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“जनसंग” कर्म और “परोपकार” धर्म
शनिवार का दिन साँपों पर बड़ा भारी रहा क्योंकि यूपी और एमपी में दो मनुष्यों ने सांप को काट लिया ,आदमी बच गये लेकिन सर्प मर गये तो विचारिये कि “जहरीला” कौन ?समरसतावाद और समतावाद शब्द लगते तो एक जैसे हैं लेकिन भेद गहरा है /”कट्टरता और कटुता” एक दूसरे के पूरक हैं लेकिन देश समाज की सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक उन्नति एवं प्रगति के लिये आज “जनसंग” की नितांत जरुरत है /जाति और धर्म की सार्वजानिक उग्रता सामाजिक संतुलन को प्रभावित करती है और राष्ट्र सुरक्षा में सेंध भी लगाती है/ मंचों से बोले जा रहे “देश की बर्बादी” जैसे शब्द भारतमाता के ह्रदय को छलनी करते हैं पर चूंकि भारत “माँ ” है इसलिए क्षमा कर देती है लेकिन अगर भारत को पिता मान लिया जाय तो ऐसे शब्दों को सुनकर पिता पुत्र को चल अचल संपत्ति से बेदखल कर देता है/पहली से लेकर वर्तमान संसद तक लोकतंत्र का मंदिर कभी भी विपक्षविहीन नहीं रहा और देश की समयांतराल प्रगति और दुर्गति दोनों के लिये विपक्ष पूरा चश्मदीद रहा इसलिए तत्कालीन पक्ष और विपक्ष दोनों ही तथाकथित प्रगति दुर्गति के बराबर जिम्मेदार हैं/समतावाद अगर समरसतावाद व्यावहारिकता से गौण बल्कि वैचारिक प्रभुत्व हैं /नाई, बढ़ई ,दर्जी, चिकित्सक ,शिक्षक ,कार स्कूटर मेकेनिक ,छोटा बड़ा सामान बेचने वाला हर तरह का व्यापारी ही भारत के मूल सर्वजनहिताय, बहुजनसुखाय, वासुदेव कुटुंबकम व पंथनिरपेक्षता सिद्धांत को जीवंत बनाये हुए हैं /”जनसंग” से ही परोपकार पोषित होता है और “जनसंग” प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक कर्म और “परोपकार” मानवीय धर्म है /
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