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इस गणतंत्र हमे लेनी होगी सशक्त भारत के निर्माण की शपथ

anurag
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भारतीय लोकतंत्र के दो पर्व बिल्कुल नजदीक आ चुके है पहला हमारा गणतंत्र दिवस और दूसरा लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा पर्व विधानसभाओ के होने वाले सामान्य चुनाव.पहला इस देश की लोकतान्त्रिक व्यस्था का प्रतीक है और दूसरा इस व्यस्था को चलाने का आधार है .पर अफ़सोस ये है की वर्तमान समय में ये दोनों ही महापर्व लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए सिर्फ फर्ज अदाएगी व मजाक बनते जा रहे है. चुनाव जहा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्तिके लिए न होकर राजनैतिक दलों द्वारा सत्तारूढ़ होकर अपने हितो को साधने का माध्यम बन गए है तो वही गणतंत्र दिवस के दिन होने वाले राष्ट्रीय कार्यक्रम भी अब रस्मो रिवाज़ बनते जा रहे है. नेता गणतंत्र दिवस के दिन इस देश की सुख समृधि और विकास के बाते तो करते है किन्तु अगले ही दिन अपने कुटिल मानसिकता से गणतंत्र की भावना का कत्ल कर देते है जिसका उद्दह्रण भी हमें इस समय हो रहे उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावो में देखने को मिल रहा है. २६ जनवरी १९50 को स्थापित हमारे गणतंत्र का उदेदश्य “सर्व धर्म संभव को स्थपित करते हुए जियो और जीने दो के सिद्धांत को लागू करना था”.जिसमे गणतंत्र यानि लोकतान्त्रिक व्यवस्था महज एक संवैधानिक व्यवस्था न होकर एक जीवन पद्धति होती है जिसका आधार है हमारा वर्तमान सविधान. हमारा सविधान भी इस बात की पुष्टि करता है. २६ जनवरी १९५० को स्थापित हमारे सविधान की उद्देशिका मे लिखा है की ” हम भारत के लोग, भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिको में सामाजिक,आर्थिक, और राजनैतिक, न्याय, विचार, अभिवयक्ति, विश्वाश, धर्म और उपासना की स्वन्तान्त्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमे व्यक्ति की गरिमा और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस सविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ को एतदद्वारा इस सविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते है. वर्तमान दौर में सविधान के इसी मूल भावना का जमकर मजाक उड़ाया जा रहा है. इस उद्देशिका में लिखा हर शब्द आज के दौर में महज एक मजाक बनकर रह गया है. आज तक न तो देश सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य बन पाया है और नहीं ही देश में सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था सुचारू से चल रही है. इतना ही नहीं अब अभिवयक्ति की आजादी पर भी एक आघोषित रोक लगती जा रही है. देश को साम्प्रदयिकता कि आग में झोकने की पूरी तैयारी हो चुकी है. जिसकी एक बानगी उत्तर प्रदेश की विधान सभा चुनावो में देखने को मिल रही है. सत्ता पाने की जंग में अब राजनैतिक दल राजनीत के नैतिक दायित्व को भी भूल चुके है. कांग्रेस से लेकर सपा तक और बसपा से लेकर भाजपा तक सभी अपने अपने स्वार्थो की पूर्ति में लगे हुए है.कोई मुस्लिमो को आरक्षण देनेकी बात करता है तो कोई बिजली पानी देने की बात करता.हा एक बात जो कामन है इन राजनैतिक दलो के बीच वो है भ्रष्टाचार का मुद्दा. हर पार्टी का नेता अपने चुनावी दौरे में चिल्ला रहा है की अगर उसकी सरकार आई तो भ्रष्टाचार ख़त्म होगा. पर भ्रष्टाचार को लेकर ये राजनैतिक दल कितने मजबूत है ये इस बार के विधानसभा चुनावो के लिए जारी विभिन्न राजनैतिक दलों की प्रत्याशियों की सूची से ही पता चलता है. कोई भी ऐसी पार्टी नहीं है जिसने दागियो और भ्रष्टाचारियो को टिकट न दिया हो. भ्रष्टाचार के नाम पर मंत्रियो को बर्खास्त करने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी भ्रष्टाचारियो को टिकट दिया है किन्तु बड़ी चालाकी से पांच साल तक भ्रष्टाचार से अकूत धन बटोरने के बाद जनता के समक्ष पार्टी की साफ़ सुथरी छवि दिखाने केलिए जनता के सामने बेनकाब मंत्रियो का टिकट काट कर उनके पर्वरिजानो को टिकट दे कर प्रकारान्तर से उन्हें ही दोबारा उपकृत किया है .फर्क सिर्फ इतना है की कोई सीधे भ्रष्टाचारियो को टिकट दे रहा है तो कोई उनके परिवारीजनो को पर दिया सबने .इसी तरह एक और चीज़ कामन होती जा रही है वो है आरक्षण की राजनीत. अभी तक तो देश में जातीय आधार पर आरक्षण की व्यवस्था थी लेकिन अब कांग्रेस धर्म आधरित आरक्षण देने को तैयार है शर्त सिर्फ इतनी की उसे प्रदेश की सत्ता सौपी जाये.यानी सत्ता के लिए कुछ भी हो सकता है. सत्ता के लिए धर्म के आधर पर भी आरक्षण दिया जायेगा. धर्म आधरित आरक्षण का मतलब है किसी धर्म विशेष को ज्यादा लाभ पहुचना. यहाँ पर हमारे सविधान की मूल भावना सर्व धर्म संभव को ताख पर रख दिया गया मात्र सत्ता सुख के लिए कांग्रेस जैसी राजनैतिक पार्टियों ने धर्म आधरित आरक्षण का भी बीज बो दिया. आज मुस्लिमो को धर्म के आधार पर आरक्षण देने की बात हो रही है कल सिक्खों, ईसाईयो को भी धर्म के नाम पर आरक्षण देने की मांग उठने लगेगी जैसे आज हर जाती के लोग अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे है. आज मात्र सत्ता सुख के लिए राजनैतिक दल सविधान की मूल भावना का भी गला घोटने को तैयार है और उन्हें घोटना भी चाहिए क्योकि आज की इस स्थिति के लिए हम स्वयं में जिम्मेदार है ने इन सियासी दलों को बढ़ावा दिया है मात्र कुछ पलो के सुकून के लिए हम आरक्षण, धर्म, जातिवाद के मोहपास में आ जाते है. और आरक्षण जातिवाद या अन्य किसी भी तरह की भावनात्मक बात कहने वाले दल की सरकार बनवा देते है और बात में जब सरकार गलत निकल जाती तो हम कहते है राजनीत भ्रष्ट है.
राजनीत भ्रष्ट जरुर है पर इस भ्रष्ट राजनीत के पोषक वास्तव में हमी है. हम खुद ही अपने देश के निर्माण में सक्रिय भूमिका नहीं निभा रहे है जिसका एक उदहारण पिछले कुछ वर्षो में मतदान में आई गिरावट है. अगर विगत दो बार के विधानसभा चुनावो के परिणामो को देखा जाये प्रदेश की कुल आबादी की ४० प्रतिशत से ज्यादा की जनता ने वोट नहीं किया. और सिर्फ विधानसभा चुनाव ही क्यों लोकसभा चुनावो के परिणामो में भी स्थिति कुछ ऐसी ही रही . यानि ६० फीसदी जनता ऐसी है जो आज भी सशक्त भारत के निर्माण में योगदान नहीं कर रही. इनके पास इस मतदान को न करने के अनेक कारण है जैसे एक वोट से थोड़े कुछ होने वाला, सारे राजनितिक दल और नेता एक ही है, सब को लूट खसूट ही करना है, वोट डालने में समय बर्बाद करने से अच्छा चार पैसे कमाने में समय खर्च किया जाये आदि. देश की ये साठ फीसदी आबादी इन्ही कारणों की आड़ में मतदान नहीं करती और जो चालीस फीसदी करती भी है तो वो धर्म जाति समुदाय, व्यक्तिगत लाभ और विभिन्न तरह के राजनितिक दलों के भावनात्मक मुद्दों से भ्रमित होकर करती है. और फिर जब देश और प्रदेश में गलत सरकारे बन जाती है तो यही १०० फीसदी जनता घडियाली आसू बहाती है और कहती है की राजनीत और राजनेता दोनों ही भ्रष्ट है. लेकिन वह यह नहीं सोचती की इसके जिम्मेदार हम ही है. अगर हमने मतदान किया होता या फिर मतदान में निष्पक्ष भूमिका को निभाया होता तो शायद प्रदेश और देश में आसीन ये लूट की सरकार न स्थापित हो पाती. आज देश में जितनी भी समस्यायें है वो इसीलिये है की हम अपने राष्ट्र के निर्माण की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी (मतदान) को छोड़ रहे है. जो देश की संसदीय व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है. इसलिए आवश्यकता इस बात की है की हम जागे और राष्ट्र के प्रति अपनी नैतिक दायित्व मतदान में पूरी भूमिका निभाये क्योकि आपके द्वारा डाला गया वोट सिर्फ एक वोट नहीं होता बल्कि वो इस देश को सही दिशा देने वाली सरकार को बनाने के प्रति पहला कदम होता है . हलाकि चुनावो में मतदान की दर को बढ़ाने के लिए और जनता को जागरूक करने के लिए चुनाव आयोग से लेकर विभिन्न संघटन और मीडिया प्रयासरत है. लेकिन मीडिया से लेकर चुनाव आयोग तक के ये प्रयास तभी सफल होंगे जब हम और आप जागेंगे. तो इस गणतंत्र दिवस पर हमे यह शपथ लेनी होगी की इस बार हो रहे विधानसभा चुनावो में हम १०० फीसदी मतदान करके सशक्त भारत के निर्माण की तरफ पहला कदम बढ़ाएंगे. हलाकि सिर्फ जनता का दोष देना ही न्यायोचित न होगा क्योकि जनता विभिन्न राजनैतिक दलों के मनलुभावन नारों, उनके द्वारा दिखाए गए देश की काल्पनिक इन्द्रधनुषी तस्वीरो के चक्कर में इतने फरेब खा चुकी है की वह अब रहजन व रहबर में फर्क करने की क्षमता लगभग खो चुकी है और उसे सभी राजनैतिक चेहरे एक जैसे लगने लगे है और यदि विगत इतिहास पर नजर डाला जाये तो कमोबेस ये बात सही भी है. वस्तुतः “ये देश एक सड़ी हुई लाश है, जिसे नोच रहे है दो कुत्ते, एक दुसरे के हिस्से की तरफ लपकता है दूसरा उसे देखकर जोर से भौंकता है, यही इनका विरोध, शेष सब सहमति है”. इसीलिये जरुरत है कि मतदान करने के पूर्व सभी राजनैतिक पार्टियों के घोषणा पत्रों के गहन अध्यन करने की, उम्मीदवारों के चरित्र उनकी पृष्ठिभूमि व उनके सामाजिक सरोकारों और रचनात्मक क्षमताओ की गहन जानकारी के बाद ही उम्मीदवारों का चुनाव किया जाये लेकिन सिर्फ इतना ही काफी नहीं है निर्वाचित होने के बाद उनके क्रियाकलापों विभिन्न सरकारी निधियो के सही समुचित सदुपयोग की निगरानी के बिना हमारा कोई भी जनप्रतिनिधि राजनीत की रपटीली राहों में भटकाव का शिकार हो सकता है क्योकि चुनाव के बाद जनप्रतिनिधियों के क्रिया कलापों पर अंकुश लगाने का कोई भी हथियार जनता के पास इस सविधान ने नहीं दिया है

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