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मुबई की एक युवती को फेसबुक पर टिप्पड़ी करना इतना महंगा पड़ा कि टिप्पड़ी के चलते उसकी गिरफ़्तारी हो गई। युवती ने बाला साहेब ठाकरे की मृत्यु के पश्चात फेसबुक पर एक टिप्पड़ी की थी। अपनी टिप्पड़ी में उसने लिखा था कि ठाकरे जैसे लोग रोज पैदा होते और मरते हैं। इसके लिए बंद करने की कोई जरूरत नहीं है, नतीजा ये हुआ की मुंबई पुलिस ने तत्काल प्रभाव से उस युवती को आईपीसी की विभिन्न धाराओ के तहत गिरफ्तार कर लिया जिनमे धार्मिक उन्माद की धारा 295 (ए) भी शामिल है। इतना ही नहीं मुंबई पुलिस ने इस युवती की टिप्पड़ी को पसंद करने वाली एक और युवती से भी पूछ ताछ की। अपनी कार्यवाही के बाबत मुंबई पुलिस का कहना है की ऐसा कृत्य से शहर में उन्माद फ़ैल सकता है इसे मात्र अभिवयक्ति मान कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हलाकि मुंबई पुलिस के इस बयान में कोई दम नहीं दिखता जिसके दो कारण है।
प्रथम ये कि ठाकरे कभी भी जन स्वीकार्य नेता नहीं रहे उनका जो भी जनाधार रहा वो सिर्फ मराठियों में रहा। दूसरा ये कि सोशल साईटो की प्रभाविकता अभी भी भारत में उतनी नहीं कि इन पर लिखी टिप्पड़ियां सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का कारक बन सके । इसलिए मुंबई पुलिस का ये कहना कि युवती की टिप्पड़ी से धार्मिक उन्माद फ़ैल सकता था थोडा समझ से परये है। हाँ ये बात जरुर समझ में आती है कि इस कार्यवाही के जरिये मुंबई पुलिस ने अपनी कमजोरियों को छुपाने की कोशिश की है।मुंबई पुलिस के मन में अब भी ये डर बैठा है कि यदि बाला साहेब के सम्बन्ध में कुछ भी लिखा या कहा गया को स्तिथि बेकाबू हो जाएगी जिससे निपट पाना आसान नहीं होगा। और यही कारण है की जब भी किसी भी व्यक्ति ने शिवसेना या बाल ठाकरे के खिलाफ बोलना चाहा मुबई पुलिस ने उसकी आवाज़ को दबा दिया। सीधे शब्दों में कहा जाये तो ठाकरे की मृत्यु के बाद भी ठाकरे का खौफ मुंबई पुलिस के दिलो दिमाग में छाया हुआ है जिसके चलते वो ठाकरे से जुडी किसी भी अभिव्यक्ति को स्वीकार करने में असर्मथ हो चुकी है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि मुंबई पुलिस द्वारा की गयी कार्यवाही क्या संविधान द्वरा प्रदत्त अभिवयक्ति की आजदी का हनन नहीं है ?
हलाकि यहाँ भी विरोधाभाष की स्थिति है। विरोधाभाष इस बात का है कि व्यक्ति द्वारा कही जा रही किस बात को अभिव्यक्ति माना जाये और किसे साजिश का हिस्सा। हमारे संविधान ने अभिवयक्ति की आजादी का अधिकार दिया है और इसके संदर्भ में कुछ बातें भी स्पष्ट की है। हमारा संविधान कहता है कि ये अधिकार उस जगहों पर प्रतिबंधित हो जायेंगे जहाँ धार्मिक उन्माद, व्यक्ति की निजता या फिर राष्ट्रीय अखंडता पर खतरा हो। पर संविधान में इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया है की कौन सी बातें अभिवयक्ति की श्रेणी में जाएगी और कौन सी नहीं। खासकर जहाँ पर बात व्यक्ति की निजता के सम्बन्ध में कही गयी हों । ऐसे में किन बातों को निजता का उल्लंघन माना जाये यह स्पष्ट नहीं है। क्योकि सामन्यतः हर आदमी एक दूसरे के विरोध में कुछ न कुछ कहता और अपनी राय रखता है ऐसे में हर बात को तो अभिवक्ति का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। इसलिए अब यह आवश्यक हो गया है कि अभिवयक्ति के संदर्भ में संविधान में दिए गए निर्देशों की पुनः समीक्षा की जाये और नए तरीके से अभिव्यक्ति की परिभाषा को परिभाषित किया जाये क्योकि जब संविधान की रचना हुई थी तब देश में अभिव्यक्ति को व्यक्त करने के माध्यम बहुत कम थे जिसके चलते आम आदमी की अभिवयक्ति भी बहुत कम थी। लेकिन मौजूदा दौर में परिस्थतियाँ काफी ज्यादा बदल चुकी है। अब अभिव्यक्ति के माध्यम भी हजार है और अभिव्यक्ति को व्यक्त करने वाले भी हजार हैं। इसलिए अब ये समय की मांग है की अभिव्यक्ति की परिभाषा को पुनः परिभाषित किया जाये।
जहाँ तक बात मुंबई पुलिस की कार्यवाही की है तो मुंबई पुलिस की कार्यवाही को खुद कोर्ट ने अस्वीकार करते हुए ये माना है की युवती द्वरा लिखी गयी उक्त टिप्पड़ी अभिव्यक्ति का उल्लंघन नहीं है और न ही इस टिप्पड़ी से कोई धार्मिक उन्माद फैलने की स्थति बनती है। कोर्ट ने इसी आधार पर युवती को जमानत भी दे दी। रहा सवाल ठाकरे का तो जब सरकारे नियमो के विपरीत जाकर उस व्यक्ति को जिसने लोकतान्त्रिक मूल्यों को कभी माना ही नहीं, जिसने हिटलरशाही को अपना आदर्श माना हों, राष्ट्रीय सम्मान दे सकती है तो आम आदमी उनके विरुद्ध क्यों नहीं लिख सकता हैं।
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