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धर्मात्मा डाकू और “माँ भवानी”

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धर्मात्मा डाकू और “माँ भवानी”
पुरानी फिल्मों में डाकुओं का चरित्र बहुत मार्मिक धार्मिक पहलुओं और उनके डाकू बनने के प्रमुख कारण पर केंद्रित होकर फिल्माया जाता था /हत्या लूट डकैती अपहरण उनका आय का साधन तो था लेकिन एक संदेश भी था कि “माँ भवानी” या “भगवान् आशुतोष” का अनन्य भक्त होने के बाबजूद उनका दबे कुचले शोषित पीड़ित वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति उदारवादी दृष्टिकोण कानूनन अपराध भी था क्योंकि इसमें बन्दूक की नोंक या हत्या का भय दिखाकर धनवानों से लूट का माल रात के अँधेरे में वितरित किया जाता था परन्तु बिना “आधारकार्ड” भी शोषित पीड़ित वंचित वर्ग की भरपूर मदद करना दर्शाया जाता था और आश्चर्य की बात कि दान वस्तु की डिलीवरी (गैस केरोसिन गेंहू दाल चावल स्टोव )या आर्थिक मदद यानि सब्सिडी भी डाकुओं के द्वारा ही होती थी और वह भी उचित पात्र को जिसमें भ्रष्टाचार का कोई नामोनिशान नहीं था लेकिन फिल्मों में एक रहस्य या सस्पेंस या संदेश भी दिखाया जाता था कि “समाज” तो डाकुओं को पहचानता था लेकिन पुलिस यानि कानून तंत्र नहीं और यदि पकडे भी जाते तो भी जजसाहब सम्मान के साथ सजा सुनाते थे और कोर्ट के बाहर खड़ी वह जनता जिसकी मदद डाकुओं ने की थी, ईश्वर से उनकी रिहाई की प्रार्थना करती थी / डाकुओं वाली फिल्मों और जहाँ नायक खलनायक होते हुए भी नायक हुआ करता था उनमे एक गीत डाकुओं द्वारा मंदिरों में “माँ भवानी” की पूजा या फिर मेलों में बने सिद्धपीठों में दर्शन करने का भी अवश्य होता था और पुलिस तंत्र चूंकि डाकुओं को पहचानता नहीं था इसलिए डाकुओं की प्रेमिका या किसी सहयोगी यानि विभीषण या गद्दार को पकड़कर डाकू को पहचानने या पकड़ने की कोशिश करता था /तब समाचार का माध्यम केवल स्थानीय प्रिंट मीडिया था लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वही काम कर रहा है जो कभी चित्रपट या फ़िल्में किया करती थीं / कल से पवित्र चैत्र नवरात्र शुरू हो रहे हैं और हिंदु नव वर्ष प्रारम्भ हो रहा है और आज से ही न्यूज मीडिया चैनल कुछ विशिष्ट लोगों की “माँ भगवती” उपासना दिखाना प्रारम्भ कर देंगे लेकिन अब घोड़े की टाप सुनाई नहीं देगी (क्योंकि डाकुओं को घोड़ों पर ही बैठा दिखाया जाता था) लेकिन अब टाप की जगह कुछ भाषण दिखाए सुनाये जायेंगे और उद्घोषित घोषणाएं ठीक वैसे ही डरायेंगी जैसे घोड़ों की टाप से डर सिरहन पैदा हो जाया करती थी /समाज पहले भी डाकुओं को पहचानता था और आज भी पहचानता है लेकिन डर पहले से अब कहीं अधिक है क्योंकि पहले के डाकुओं का कुछ चरित्र अवश्य था पर कमजोरी आज भी वही है /पहले छोटे छोटे कबीले हुआ करते थे और अब उन कबीलों को कोंस्टीटूऐंसी कहकर सम्मान दिया जाता है और “सरदार” का नाम बदलकर माननीय हो गया है क्योंकि भारत अब नया जो हो गया है ,”न्यू इंडिया” बन गया है डिजिटल हुआ हो या नहीं लेकिन “स्टिल” जरूर हो गया है,आप चाहें स्किल कहदें लेकिन स्किल होता तो आज “आरक्षण” या “विशेष दर्जा” की मांग नहीं बल्कि समानता समरसता की बात होती पर जो हो न सका और जो हो भी नहीं सकता शायद यही भारत की नियति है /
रचना रस्तोगी

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