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“हिंदी दिवस पर पखवारा के आयोजन का कोई औचित्य है या बस यू हीं चलता रहेगा यह सिलसिला ?”

अपना लेख
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“हिंदी दिवस पर पखवारा के आयोजन का कोई औचित्य है
या बस यू हीं चलता रहेगा यह सिलसिला ?”

जी हाँ , हिंदी दिवस पर ‘पखवारों’ का आयोजन करने का कोई औचित्य नहीं है। आप लोगों और हमारे जैसे हिंदी ब्लॉग लिखने और पढने वाले ही कुछ लोग हैं जो इस पखवारे का औचित्य समझते हैं, वरना बाकी सब के पास अपने-अपने बहाने हैं और ये बहाने भी बड़े ही रोचक होते हैं। जो आप लोगों ने सुने भी होंगें और शायद सुनें भी हों। उनमें से कुछ आपके सामने प्रस्तुत हैं –
*दुनिया बदल रही है भाई, कौन पड़े इन फालतू के चक्कर में। वैसे भी हमारे अकेले से तो कुछ होने से रहा और आजकल इन सब के लिए टाइम कहाँ है ?
*तुम भी हद करते हो, ये जो तुम सब करते हो इसका कोई फायदा नहीं, जबतक ये पखवारा चलेगा तक तुम सब भी हाय-तौबा करोगे और अपने प्रवचन सुनओगें कि हिंदी से ये होगा, हिंदी से वो होगा, हिंदी अपनाओं। मैं बताऊँ भाई, हिंदी से कुछ नहीं होगा, तुम बस अपना मुर्ख बनाते रहोगे, मेरी मानों इन सब राहमंडलों को छोड़ों और दुनिया मत बदलों, दुनिया के साथ बदलों।
*लगता है तुम सब पागल हो, दुनिया इंग्लिश सीखना चाहती है और आज उसी का बोलबाला भी है और तुम सब हो कि ना जाने क्या हिंदी-हिंदी करते रहते हो। लगता है तुम लोगों के पास फालतू टाइम ज्यादा है, अपने पास इतना फ्री का टाइम नहीं है, माफ़ करना हमें।
प्रिय पाठकों, अभी जो मैंने ऊपर कुछ बिंदु लिखे ये तो बस कुछ नज़ारे हैं जो मैंने देखे और सुने लोगों के मुख से। ये वो बिंदु हैं जो ज्यादातर लोगों ने हिंदी दिवस पखवारे के आयोजन करने पर अपनी राय देते समय कहे।
अब अगर लोगों की मानसिकता ही ऐसी बन चुकी है तो आप चाहे जितने भी आयोजन कर लें उनका औचित्य कुछ भी नहीं रह जाता। बस लोगों ने इसका आयोजन किया और पखवारा पूरा होने पर भूल गये सब कुछ जैसे कि छुटकारा मिल गया किसी चीज़ से। मुझे ये लेख लिखते हुए मेरे गाँव का एक संवाद याद आ गया जो कि मेरे और एक गरीब आदमी के बीच का है जो कि हमारे यहाँ खेतों में मजदूरी करता था। वो संवाद कुछ इस प्रकार है –
आदमी:- राम-राम भइया।
मैं:- जय सिया राम! अउर मैकू बाबा कइसे हऊ?
आदमी:- ठीक हनु भइया, अऊर तुमरे हालचाल कइसे हईं।
मैं:- हमहूँ ठीकई हनु अऊर बिहाऊ निपटि-सिपटि गौउऊ बढ़िया तेरे कि नाईहं?
आदमी:- हाँ भइया, तुम लोगन केरी दुआवान तेरे बहुतई बड़ों बोझईं उतरि गओ सरसे। बिटिया केरो घरु बसि गओ, बसि अब जिन्दगिया आरामइ तेरे कटिहई।
( मैंने सोचा कि कितना बड़ा बोझ होती हैं लड़कियां, एक गरीब के लिए )
अब आप इस किस्से जैसा बोझ अगर हिंदी दिवस पर पखवारे को समझें तो इसका आयोजन एक मात्र औचित्य ही रह जायेगा और यह सब आयोजन ऐसे ही चलेगा जैसे एक गरीब मजदूर आदमी की बेटी की शादी और जब तक सभी बेटियों की शादी नहीं हो जाती, जो कि उसे जरूर करनी है, क्योंकि उसे अपने सिर का बोझ हटाना है।
अब अगर सभी अपनी सोच को ना बदलें, और उनकी राय जो हिंदी या हिंदी दिवस के पखवारों के आयोजन के लिए बनती जा रही है, वैसे ही रहे या बदतर हो जाये तो इन सब का कोई औचित्य नहीं है। पहले तो लोगों को अपनी राय बदलनी होगी जो हिंदी के लिए घातक है और लोगों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी, हिंदी के प्रति और हिंदी को बढावा देने वाले लोगों को।
मेरे द्वारा लिखित एक कविता की कुछ पंक्तियाँ आपके सामने प्रस्तुत हैं। जो कुछ जोश भर देंगी, आपके अन्दर और उसका कुछ फायदा हिंदी दिवस के पखवारों के लिए भी होगा –
“ आज फिर से एक शोला गरमा दिल में यहाँ, हम भी जोश में हैं
और तुम भी जोश में हो।
केवल आज के लिए ये सब है तो ये एक मस्ती है और जो ठहर
जाये हमेशा के लिए दोस्तों तो सही मायने में देशभक्ती है “
– राघवेन्द्र सिंह
हमारी मातृभाषा हिंदी को ऐसे देशभक्त मिल जायें जो वास्तविकता में कुछ करें, तो हिंदी दिवस पर पखवारों के आयोजन का औचित्य है।

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