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गरीब कितने राजनीतिक और कितने सैद्धांतिक
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16वीं लोकसभा चुनाव अभियान की भाषण बाजी में यूपी के विधायक और शहरी विकास मंत्री श्रीमान आजमखान ने स्पष्ट कहा था कि भारत में मुस्लिम जनसँख्या कुल जनसँख्या की 25 प्रतिशत है और भारत में वर्तमान जनसँख्या कुल 130 करोड़ है अतः आजमखान की सटीक गणना के अनुसार भारत में मुसलमान लगभग लगभग 33 करोड़ हैं और इन्ही 33 करोड़ मुस्लिम आबादी को ही सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह, टीएमसी नेता ममता बनर्जी,जदयू नेता नीतीश कुमार और राजद नेता लालू यादव वास्तविक गरीब मानते हैं /इसी चुनावी अभियान में श्रीमान राहुल गांधी ने कहा था कि भारत में 70 करोड़ वास्तविक गरीब और भूखे हैं जिनको 2014 में भोजन खाने की स्वतंत्रता और गारंटी ही इन्ही राहुल गांधी ने दी है,भोजन नही दिया क्योंकि भोजन देने से पहले ही उनकी सरकार की विदाई हो गयी और देखना अब दिलचस्प होगा कि नयी सरकार इन कांग्रेसी गरीबों को भोजन देगी या नही ? अब नई सरकार की निगाह में गरीबों की क्या राजनीतिक परिभाषा होगी यह आने वाला समय ही बतायेगा /यह आंकड़ें फरवरी 2014 से लेकर 10 मई के भाषणों में जनता के सामने लाये गए थे और इन्ही भाषणों में यह भी कहा गया कि देश की अस्सी प्रतिशत जनता बेरोजगार है और भारत में 70 प्रतिशत जनसँख्या खुले में शौच करने के लिए विवश है / यहाँ तक कहा गया कि 15 रुपये या 11 रुपये में भी भरपेट भोजन मिल भी जाता है और यह बात गलत भी नही है क्योंकि इस 15 या 11 रुपये की थाली में भोजन की वैराइटी का जिक्र नही था क्योंकि वेस्टर्न यूपी के कई शहरों में सडकों के किनारे खड़े ठेलों में आज भी दस रूपया की छोले भठूरे की प्लेट बिकती है जिसमे दो भठूरे ,थोड़ी से छोले और प्याज आचार भी साथ में मिलता है और पेट भरने के यह एक प्लेट पर्याप्त है /सुबह को हलवाईयों के यहाँ भी 15 रुपये में दो कचौड़ी ,थोड़े से आलू की सब्जी और पचास ग्राम जलेबी भरी एक प्लेट लेने के लिए पैदल या साइकिलों वालों की ही नहीं स्कूटरों कारों तक की लाईन लगी रहती है अतः इतनी महंगाई में भी 10 या 15 रुपये में आसानी से पेट भरा जा सकता है अगर कोई काजू की बर्फी इन्ही दस पंद्रह रुपये की प्लेट में खाना चाहे तो बात अलग है / मनरेगा योजना गरीबों के रोजगार के लिए चलायी गयी और इसका व्यापक प्रचार हुआ और विदेशों तक में मनमोहन सिंह इस योजना के लिए सराहे गए और भारतीय जनता पार्टी के लौह पुरुष आडवाणी ने भी अमेरिका में इस मनरेगा योजना की प्रशंसा में कसीदे गढ़े लेकिन अभी अभी पता चला कि बिहार में इसी योजना में 80 प्रतिशत जॉब कार्ड फर्जी पाये गए और स्वयं मन मोहन सिंह में कहा और कैग रिपोर्ट भी कहती है कि इस योजना में बहुत बड़े व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार हुआ जिसमे कई अधिकारियों और नेताओं की तो आने वाली कई पीढ़ियों की गरीबी दूर हो गयी लेकिन लाख टके का सवाल कि जब भारत में 80 प्रतिशत जनसँख्या गरीब और भूखमरी के कगार पर है तो उस जनसँख्या ने मनरेगा से लाभ क्यों नही उठाया ?अब यातो उन्हें इस योजना की जानकारी नही है याफिर उनको इस योजना से कोई लाभ होता नजर नही आया होगा ?जिस समय यह योजना लागू हुई थी उस समय इस योजना में 100 रुपये प्रतिदिन तीन माह के लिए मिलने थे और मजदूरी का न्यूनतम बाजार मूल्य 250 रूपया प्रतिदिन था और आज मनरेगा में 156 रूपया प्रतिदिन मिलते हैं लेकिन बाजार में मजदूरी का न्यूनतम मूल्य 350 रूपया प्रतिदिन है /इस योजना से महात्मा गांधी की आत्मा और सरकारी मशीनरी से लेकर नेताशाही की भ्रष्ट भूख तो तृप्त हो गयी लेकिन भारतीय करदाता को क्या मिला ?लोकतान्त्रिक प्रशासनिक व्यवस्था के पहले पायदान से लेकर अंतिम पायदान तक सभी ने जमकर गरीबी की खूब मार्केटिंग की और अपना अपना व्यक्तिगत खजाना बढ़ाया /लेकिन जिस गरीब को सहारा देना था ज़रा उसकी भी स्थिति का जायजा लेना अब जरुरी है /जिन गरीबों का जॉब कार्ड बना उनमे सभी जाति सभी संप्रदाय के स्त्रियां पुरुष बूढ़े सभी थे और इनका निवास अस्थायी झुक्की झोंपड़ी था /इन झुक्की झोंपड़ियों में रंगीन टेलीविजन और फ्रिज भी पचास रूपया प्रतिमाह बिजली विभाग के लाईन मेन को सुविधा शुल्क देकर चलते देखे जा सकते हैं /जबकि सरकार बिजली चोरी और लाईन लॉस को बिजली की कमी को जिम्मेदार मानती है जबकि बिजली विभाग के लाईन मेन से लेकर बड़े अधिकारी को शायद अपनी संपत्ति का भी पता नही होगा क्योंकि दिन दोगनी और रात चौगनी की दर से यह बढ़ती है / खैर बात मुद्दे की करते हैं कि किसी भी मोबाइल कंपनी का सिम कार्ड बिना एड्रेस वेरिफिकेशन के नहीं मिल सकता लेकिन इन झुक्की में रहने वाले हर गरीब के पास किसी न किसी कंपनी का सिम कार्ड अवश्य है और लगभग हर सदस्य के पास सिमकार्ड और मोबाइल फोन है / अब प्रश्न यह उठा कि जिस गरीब के पास खाना खाने के लिए पैसे नही जिसके लिए फ़ूड सिक्योरिटी बिल लाया गया आखिर उसके पास मोबाइल से बतियाने का पैसा कहाँ से आया तो मन मोहन सिंह ने जबाब दिया कि हर व्यक्ति को मोबाइल दिलाना उनकी प्राथमिकता है और रही बात एड्रेस वेरिफिकेशन की तो एड्रेस जांचने वाला भी तो भारतीय नागरिक ही है और भूख प्यास उसको भी लगती है और फिर मोबाइल कंपनियों के सिमकार्ड बेचने का लक्ष्य यानि टारगेट भी तो पूरा करना होता है और जांच भी तो उपभोगता के असली राशनकार्ड या वोटर आईकार्ड या आधारकार्ड की फोटो कॉपी की ही करनी है और इन कार्डों को प्राप्त करने के लिए गरीब को मात्र दो दिन की मजदूरी का पैसा ही सम्बंधित कार्यालय के सम्मानित बाबूजी को भेंट करना होता है और एक हाथ दे और दुसरे हाथ कार्ड ले की व्यवस्था को चरितार्थ करता हुआ वह गरीब ख़ुशी ख़ुशी घर आ जाता है और यदि चुनाव नजदीक हुए तो यह व्यवस्था किसी न किसी पार्टी का नेता भी करवा देता है और बदले में गरीब की वोट का सौदा पक्का हो जाता है /इन्ही वोटों के सौदागर संसद पहुंचकर देश के कभी गृहमंत्री तो कभी रक्षा तो कभी परिवार कल्याण तो कभी वित्त मंत्री बनते रहे हैं लेकिन प्रश्न फिर वही कि आखिर यह सब किसके मूल्य पर और कब तक ?इन गरीबों के बूढ़े शहर की कालोनियों या घरों या कामर्शियल कॉम्पलेक्सों में रात की चौकीदारी करते मिलेंगे ,स्त्रियां घरों में चौका बर्तन झाड़ू पौंछा करती दिखेंगी और पुरुष चिनाई बढ़ई पुताई पल्लेदारी करते दिखेंगे और बच्चे किसी होटल या किसी स्कूटर कार मेकेनिक या हवा भरने वाले के यहाँ काम करते दिखेंगे और यह सब प्लेसमेंट एजेंसी के माध्यम से भी होता है यानि गरीब परिवार का प्रत्येक सदस्य कहीं न कहीं से प्रत्येक दिन कम से कम 300 रूपया रोज कमाकर लाता है तो वह भला जिल्लत भरे 100 या 120 या 156 रुपये वह भी केवल 100 दिनों के लिए और उसमे भी इस पैसे को लेने के लिए घूस पड़ेगी तो वह क्यों मनरेगा के चक्कर काटेगा ?चूंकि मनरेगा को कागजों में सफल बनाना है और मनरेगा के पैसे को ठिकाने भी लगाना है और अपनी पीढ़ी का भविषय भी सुरक्षित रखना है तो पूरे सिस्टम को फर्जीवाड़ा करना ही पड़ेगा ?आंकड़ें बताते हैं कि सबसे अधिक फर्जीवाड़ा उन्ही प्रांतों में हुआ है जो अतिगरीब अतिपिछड़े घोषित हैं और विशेष राज्य का दर्जा मांगते हैं /इन सभी गरीब प्रांतों के ये राजनीतिक अतिगरीब लोग बड़े शहरों के नामी बिल्डरों ,कारखाने स्वामियों और ईंट भट्टे से लेकर नये नये हाईवे निर्माण कार्यस्थलों पर देखे जा सकते हैं /कॉन्ट्रेट लेबर भी इन्ही गरीबों का सामूहिक नाम है जो एक वर्ष पूर्व ही अपने काम का पैसा लेलेते हैं / अब असली सच्चाई का पता तो शुगर फैक्टरियों ,स्टील फैक्टरियों ईंट भट्टों वालों से बात करने के बाद होगा कि कांट्रेक्ट लेबर कितनी बड़ी समस्या है और इनसे बड़ी समस्या है लेबर इन्स्पेक्टर ? दिवाली पर मिठाई रेवड़ी गजकः बनाने वाले भी अपनी मजदूरी का पैसा एक साल पहले ही ले लेते हैं और बाकयदा इनके ठेकेदार भी होते हैं /शायद ही कोई भाग्यशाली भवन निर्माता होगा जिसका पैसा इन्ही गरीबों के ठेकेदारों न मारा हो ?चिनाई बढ़ई पुताई कटाई बुवाई आदि के ठेकेदार अक्सर काम बीच में छोड़कर भाग जाते हैं और खामियाजा बेचारा स्वामी भुगतता है / किसी भी सरकारी विभाग में किसी भी काम के जितने भी सरकारी टेंडर छोड़े जाते हैं उन सभी में काम करने वाले मजदूर ज्यादातर येही कॉन्ट्रैक्ट लेबर है / अब अंग्रेजी में इसे जॉब वर्क कहकर बात को गुमराह किया जाता है / एक आसानी से राजनीतिक गरीबों का एक लघु स्वरुप सामने आया / ये सब भारतीय गरीब हैं जिनके लिए राजनेता बेचारे मरे जा रहे हैं और इनके ही स्वास्थ्य शिक्षा के लिए नेताओं में शपथ भी ली हुई है भले ही इनकी राजनीती करने वाले खुद अनपढ़ या पांचवीं छठी आठवीं या बारहवीं पास हों /लेकिन कुछ करोड़ गरीब एक विशिष्ट शरणार्थी केटेगरी के भी होते हैं जो पड़ौसी देशों से गर्दनिया पासपोर्ट की मदद से भारत के राजनीतिक गरीबो की संख्या में जुड़कर भारतीय अर्थव्यवस्था एवं एवं आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को चौपट करते हैं और इनको गर्दनिया पासपोर्ट यानि भारतीय सीमा में प्रवेश दिलाने का और इनके पहचान पत्र बनवाने का भी कुछ राजनीतिज्ञों ने ठेका लिया हुआ है और बांग्लादेश नक्सलवाद ,नेपाली माओवाद ,पाकिस्तानी जिहाद इन्ही राजनीतिज्ञों का प्रसाद है और त्रिपुरा बिहार असम वेस्टबंगाल सिक्किम अरुणाचल मणिपुर ये सब इन्ही शरणाथी गरीबों के आतंक से परेशान हैं लेकिन इनकी राजनीति करने वाले इनके लिए केंद्र सरकार से लड़ने ही नही बल्कि देश की आर्थिक सामाजिक सांप्रदायिक संतुलन व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार हैं / गर्दनिया पासपोर्ट का अर्थ है गर्दन पकड़कर भारत की सीमा में प्रवेश करा देना / हर बड़े शहर में इनकी कॉलोनियां बनी हुईं हैं इनको सुबह शाम सडकों पर कूड़ा बीनते और मंदिरों मस्जिदों के बाहर भीख मांगते और सैनिक छावनियों या कचहरियों के आस पास सर्दियों में मूंगफली बेचते और गर्मियों में तरबूज खरबूज बेचते देखा जा सकता है /इन राजनीतिक गरीबों और शरणार्थी गरीबों का लोकतान्त्रिक मतदान अधिकार ही वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था की रीढ़ है और इस रीढ़ को मजबूती देने के लिए मध्यम वर्गीय भारतीयों से दुनिया भर के टैक्स वसूले जाते हैं /भारत की आजादी के समय भारत की जनसँख्या कुल 36 करोड़ थी जिसमे 3 करोड़ मुस्लमान ,तीस करोड़ हिन्दू और शेष 3 करोड़ में अन्य धर्मों के लोग थे और अंग्रेज भारत को 155 करोड़ रूपया नगद छोड़कर गए थे और सारे कर्मचारियों के वेतन भुगतान के साथ साथ एक नया पैसा भी भारत पर कर्ज नही था लेकिन भारत ने विकास की ऐसी राह पकड़ी कि आज जनसँख्या 130 करोड़ है जिसमे 33 करोड़ मुस्लमान ,80 करोड़ हिन्दू और 27 करोड़ में अन्य धर्मों के लोग हैं और अगर शरणर्थी गरीबों को भी जोड़ दिया जाय तो जनसँख्या 140 करोड़ से ऊपर ही निकलेगी / भारत विश्व बैंक का ऐसा कर्जदार है कि भारत में पैदा होने वाला हर नागरिक जन्मजात कर्जदार ही होता है /राष्ट्रीय बचत योजनायें भी धन उगाही के लिए बनाई गयीं थीं जिन पर निवेशकों को भारी भरकम ब्याज देना पड़ता है लेकिन मूल समस्या यह कि धन व्यय कहाँ हुआ ?किसका विकास हुआ ?नेताओं को गरीबों के शौच की समस्या बहुत सताती है और यदि इन राजनीतिक और शरणार्थी गरीबों के हर परिवार के लिए सरकारी शौच बनवायी जाय तो भारत की कृषि उपजाऊ भूमि का सदुपयोग इसी मद में खर्च हो जायेगा लेकिन परिवार नियोजन की बात करना नेताओं को पसंद नही बल्कि अधिक संतान पैदा करने के लिए गर्भवती स्त्री को प्रसूति सुविधाएँ ही नही बल्कि नगद राशि भी दी जाती है और मात्र बच्चा पैदा करने पर कुछ हजार के लालच में गरीब अपना परिवार बढ़ा रहे हैं / यानि राजनैतिक उद्देश्य पूर्ती हेतु ही भारत में गरीबों की संख्या बढ़ाई जा रही है वर्ना आंकड़ें सबूत दे रहे हैं कि 36 कैसे 67 वर्षों में 130 करोड़ हो गए जिनमे 80 करोड़ भूखे नंगे बताये जाते हैं लेकिन इनकी वास्तविक स्थिति राजनीतिक स्थिति से भिन्न है /हां एक बात सत्य अवश्य है कि आदिवासी और नक्सलग्रस्त इलाकों में गरीबी राजनैतिक और शरणार्थी नही है लेकिन उनकी राजनीतिक उपेक्षा है / अब तीसरे हैं सामाजिक गरीब जो बेचारे गरीबों में गिने आते हैं और न अमीरों में आते हैं वे हैं मध्यम वर्गीय सामाजिक भारतीय परिवार और उनमे भी विशेषतः हिन्दू ही हैं और यही वर्ग सबसे अधिक टैक्स भरता है और इसी वर्ग से मिले टैक्स को लोकशाही सब्सिडी और मुआवजे बनाकर राजनीतिक और शरणर्थी गरीबों में बांटती है/और इस वर्ग में परिवार नियोजन स्वतः ही अमल में है क्योंकि सबसे अधिक पढ़ा लिखा यही वर्ग है लेकिन कहीं जातिगत आरक्षण और कहीं राजनीतिक उपेक्षा के कारण बेचारा दर दर की ठोकर खाने को मजबूर है /एक पढ़ा लिखा इंजीनयर डाक्टर मैनेजमेंट डिग्रीधारी पीएचडी बड़े बड़े शहरों में पिज्जा हटों में पिज्जा बेचता है तो कहीं रेस्टोरेंटों कमर्शियल कॉम्पलेक्सों में रिसेप्शन की नौकरी भी करता दीखता है लेकिन चौथी पांचवीं नेता मंत्री बनसकता है ?अब मध्यम वर्गीय नागरिक शिक्षित होने के बाबजूद गरीब है तो इसे सामाजिक गरीब कहना उपयक्त संज्ञा होगी /पहले पीएम जवाहरलाल से लेकर 15 वें पीएम मोदी तक को राजनीतिक और शरणार्थी गरीब ही याद आये लेकिन मध्यम सामाजिक गरीब बेचारा आज भी उपेक्षित है /भारत में वोटिंग प्रतिशत बढ़ा क्योंकि सामाजिक गरीब ने भी मोदी को भारत का भाग्य विधाता समझकर शायद इसीलिए वोट दी कि हो सकता है कि मोदी सामाजिक गरीब को भी सुन देख लें/ अमीरों और राजनीतिक शरणार्थी गरीबों के कर्ज तो बैंक भी क्षमा कर देता है लेकिन सामाजिक गरीब बेचारा कर्ज न चुकता करने के कारण आत्महत्या करता है / सरकार बनने के बाद पूर्व पीएम पीएम मनमोहन सिंह ने कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों पर पहला अधिकार मुस्लिमों का है और अब मोदी कहते हैं कि सरकार केवल गरीबों के लिए ही होती है लेकिन जब चुनाव में वोट मांगे जाते हैं तब 125 करोड़ नागरिक याद आते हैं अगर हिम्मत थी तो वोट मांगते समय केवल गरीबों से ही वोट मांगते ?केरोसिन और रसोई गैस में सब्सिडी देनी हो तो राजनीतिक गरीब याद आते हैं और आद्योगिक उन्नत्ति की बात करते हैं तो अमीरों को सब्सिडी देते हैं लेकिन जब सरकार चलने के लिए पैसे चाहिए तो सामाजिक गरीबों पर टैक्स लादते हैं /एक भी नेता ने यह नही कहा कि राजनीतिक और शरणार्थी गरीबों पर परिवार नियोजन अनिवार्य होगा बल्कि उलटे उनको जनसँख्या बढ़ोतरी के लिए प्रलोभन दिए जाते हैं तो क्या यह कहना गलत नही होगा कि भारत में गरीबी और राजनीतिक गरीबों की संख्या बढ़ने में सरकारी तंत्र ही जिम्मेदार है /अभी तीन महीना पहले एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में पांच सौ रूपया में बांग्लादेशी पाकिस्तानी नेपाली घुसपैठियों के आधार कार्ड बनवाने का भंडाफोड़ हुआ था लेकिन एक भी राष्ट्रभक्त नेता और राष्ट्रवादी संगठन ने इस स्टिंग के खुलासे पर कार्यवाही करना उचित नही समझा यानि जानबूझकर भारत को खोखला करने का षडयंयत्र चल रहा है/भारत में गरीबों की स्थिति यह है कि न्यूनतम मजदूरी यदि आज 350 रूपया प्रतिदिन है तो गरीब मजदूर इससे कम एक नया पैसा कम न लेगा भले ही पूरा दिन बगैर काम के काट ले यानि खाली बैठना स्वीकार है लेकिन कम मजदूरी पर नही /जहाँ तक गरीब मजदूरों की उपलब्धता का प्रश्न है तो पचास काल करने पर एक मजदूर प्लम्बर बढ़ई राजमिस्त्री पुतैया नही मिलता जबकि एक काल पर पचास डाक्टर उपलब्ध हो जाते हैं /एक पद के चयन के लिए लाखों हजारों सामाजिक मध्यम वर्गीय गरीब आवेदन करते हैं लेकिन चयन तब भी रिश्वत से हो होता है /प्राइवेट सेक्टर में भी नौकरी सिफारिश या रिश्वत से ही मिलती हैं लेकिन राजनीतिक मजदूर आज भी नखरों से काम करते हैं आठ घंटों की ड्यूटी में ही उनका नाश्ता पानी और रेस्ट वो भी एक घण्टे का तय होता है जबकि मध्यम वर्गीय सामाजिक गरीब का आफिस में आने का तो समय निश्चित है लेकिन जाने का नही और अधिक समय काम करने पर ओवरटाइम भी नही मिलता क्योंकि नौकरी जाने का खतरा सिर पर मंढराता रहता है और यही मध्यम वर्ग बेचारा भारतीय अर्थव्यस्वथा चलाता है और यही राजनीतिक दृष्टि से उपेक्षित भी है /एक अच्छी जिंदगी गुजारने के लिए और थोड़ी बहुत खुशियां देखने के लिए इसके घर और घर में रखी सारी लक्जरियां और कार सभी कुछ किसी न किसी बैंक की लोन पर आती हैं जिसकी किश्त यह गरीब ईएमआई के रूप में भरता रहता है /और यही मध्यम वर्गीय सामाजिक गरीब पहली बार कुछ अच्छे दिन देखने की इच्छा या आशा में अपने मताधिकार का प्रयोग करने निकला और अब देखना यही होगा कि आने वाले दिन अच्छे होंगे भी या नही ?
रचना रस्तोगी
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