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क्या यही मानवता है

bharat
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कहने को नेतागण कुछ भी बकते फिरें परन्तु हमारा भारत निसंदेह एक आध्यात्मिक देश है जहाँ आज भी लोग अपने अपने ढ़ंग से अपने अपने भगवान् की आराधना इबादत पूजा या ध्यान करते हैं /तरीका भिन्न है परन्तु मंजिल सबकी एक, अब उस मंजिल को खुदा कहदो,भगवान् कहदो या रब कहदो या गोड ही क्यों नही/ उस परम सत्ता को कोई कष्ट नही है परन्तु देश की बागडोर संभालने वाली सत्ता को बहुत तकलीफ है / इस सत्ता को कष्ट यही है कि अगर लोग एक हो गये तो उनकी सत्ता चली जायेगी इस कारण लोग को लड़ाते रहो जिससे कभी भी ये एक ना होने पायें /मुम्बई पर हमला हुआ अनेक भारतीय मर गये पर मजाल है कि किसी नेता ने इसके विरोध में अपना एक वक़्त का खाना भी छोड़ा हो? घर में किसी कि मौत हो जाती है तो पास पडौस वाले तक भी अपने घर में एक वक़्त का चूल्हा नही जलाते,और घर का मुखिया तो बेचारा रोता ही रहता है / और यहाँ जिस देश में राष्ट्रपति भी दया करूणा की प्रतीक एक नारी हो ,प्रधानमंत्री भी स्वयंभू घोषित ईमानदार हो, भारत के “राष्ट्रीय सलाहकार कौंसिल” का भी अध्यक्ष का पद संभालने वाली नारी चाहे विदेशी मूल की ही क्यों ना हो, मीडिया द्वारा प्रमाणित जनमानस का नेता युवा युवराज हो,इंदिरा प्रियदर्शिनी गाँधी केवल एक ही पोते की दादी कही जाती हो,जहाँ पेट्रोल डीजल गैस के दाम बेहताशा बढ़ा दिए जाते हों और जनता से दुनिया भर के टैक्स वसूलकर और वर्ल्ड बैंक से जनता को सुविधा देने के नाम पर कर्जा लेकर बेचारी आधी से ज्यादा जनसँख्या को ही भूखा प्यासा रखने वाला संसदीय तंत्र अपने भत्ते सांसद निधि वेतन सुविधाएं स्वयं बढ़ा लेवे ,भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले की आधी रात को पुलिस द्वारा “होल बोडी सर्विस” कराई जाय, शिक्षा की खुले आम बेकदरी हो रही हो मतलब पढ़ेलिखे व अनपढ़ में भेद समाप्त करने की योजना हो,जहाँ एक नेता की हत्या करने वाले को मात्र एक दो वर्ष में ही फांसी दे दी जाती हो परन्तु देशवासियों की हत्या करने वाले को जेल में बिठाकर बिरयानी मुर्गा खिलाया जाता हो,जहाँ किसानों की जमीन जबरदस्ती हथियाकर बिल्डरों को बेच दी जाती हो,एक चपरासी से लेकर सर्वोच्च अधिकारी तक वास्तविक आय रिश्वत से अर्जित ही मानता हो और वेतन को सरकारी कार्यालय में आने का हर्जाना, सरकारी नौकरी में केवल एक विशेष वर्ग को उम्मीदवार माना जाता हो,और तो और लोकतांत्रिक लोकप्रिय नेता का अपराधी होना अनिवार्य हो मतलब जिसका नाम अपराध में ना हो वह नेता नही, इतना सब कुछ जहाँ होता हो,एक भ्रष्ट नेता के मरने पर तो राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाता है “राष्ट्रीय शोक” तीन तीन दिन तक मनाया जाता है,परन्तु उसको नेता बनाने वाली जनता के बेमौत मरने पर कोई “राष्ट्रीय शोक” नही जबकि पूरे राष्ट्र को कम से कम एक वक़्त का तो उपवास रखना ही चाहिये था/ इतनी भी क्या बेशर्मी कि राष्ट्र का एक सम्मानित आयकर दाता मरा ,एक नागरिक मरा ,एक नागरिक की माँ मरी बाप मरा बेटा मरा भाई मरा,अरे एक मतदाता भी मरा,उसके सम्मान उसको श्रद्धांजलि देते हुए में एक वक़्त का उपवास ही रखलो,कुछ वक़्त के लिये राष्ट्रीय शोक ही मना लो कुछ तो संवेदना रखलो. क्या नेता के ही मरने पर “राष्ट्रीय शोक” है उसको नेता बनाने वाले के मरने पर कोई शोक नही ? यह लोकतंत्र है या परलोकतंत्र !!!फैसला करिए कि क्या यही मानवता है ,क्या यही संवेदना है क्या यही नागरिकता है और क्या यही भारतीयता है ?????
रचना रस्तोगी

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