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शब्दों का मूल्य और भारतीय संस्कृति

bharat
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भारतीय संस्कृति में बोले गये “शब्दों” की तुलना धनुष से छोड़े गये “तीरों” से भी की गयी है,क्योंकि एक बार निकलने के बाद ये किसी भी सूरत में कभी वापिस नही हो सकते,निशाना चूंकने के बाद भी इनका महत्त्व रहता है/ जब नुलीला तीर धनुष की चाप पर चढ़ाया है तो तीर के पिछले भाग पर कई छोटे छोटे नुकीले सिरे होते हैं जो रस्सी पर लगाए जाते हैं और उनकी दिशा भी तीर छोड़ने वाले की ओर ही होती है और जब तीर छोड़ा जाता है ,तब रस्सी और वे नुकीले सिरे छोड़ने वाला अपनी ही ओर खीचता है ,इसका अर्थ यही हुआ कि तीर छोड़ने से पहले कमान अपनी ही ओर होती है,और ज्यादा नुकीले सिरे भी अपनी ही ओर / इसी प्रकार शब्दों को बोलने से पहले व्यक्ति अपने मन में सोचता है और जो कुछ उसके मन में होता है उसी के अनुसार बोलता है/ जिन व्यक्तियों के मन में सदैव षड्यंत्र ,वैमनस्य,द्वेष या ईर्ष्या भरी होती है,वे सदैव ही कटीला व्यंग्य छोड़ते हैं उनकी साधारण बोलचाल भाषा में भी दूषित व्यंग्य ही होता क्योंकि उनका उद्देश्य दूसरे को मानसिक कष्ट पहुंचाना होता है / दोनों ही प्रकार मतलब नुकीले तीर और कटीले व्यंग्य शब्दों को छोड़ने वाला व्यक्ति कभी भी समाज में उचित सम्मानित स्थान नही पाता है/ उसके परिजन भी केवल अपनी ही इज्जत बचाने के लिये चुप रहते हैं और उसका पूरा बहिष्कार करते हैं क्योंकि ऐसे व्यक्ति से संवाद समाज की शांति को प्रदूषित करता है /आखिर धैर्य कहाँ चला गया,क्यों लोग एक दूसरे पर व्यंगात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं ?इसका कारण है अशुद्ध कमाई, असंतोष की कमाई,पाप से कमाई क्योंकि जब किसी दूसरे का दिल दुखाकर धन अर्जित किया जाता है तो उस धन से संतोष प्रेम अहिंसा तुरंत समाप्त हो जाता है और साथ में दुर्व्यसनों की आदत भी पड़ जाती है / पैसे कमाने की अभिलाषा में लोग मानवता की सारी हदें पार कर जाते हैं,और आजकल माँ बाप शिक्षा भी अपने बच्चों को येन केन प्रकारेण धनोपार्जन की देते हैं /आज गला काट प्रतिस्पर्धा का ज़माना है इसमें हर हर कदम पर अवरोध हैं अगर आज किसी का बच्चा किसी प्रतियोगिता परीक्षा में उत्तीर्ण नही होता है और उसके सगे भाई का बच्चा उत्तीर्ण हो जाता है तो भाई भाई का दुश्मन हो जाता है और नरबली तक देने को तैयार हो जाता है/ लोगों ने अपने एशोआराम एवं लक्जरी जिंदगी व्यतीत करने के लिये बेंकों से कर्ज ले रखे हैं,पूरा महिना लक्जरी अच्छी लगती है परन्तु जब किस्त देने का समय आता है तो पाप से कमाई करने के अलावा और कोई चारा नही बचता / दुर्भाग्य यहीं ख़त्म नही होता, समाज को उचित दिशा देने का काम संतों और धार्मिक उपदेशकों का होता है,अब जब येही भ्रष्ट हो गये हैं इनमे भी वही बीमारी है जो इनके अनुयायियों में है,तो रही सही उम्मीद भी धूमिल हो गयी है,नैतिक शिक्षा किताबें पढ़ने से नही आती बल्कि नैतिकता अपनाने से आती है और यह क्रम घर समाज के बड़े बूढ़ों से चलता है,परन्तु आजकल घर के बड़े बूढ़े ही घर में राजनीति करने लग गये हैं इस कारण घर समाज बिखरता जा रहा है/ बच्चों को संस्कार सबसे पहले अपने घर से, उसके बाद फिर अपने प्राथमिक शिक्षा विद्यालय से मिलते हैं,दोनों ही स्थान अब कहना नही चाहिये अपना स्तर अपनी प्रतिष्ठा खो चुके हैं, संतान उत्पत्ति अब विषय भोग का परिणाम है और शिक्षा बिकाऊ हो गयी है / गर्भावस्था में मातायें अब गंदे गंदे षड्यंत्रकारी टीवी सीरियल देखती हैं,भगवान् का भजन पूजन अब हाई टेक सा हो गया है,घर में धूपबत्ती जलाना या दीपक जलाना फूगाद्पना कहलाया जाने लगा है / भगवान का नाम लेना बूढ़े लोगों के ही जिम्मे है ,अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में प्रार्थना भी अब कभी हुई कभी नही,वो भी बच्चों को समझ में भी नही आती है / सत्संग आदि करना भी अब व्यवसाय का स्वरुप ले चुका है /धार्मिक तीर्थस्थल अब लूटखसोट के अड्डे एवं अय्याशी के अड्डे हो गये हैं,आज से मात्र बीस साल पहले तक भी ऋषिकेश एवं हरिद्वार में कोई मांस बिक्री की दूकान नही थी और अब वहाँ के होटलों में मांस परोसा जा रहा है ,माँ गँगा के आँचल में लोग बीयर की बोतलें ठंडी करने के लिये डाल देते हैं,कितना गिरेंगे !! इसका भी अहसास नही रहा अब , क्योंकि जीव हत्या को मांस उत्पादन कहा जाने लगा है / आज हिन्दुओं में शायद ही कोई ऐसा घर बचा हो जहाँ घर का कोई ना कोई एक सदस्य मांस जरुर खाता होगा / धूम्रपान और पान मसाला खाना तो अब दैनिक दिनचर्या में है / मुस्लिम सप्रदाय में भी शराब पीना हराम है परन्तु उनके यहाँ भी शराब सेवन आम हो चला है / आखिर इतना पतन हो क्यूँ रहा है?.क्या कारण है कि भारतीय लोग अपनी विश्व प्रसिद्द सभ्यता और संस्कृति के दुश्मन होते जा रहे हैं? कारण सिर्फ एक है अंधाधुंध पैसा कमाने की अभिलाषा !, देख रहे हैं कि केरल के एक मंदिर से लाखों करोड़ों का खजाना निकला,मंदिर बनवाने वाला और उसमे खजाने छुपाने वाला दोनों ही अब दुनिया में नही हैं,क्या वे इसे अपने साथ ले गये,अब इस रुपये की बंदरबांट होगी ,कुछ चोरी होगा, कुछ कम दिखाया जायेगा,जो इसे चोरी करेंगे मरेंगे वे भी, परन्तु पता नही लोग क्यों आपाधापी में मरे जा रहे हैं / पुत्तापर्थी के साई बाबा के आश्रम में भी लाखों करोड़ों रुपियों की संपत्ति मिली,क्या साईं बाबा अपने साथ ले गये,चाहे वे ईश्वर ही क्यों ना थे यहाँ आकर मरना तो उनको भी पड़ा,यहीं सब कुछ छोड़कर जाना पड़ा / आज समाज में रिश्तों और मर्यादा की चिता जल रही है ,पाप पाप और सिर्फ पाप बस यही एक मात्र सुबह से लेकर रात तक मन मस्तिष्क में भरा है,इसी को सामने रखकर उद्देश्य बनाकर सरकारी कर्मचारी दफ्तर जाता है ,व्यापारी व्यापार करता है .डाक्टर इलाज करता है, शिक्षक शिक्षा बेचता है ,नेता राजनीति करता है ,संत अपना व्यवसाय चलाता है उपदेश देता है,कहने का तात्पर्य यही है जब तक यह पापाचार अनाचार व्यभिचार दुराचार या एक ही शब्द में कहें “भ्रष्टाचार” नस नस में व्याप्त है,तब तक देश में संस्कार, सभ्यता और संस्कृति पुनःस्थापित नही हो सकते / आगे ईश्वर मालिक है !!!!!
रचना रस्तोगी

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