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कल उत्तर प्रदेश में भारतीय लोकतंत्र सबसे निचले स्तम्भ पंचायत चुनावो का पहला चरण संपन्न हुआ. इस बार के चुनावो में युवा जोश ने जमकर वोटिंग की. चिनहट के धावां गाँव के रोहित कुमार ने पहली बार वोट डाला. वोट डालकर ये काफी खुश थे पर जब इनसे पूछा गया की क्या सोचकर वोट दिया तो वो भ्रमित दिखे. इन्हें ज्ञात ही नहीं था कि उन्होंने वोट किसलिए दिया. कुछ ऐसी ही कहानी मलेसेमऊ गाँव के वीरेंद्र की भी है जिन्होंने पहली बार बार वोट तो डाला पर पर वोट किसलिए दिया जाता है ये इन्हें मालूम ही नहीं. ये आलम सिर्फ रोहित या वीरेंदर का नहीं है बल्कि ये तस्वीर पहले बार वोटिंग कर रही उस युवा पीढ़ी की है जो वोट तो डाल रही है पर वोटिंग का पैमाना क्या है, ये उसे ज्ञात नहीं.
ज्यादा कुरेदने का पर आज की युवा पीढ़ी को सिर्फ दो शब्द याद आते हैं एक विकास और दूसरी नौकरी. कैसा विकास, इस पर भी कोई जवाब नहीं, नौकरी कैसे मिलेगी, तो जवाब था, वोट के बदले नेता जी नौकरी दिलाएंगे. सवाल उठता है ये इस देश की कैसी युवा पीढ़ी जिसे यह तक ज्ञात नहीं कि वोटिंग किसलिए की जा रही? क्या इसी युवा पीढ़ी के दम पर हमने वर्ष 2020 में विकसित भारत का सपना देख रखा है?
कहा जाता है कि किसी भी राष्ट्र का उज्जवल भविष्य उसके युवाओं के कन्धों पर निर्भर करता है. कंधे जितने मजबूत होंगे राष्ट्र का भविष्य उतना ही उज्जवल होगा. पर यहाँ तो तस्वीर कुछ और ही है. आज यहाँ की युवा पीढ़ी खुद की काबिलियत से ज्यादा नेताजी पर विश्वास करती है. वो वोटिंग तो करती पर सिर्फ नेताजी को खुश करने के लिए. ये बातें सिर्फ एक ही बात बताती है कि समय के साथ हमारी युवा शक्ति की नीव कमजोर पड़ गयी है.
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के बारें तो इस देश का आधे से ज्यादा युवा वर्ग पहले ही अनजान था अब ये अपने आत्मविश्वाश को भी डगमगा चुका है. आलम ये है कि आज युवा शक्ति खुद की क़ाबलियत से ज्यादा आरक्षण और नेताओं की सिफारिशों पर यकीन करती है. उसे लगता है कि चंद डिग्री हाथ में लेकर, नेताजी की सिफारिश के दम वो इस देश में कोई भी सरकारी नौकरी पर लेगा. और अमूमन होता भी यही है, लक्ष्मी जी का साथ और नेताजी की सिफारिश और कोई भी उल्लू किसी भी पोस्ट पर पहुँच सकता है.
ऐसे में कहे आज की युवा शक्ति बे-वजह लोकतांत्रिक व्यवस्था को समझने का प्रयास करें, बे-वजह वोटिंग के पैमाने को समझने की कोशिश करें. उसे तो पता है फलाने नेताजी नौकरी दिलायेंगे तो फलाने नेता जी को ही वोट दो. भले ही वो नेता जी उस वोट के दम पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चाट जाये इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.
दरासल ये सारी सुविधाएं राजनेताओं दवारा रचित उस सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है जहाँ ये नेता किसी भी कीमत पर राष्ट्र की “युवा चेतना” को जाग्रत नहीं होने देना चाहते. इन्हें पता है कि अगर युवा चेतना जाग्रत हुई तो वो राष्ट्र की मौजूदा आर्थिक, भूगोलिक, सामजिक व्यवस्था का मंथन करेगी और मंथन हुआ तो आज राजनीति का वो सच सामने आएगा जो इस देश के सारे राजनेताओं के रोजी-रोटी पर संकट खड़ा कर देगा.
लिहाजा हर राजनैतिक पार्टी और उसके नेता लोकतंत्र के हर चुनाव पर कुछ ऐसा खेल जरुर खेलते है जो युवा चेतना को शून्य की ओर अग्रसर कर दें और इनके इशारों पर नाचने को मजबूर कर दें. मसलन अगर चुनाव विधानसभा का है तो ये बेरोजगारी भत्ता देने की बात करते है और अगर चुनाव सांसदी है तो ये मंदिर निर्माण और आरक्षण जैसे लालीपाप मुद्दों की बात करते है. इन सारी कवायदों का मकसद सिर्फ एक होता है हर हाल में युवा शक्ति को जाग्रत होने से रोकना. और हर बार ये अपनी कवायद में सफल भी होते क्योकि आज इस देश की युवा शक्ति खुद में क्षीण है.
पर अब समय आ गया है ये युवा शक्ति जाग्रत हो और वोट मांगने वाले नेताओं से ये सवाल करें हमारे उज्जवल भविष्य और सशक्त राष्ट्र के निर्माण में आपका क्या योगदान? ये सवाल उन राजनैतिक दलों के लिए और भी मौजूं हो जाता है जो धर्म और जाती की राजनीति करते है? आज ये वक्त की मांग है कि अखंड भारत की युवा चेतना जाग्रत हो और मौजूदा आर्थिक, भूगोलिक, सामजिक व्यवस्था का मंथन का करें. किन्तु यक्ष प्रश्न सिर्फ इतना है कि क्या युवा चेतना जाग्रत हो पायेगी?
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