतागण व्याख्यान देते हैं कि भारत नौजवानों का देश है और नौकरी मांगने वाले नहीं बल्कि नौकरी देने वाले बनें ?और जो योग्य दक्ष प्रतिभावान थे वे देश से ही पलायन कर गये और विदेशों में जाकर अपनी योग्यता दक्षता प्रमाणित की लेकिन वे भी भारत पुनःवापसी को तैयार नहीं क्योंकि भारत में उनका कोई सम्मान होने वाला ही नहीं और अगर वापिस आते भी है तो भी उनको सत्ताशीन शासकों के ही उद्देश्य पूर्ण करने होंगे /इसका कारण बहुत स्पष्ट है कि शासकों ने कभी शिक्षा का महत्व समझा ही नहीं और न कभी कोई प्रवेश परीक्षा पास की और न कभी कोई साक्षात्कार झेला क्योंकि इस योग्य ही नहीं थे और न हैं / प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक नहीं और शिक्षक हैं तो साधन नहीं और कहीं दोनों हैं तो पढ़ने वाले छात्र नहीं और छात्र क्यों नहीं क्योंकि “बालश्रम” आजीविका का साधन अथवा विकल्प जो बन गया है /हर वर्ग हर धर्म हर समाज के छोटे छोटे बच्चे बालश्रम करते देखे जा सकते हैं क्योंकि इन परिवारों में जनसंख्यावृद्धि का उद्देश्य आजीविका हेतु “श्रमिक” संख्या बढ़ाना है /जिन परिवारों ने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाने हेतु बैंकों से कर्ज लिया हुआ है और डिग्री सर्टिफिकेट मिलने के बाद जब नौकरी मिलती नहीं तो उस कर्ज को लौटाने का कष्ट जिन परिवारों को झेलना पड़ता है यह उनके अलावा और कौन बता सकता है और फिर उनसे कहा जाय कि नौकरी मांगने के बजाय नौकरी देना सीखें तो उनके जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा होता है /शुष्क भाषणों से गरीबी बेरोजगारी दूर नहीं हुआ करती बल्कि इसके लिये एक बीड़ा उठाना पड़ता है और चूंकि शासक को हर पाँचवें वर्ष अपनी सत्ता खोने का भय सताता रहता है तो उनके लिये वे मुद्दे अधिक महत्व रखते हैं जिनसे समाज में ध्रुवीकरण तुष्टिकरण विवाद भय पैदा करके सत्ता पुनर्ग्रहण संभव हो सके /मीडिया देश और समाज का लोकप्रहरी है लेकिन बेरोजगारी और गुणवत्ताविहीन शिक्षा पर इनकी रहस्मयी चुप्पी शासकों का अहँकार पोषित करती है और जिन भाग्यशाली नागरिकों को शिक्षक बनने का गौरव प्राप्त है वे अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय शासकों की चाटुकारिता को अधिक महत्व देते हैं /”छात्रसंघ राजनीति” राजनीतिक घरानों की रखवाली पहरेदारी करती है जबकि भिन्न भिन्न पदों हेतु नौकरी सृजन करने और रिक्त पदों को अविलंब भरने हेतु आंदोलन करने के बजाय सत्ताशीन शासकों की कुर्सी या सताविमुख नेताओं के सत्ताग्रहण वापिसी हित के लिये सड़क पर सामाजिक, जातीय, धार्मिक संघर्ष में व्यस्त रहती है /हर राज्य का कर्मचारी चयन आयोग या प्रादेशिक संघ लोकसेवा आयोग राजनीतिक उद्देश्यपूर्ति का मार्ग बना हुआ है जहाँ अध्यक्ष पद और सदस्य पद का चुनाव “पद” की दक्षता पात्रता योग्यता अनिवार्यता के साथ न्याय नहीं करता है / इस ज्वलंत समस्या का समाधान खोजे बिना देश विश्वगुरु कैसे बन सकता है ?आठवीं कक्षा उत्तीर्ण योग्यता अनिवार्यता रखते एक चपरासी पद के विज्ञापन छपते ही स्नातक परास्नातक इंजिनियर पीएचडी डिग्री रखते लाखों बच्चे आवेदन करते हैं और “घूसखोरी” शब्द कहना उचित तो नहीं लेकिन भ्रष्टाचार शायद उचित शब्द होगा ,इसके बाद ही नौकरी मिलती है और इस वास्तविकता से मुख मोड़ना समस्या को अनदेखा करना है /सरकारी नौकरी का आवेदन फार्म मुफ्त में नहीं मिलता है और जहाँ कर्मचारी चयन आयोग पदों के भरने में महीनों नहीं बल्कि वर्षों का समय ख़राब करते हैं और जबाबदेही किसी की नहीं होती है तो ये शिक्षा और बेरोजगारों के साथ अन्याय या उनका उपहास नहीं तो और क्या है ?आवेदन फार्म बिक्री से ही चयन या लोकसेवा आयोगों की आमदनी का अनुमान लगाया जा सकता है और प्राइवेट सेक्टर में भी नौकरी अब योग्यता से कम बल्कि जानपहचान सोर्स सिफारिश भ्रष्टाचार की ही बदौलत मिलती हैं /सरकारी सेक्टर में नौकरी मिलती नहीं और प्राइवेट सेक्टर में नौकरी छिनने का भय हर समय बना रहता है और यही कारण है कि भारत का अधिकांश नौजवान इस समय अवसाद में रहने लगा है /सरकार जब भी कोई बड़ा आर्थिक निर्णय लेती है तो सबसे पहले इसका सीधा प्रभाव प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों पर पड़ता है क्योंकि प्राइवेट सेक्टर प्रबंधन चिंतित होकर पहला हंटर अपने प्रतिष्ठानों की नौकरी पर ही लगाता है /प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत कर्मचारी बैंकों से मासिक आसान किश्तों पर कर्ज लेकर अपने घर का स्वप्न पूरा करते हैं लेकिन जब किसी बड़े आर्थिक फैसले से प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों पर आघात पहुँचता है तो बैंकों की किश्त भरना असंभव हो जाता है और बेचारे कहीं के नहीं रहते ?इस समस्या से शासकों को कोई लेना देना नहीं रहता क्योंकि लक्जरी आवास लक्जरी सुविधाओं में रहने वाले शासकों को आमजन की पीड़ा का अनुभव कैसे होगा ?हर पाँचवें वर्ष बेरोजगार नौजवानों को झूठा आश्वासन परोसा जाता है और इसी भ्रम में फंसे बेरोजागरों की आयु बढ़ती रहती है और जब यही बेरोजगार जब “अपराध” को आय का विकल्प बना लेते हैं तो सरकार इन्ही से बातचीत करके इनको मुख्यधारा में लौटकर आने का अनुरोध करती है /तो क्या वाकई इस समस्या का कोई समाधान है ?बिलकुल है ,सरकार चलाने का आवेदन करने वालों उम्मीदवारों की एक न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और अधिकतम आयु निर्धारित करके इनको एक प्रवेश परीक्षा के बाद ही चुनाव लड़ने का अधिकारी माना जाय और लक्जरी सुविधाओं की जगह उनको वही सब उपलब्ध हो जो इनकी उपयोगिता के साथ न्याय कर सके ?देश ने बहुत सी क्रांतियां देखी और अनुभव की हैं लेकिन जब तक शासकों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और पात्रता निर्धारित नहीं होगी तब तक भारत विश्वगुरु नहीं बन सकता और “शिक्षा” के साथ न्याय का पैमाना शिक्षा के अनुरूप ही उसका आर्थिक पारिश्रामिक मूल्यांकन होना भी है /
रचना रस्तोगी

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