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क्या अमर सिंह लिखेंगे 2017 के विधानसभा चुनावो में सपा-भाजपा गठबंधन की पटकथा

anurag
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2015

सियासत का ये खेल है कि जो आज दुश्मन है वो कल दोस्त होंगे और जो दोस्त है वो सियासी दुश्मन हो जायेगे, इसी खेल की परिणति कुछ वर्षों पहले तब देखने को मिली थी जब समाजवादी पार्टी ने अमर सिंह को पार्टी से निकालकर सियासी दुश्मन बन चुके अपने पुराने दोस्त आजम खान की पार्टी में वापसी करायी थी. अब फिर कुछ ऐसी ही तस्वीर एक बार फिर समाजवाद के सियासी कुनबे में देखने को मिल रही है. अंतर सिर्फ इतना है कि तब अमर को निकालकर आजम की वापसी करायी गयी थी और अब आजम की बलिवेदी पर अमर की वापसी की पटकथा लिखी जा रही है.
हालाँकि इस पटकथा के मूल में उत्तर विधानसभा चुनाव 2017 की वो पटकथा है जिसके एक्टर और डायरेक्टर स्वयं अमर सिंह होंगे. जी हाँ कल अखिलेश के सियासी रोजा इफ्तार में जो तस्वीर उभरी उसने विधानसभा चुनाव 2017 के कई समीकरणों को हल्की झलक दिखला दी है. इन्ही समीकरणों में से एक हो सकता है विधानसभा चुनाव 2017 में पूर्ण बहुमत ना आने की स्थिति में सत्ता के लिए सपा-भाजपा का गठबंधन जिसे सब्जबाग से हकीक़त तक लाने की जिम्मेदारी होगी अमर सिंह की.
वैसे भी अमर सिंह को पालिटिकल गेम मेकर कहा जाता है. जब भी किसी सियासी दल का सियासी आकंडा गड़बड़ाया है किसी ना किस रूप में उसने अमर सिंह की सहायता ली है. इसकी एक बानगी कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में भी देखने को मिली थी जब अमेरिकी परमाणु करार के मसले पर अपनों से घिरी कांग्रेस सरकार के लिए अमर सिंह संकट मोचक बनकर उभरे थे.
उस समय परमाणु करार के प्रस्ताव पर असहमति जताते हुए यूपीए सरकार में शामिल चारों वामपंथी पार्टियों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और सरकार अल्पमत में आ गयी थी. संकट के समय में कांग्रेस ने अमर सिंह साथ लिया और परिणाम ये हुआ कि परमाणु करार के मसले पर विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी ने सदन में वोटिंग के समय बहिष्कार कर दिया और कांग्रेस का परमाणु करार बिल ध्वनी मत से पास हो गया. ये तो सिर्फ कहानी का एक अंश मात्र है. ऐसे कई उदहारण मौजूद है जब किसी भी पार्टी के सियासी संकट में अमर सिंह ने संकट मोचक बनकर आने वाली हर बाधा को हर लिया है.
इन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार की छवि अच्छी नहीं है. कानून व्यवस्था के मसले पर बुरी तरह फेल चुकी इस सरकार के रणनीतकारों को भी अब इस बात का अहसास हो चुका है कि मात्र दो साल के अंतराल पर होने वाले विधानसभा चुनाव में सपा की वापसी बेहद मुश्किल है.
ऐसे मे रणनीतकार भी हर उस आप्शन को खुला रखना चाहते है जो 2017 में सपा को सत्ता तक पंहुचा सकें. ऐसा ही एक आप्शन बीजेपी-सपा की गठबंधन सरकार है जो अमर सिंह के बगैर संभव नहीं होगी. क्योकि अमर सिंह ही एक ऐसे शख्सियत है जो इस गठबंधन को कराने का मादा रखते है.
हालाँकि समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की वापसी उतनी आसान नहीं होगी जितनी की दिख रही है. यादव परिवार के अपने कुनबे में ही अमर सिंह को लेकर तमाम मतभेद है. आधे पक्ष में है तो आधे विपक्ष. मतभेद का सबसे बड़ा केंद्र बिंदु रामगोपाल यादव है जो अमर सिंह को फूटी आँख भी पसंद नहीं करते है और यदा-कदा अमर सिंह की पार्टी में वापसी को एक सिरे से ख़ारिज भी करते रहते है. हालाँकि इस बार अब तक इस पूरें प्रकरण पर रामगोपाल का बयान ना आना भी अपने आप में बहुत कुछ बता रहा है.
अभी 2017 के चुनाव को लेकर यूपी में जो सियासी तस्वीर बन रही है उसे देखकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायद इस बार के चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत ना मिलें. हालाँकि अभी इस तरह आंकलन करना जल्दीबाजी होगी क्योकि राजनीत में दो साल का समय किसी भी तस्वीर को बदलने के लिए पर्याप्त होता है लेकिन फिर भी सपा में अमर सिंह की वापसी की ख़बरें कुछ हद इसी तस्वीर की तरफ इशारा कर रही है.

सियासत का ये खेल है कि जो आज दुश्मन है वो कल दोस्त होंगे और जो दोस्त है वो सियासी दुश्मन हो जायेगे, इसी खेल की परिणति कुछ वर्षों पहले तब देखने को मिली थी जब समाजवादी पार्टी ने अमर सिंह को पार्टी से निकालकर सियासी दुश्मन बन चुके अपने पुराने दोस्त आजम खान की पार्टी में वापसी करायी थी. अब फिर कुछ ऐसी ही तस्वीर एक बार फिर समाजवाद के सियासी कुनबे में देखने को मिल रही है. अंतर सिर्फ इतना है कि तब अमर को निकालकर आजम की वापसी करायी गयी थी और अब आजम की बलिवेदी पर अमर की वापसी की पटकथा लिखी जा रही है.

हालाँकि इस पटकथा के मूल में उत्तर विधानसभा चुनाव 2017 की वो पटकथा है जिसके एक्टर और डायरेक्टर स्वयं अमर सिंह होंगे. जी हाँ कल अखिलेश के सियासी रोजा इफ्तार में जो तस्वीर उभरी उसने विधानसभा चुनाव 2017 के कई समीकरणों को हल्की झलक दिखला दी है. इन्ही समीकरणों में से एक हो सकता है विधानसभा चुनाव 2017 में पूर्ण बहुमत ना आने की स्थिति में सत्ता के लिए सपा-भाजपा का गठबंधन जिसे सब्जबाग से हकीक़त तक लाने की जिम्मेदारी होगी अमर सिंह की.

वैसे भी अमर सिंह को पालिटिकल गेम मेकर कहा जाता है. जब भी किसी सियासी दल का सियासी आकंडा गड़बड़ाया है किसी ना किस रूप में उसने अमर सिंह की सहायता ली है. इसकी एक बानगी कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में भी देखने को मिली थी जब अमेरिकी परमाणु करार के मसले पर अपनों से घिरी कांग्रेस सरकार के लिए अमर सिंह संकट मोचक बनकर उभरे थे.

उस समय परमाणु करार के प्रस्ताव पर असहमति जताते हुए यूपीए सरकार में शामिल चारों वामपंथी पार्टियों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और सरकार अल्पमत में आ गयी थी. संकट के समय में कांग्रेस ने अमर सिंह साथ लिया और परिणाम ये हुआ कि परमाणु करार के मसले पर विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी ने सदन में वोटिंग के समय बहिष्कार कर दिया और कांग्रेस का परमाणु करार बिल ध्वनी मत से पास हो गया. ये तो सिर्फ कहानी का एक अंश मात्र है. ऐसे कई उदहारण मौजूद है जब किसी भी पार्टी के सियासी संकट में अमर सिंह ने संकट मोचक बनकर आने वाली हर बाधा को हर लिया है.

इन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार की छवि अच्छी नहीं है. कानून व्यवस्था के मसले पर बुरी तरह फेल चुकी इस सरकार के रणनीतकारों को भी अब इस बात का अहसास हो चुका है कि मात्र दो साल के अंतराल पर होने वाले विधानसभा चुनाव में सपा की वापसी बेहद मुश्किल है.

ऐसे मे रणनीतकार भी हर उस आप्शन को खुला रखना चाहते है जो 2017 में सपा को सत्ता तक पंहुचा सकें. ऐसा ही एक आप्शन बीजेपी-सपा की गठबंधन सरकार है जो अमर सिंह के बगैर संभव नहीं होगी. क्योकि अमर सिंह ही एक ऐसे शख्सियत है जो इस गठबंधन को कराने का मादा रखते है.

हालाँकि समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की वापसी उतनी आसान नहीं होगी जितनी की दिख रही है. यादव परिवार के अपने कुनबे में ही अमर सिंह को लेकर तमाम मतभेद है. आधे पक्ष में है तो आधे विपक्ष. मतभेद का सबसे बड़ा केंद्र बिंदु रामगोपाल यादव है जो अमर सिंह को फूटी आँख भी पसंद नहीं करते है और यदा-कदा अमर सिंह की पार्टी में वापसी को एक सिरे से ख़ारिज भी करते रहते है. हालाँकि इस बार अब तक इस पूरें प्रकरण पर रामगोपाल का बयान ना आना भी अपने आप में बहुत कुछ बता रहा है.

अभी 2017 के चुनाव को लेकर यूपी में जो सियासी तस्वीर बन रही है उसे देखकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायद इस बार के चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत ना मिलें. हालाँकि अभी इस तरह आंकलन करना जल्दीबाजी होगी क्योकि राजनीत में दो साल का समय किसी भी तस्वीर को बदलने के लिए पर्याप्त होता है लेकिन फिर भी सपा में अमर सिंह की वापसी की ख़बरें कुछ हद इसी तस्वीर की तरफ इशारा कर रही है.

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