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प्रजातियों की विकास यात्रा में कल्पना का महत्व सर्वोपरि है। कल्पना की उर्जा जब चिंतन के शिखर से टकराती है तो श्रीमदभगवत गीता के श्लोक प्रस्फुटित होते हैं और जब वो संवेदना की किसी महकती घाटी से गुजरती है तो कुमार संभव के पृष्ठों पर आलिंगनबद्ध पार्वती परमेश्वर का चेहरा नमूदार होता है। ये बात और है कि संवेदना की इस महकती घाटी से गुजरने के पूर्व कलाकार को यथार्थ का मरुस्थल पार करना होता है क्योकि कलाकार के शरीर को ऊष्मा शबनमी होठों से नहीं बल्कि रोटी से मिलती है। अब आप बा-खूबी समझ गए होंगे कि प्रेमचंद का कथा साहित्य मांसल जिस्म के मोहक कटावों में अनुरक्त विरही यक्ष की प्रणय गाथा नहीं बल्कि भूख से संतप्त आम आदमी की जिंदगी का दस्तावेज है। प्रेमचंद का गोदान बीसवीं सदी की वो गीता है जो शोषण के दुर्योधन से संघर्षरत आधुनिक कुंती पुत्रों का दिशा निर्देश करती है।
इसी क्रम में प्रस्तुत है प्रेमचंद की कहानी “आहुति” व उपन्यास “रंग भूमि” के कुछ अंश जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने की कल थे।
” अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा लिखा समाज यों ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मै कहूँगी ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेजी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का सब हित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिए हुए हैं, उन्ही बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ायेगी कि वे विदेशी नहीं स्वदेशी है? कम से कम मेरे लिए स्वराज्य का अर्थ यह नहीं है कि जान की जगह गोविन्द बैठ जाये।” (‘आहुति’ कहानी की नायिका)
” इस तरह जबरदस्ती करने के लिए जो कानून चाहे बना लो। यहाँ कोई सरकार का हाथ पकड़ने वाला तो है ही नहीं। उसके सलाहकार भी तो सेठ महाजन ही हैं। ये सभी नियम पूंजीपतियों के लाभ के लिए बनाये गए हैं और पूंजीपतियों को ही यह निश्चय करने का अधिकार दिया गया है कि उन नियमों का कहाँ व्यवहार करें। कुत्ते की खाल की रखवाली सौपी गयी हैं।” (‘रंगभूमि’ उपन्यास का पात्र सूरदास)
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