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थोड़ा रुका जा सकता था ?
केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी एसटी एक्ट में किये गये मात्र एक छोटे से संशोधन के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करना एक मँहगा सौदा भी साबित हो सकता है / केंद्र सरकार अभी तक अपने सारे निर्णयों पर राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रप्रेम से प्रेरित बताकर उनका बचाव करती आयी है लेकिन हड़बड़ाहट में लाया गया पुनर्विचार निर्णय संकट भी पैदा कर सकता है क्योंकि विपक्षीय एकजुटता केंद्र सरकार को दलित विरोधी और किसान विरोधी ठहराने की भरपूर कोशिश में लगी हुई है और सत्तापक्ष का पारंपरिक वोटबैंक शिक्षित ,सवर्ण और व्यापारी वर्ग ही रहा है यहाँ तक कि इंदिरा की मृत्यु उपरांत जैन सिक्ख पारसी और शिया मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग भी वर्तमान सत्तादल का पारंपरिक वोटबैंक रहा है /सुन्नी मुस्लिम, ईसाई ,पिछड़े और दलित वर्ग के पक्षकार और मसीहा बनने के लिये सारे ही विपक्षीय दलों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है /इसमें कोई संदेह नहीं कि कांट्रेक्ट लेबर पूरी तरह दलित वर्ग की जकड में है जहाँ एक व्यवसायी अपने व्यवसाय सम्बंधित ठेकेदारों की मदद से ही अपना काम करवाता रहा है और इस सच्चाई से इंकार करना मुश्किल है कि अग्रिम भुगतान का चलन कॉन्ट्रेक्ट लेबर में व्यवसायी की विवशता है और अग्रिम भुगतान लेकर भी लेबर का अनुबंध से मुकर जाना एक सामान्य बात है और विवाद की स्थिति आने पर बहुत से उद्यमियों व्यापारियों को एससी /एसटी एक्ट से परेशानी झेलनी पड़ी है /कंस्ट्रक्शन सन्दर्भ में शायद ही कोई ऐसा भाग्यशाली महानुभाव होगा जिसका पैसा ठेकेदार /लेबर ने न मारा हो और एडवांस दिया पैसा वापिस लेना तो मगरमच्छ के जबड़े से मांस निकालने जैसा है /शिक्षा और नौकरी में आरक्षण स्वयं एक असाध्य नासूर बन चुका है और एससी/एसटी एक्ट से नौकरी करने वालों को जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा है उसका आँकड़ा कोई इस्टेटिक्स विशेषज्ञ नहीं बताता इसलिए बेहतर होता कि सरकार थोड़ा इंतजार और कर लेती ?
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