- 70 Posts
- 60 Comments
कल लखनऊ विश्विद्यालय में पत्रकारों पर हमला हुआ सुनकर झटका लगा और सहसा मन में अनेक प्रश्न उठे कि आखिर वो कौन से कारण है जिनके चलते विगत कुछ दिनों से मीडिया को निशाना बनाया जा रहा है वो भी उस मीडिया को जिसे आम आदमी का हथियार माना गया है और जिसने इस देश की आजादी में अहम् भूमिका निभाई जिसको हथियार बनाकर गाँधी, नेहरु, बोस आदि देश के सुरवीरो ने इस देश को आजादी दिलाई थी। प्रश्नों के इसी क्रम में मन में यह भी प्रश्न उठा कि विगत दिनों में जो भी हमले पत्रकारों पर हुए वो किसी रणनीत की परिणाम है या फिर आम आदमी का मीडिया पर स्वाभविक गुस्सा?
साधारण तौर पर अगर देखा जाये तो इस तरह के हमले एक रणनीत (साजिश) का हिस्सा दिखाई पड़ते है परन्तु अगर समस्या के मूल में जाया जाये तो तस्वीर कुछ और ही दिखाई पड़ती है। एक पुरानी कहावत है कि ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती’ यानि किसी भी घटना का सिर्फ एक पहलू नहीं होता अपितु उसके तमाम ऐसे पहलू होते है जो होते तो अदृश्यमान है पर घटनो की पूर्ति में वो महत्वपूर्ण कारक होते है। कुछ यही स्थिति पत्रकारिता और पत्रकारों पर हो रहे हमलो को लेकर भी है। जिस पर हमारे पत्रकारिता जगत के वरिष्ठ साथी चर्चा ही नहीं करना चाहते।
आज जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए खुद पत्रकारिता जगत जिम्मेदार है। पत्रकारों ने खुद अपने कर्मो से आम आदमी की नजर में अपने सम्मान को गिरा दिया जिसके फलस्वरूप आज अगर पत्रकार कही जाता है तो वो एक पत्रकार से ज्यादा कुछ और ही समझा जाता है। पत्रकारिता में आई इस गिरावट के लिए सिर्फ पत्रकार जिम्मेदार नहीं अपितु मीडिया संस्थान भी जिम्मेदार है जिनके कारण आज लगातार मीडिया का मानक गिरता जा रहा है। अब आप पूछेंगे ये कैसे ? अरे भाई सीधी सी बात है आदमी गलत काम की तरफ कब बढ़ता है जब उसके दैनिक आवश्यकताओ की पूर्ति नहीं होती क्योकि ” बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को, भूख ले आती ऐसे मोड़ पर इंसान को”।
आज मीडिया संस्थाओ में एक पत्रकार की मासिक तन्खवाह कितनी होती है अगर कुछ बड़े मीडिया संस्थानों की बात छोड़ दी जाये तो मुश्किल से पांच हजार से दस हजार के बीच। अब ऐसे में एक पत्रकार अपने और अपने परिवार के दैनिक आवश्यकताओ की पूर्ति को और पत्रकारिता धर्म को एक साथ कैसे निर्वाहित करे।
समस्या की शुरुवात यही से होती है जब एक पत्रकार अपनी दैनिक आवश्यकताओ की पूर्ति नहीं कर पाता तो वो दूसरे रास्तो को चुनता है ताकि वो अपनी मासिक आय को बढ़ा सके। यही दूसरा रास्ता उसे पतन की ओर ले जाता है और वो कुछ ऐसे कार्य करने लगता है जो न आम आदमी के लिए हितकर है और नहीं पत्रकारिता जगत के हित में है। मसलन किसी भी घटना को एक तरफ़ा चलाना. खबर को एक खास राजनैतिक रंग दे देना और अंततः पूंजीपति वर्ग के हाथो का खिलौना बन जाना । गौर करने लायक बात ये है कि पत्रकार के इस काम में मीडिया संस्थान भी बराबर का सहयोग करते है क्योकि इसमें उनका भी फायदा होता और कोई न कोई राजनैतिक दल, अखबार या चैनल को खास तरीके से ओब्लायिज कर देता है। नतीजे के तौर आम आदमी के बीच में पत्रकारिता की इज्ज़त घटती है। दुःख और तकलीफ इस बात की है कि कुछ पत्रकार तो आर्थिक मज़बूरी के चलते ऐसा करते है पर कुछ स्वभ्वता ऐसा करने पर मजबूर होते है क्योकि इससे संस्थान में उसकी इज्ज़त बढती है और मालिको की नजर में वो एक कमाऊ मुर्गा हो जाता है जो खुद भी कमाता है और संस्थान को भी कमा कर देता है। ऐसे में जब आम आदमी का आक्रोश भडकता है तो उसका पहला निशाना मीडिया ही होती है। अभी कल जो हमला लखनऊ विश्विद्यालय में पत्रकारों पर हुआ वो भी राजैतिक साजिश के चलते हुआ. हमारे कुछ पत्रकार साथी पत्रकारिता के धर्म को निभाने से ज्यादा विश्विद्यालय की राजनीत में रूचि लेने लगे और निष्पक्ष पत्रकारिता की जगह पर खबरों को राजनैतिक रूप से परोशने लगे नतीजा जिस वर्ग के खिलाफ एक तरफ़ा खबरे लिखी जा रही थी उस वर्ग का आक्रोश फूटा और वो आक्रोश इस घटना के तौर पर दिखा।
पर सोचने वाली बात ये है कि जब इस तरह के हमले होते तो पत्रकार साथी खुद की कालर में झाकने के बजाये दूसरो में कमियों को ढूंढते है और सरकार से ये उम्मीद करते है की वो उन पर हमला करने वालो को गिरफ्तार करायेगी। यहाँ पर भी हमारे पत्रकार साथी अपने हितो की रक्षा नहीं कर पाते क्योकि वे निज स्वार्थो में इस तरह डूबे है कि उन्हें अब किसी तरह के मान सम्मान की चिंता नहीं है। उन्हें चिंता है तो अपने स्वार्थो की पूर्ति की.
याद रखिये सरकार भी उसी की सुनती है जिसके संघठन में एकता हो और यहाँ तो इतने संघठन है कि समझ में ही नहीं आता कौन संघठन पत्रकारों का हितकर और कौन नहीं. अभी हाल में जितने भी हमले पत्रकारों पर हुए उन पर किसी भी संघटन ने मजबूत रुख अख्तियार नहीं किया. किसी संघठन का अध्यक्ष मुख्यमंत्री से फूलो का गुलदस्ता लेते दिखा तो कोई संघटन निंदा प्रस्ताव पास करते दिखा जबकि अब समय की मांग है कि पत्रकारिता के मानक को सुधारने और पत्रकारों के हितो कि रक्षा के लिए कुछ बदलाव किये जाये।
मसलन सबसे पहले आपसी गुटबाजी को ख़त्म कर राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत संघठन बनाया जाये। मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों के मानदेय को सुनिश्चित करने के लिए एक मानक बनाया जाये और मीडिया के संस्थानों पर ये दबाव बनाया जाये कि वो मानक के अनुरूप ही एक पत्रकार का मानदेय सुनिश्चित करे। पत्रकार के गलत आचरण पर उसकी नैतिक जिम्मेदारी निर्धारित करने की प्रक्रिया का निर्धारण किया जाये तथा उसके विरुद्ध कार्यवाही की जाये। पत्रकार के उप्पर होने वाले किसी भी तरह के हमले की स्थिति में रक्षाताम्क रवैय्या अपनाने की जगह पर विरोध स्वरुप जिस सस्थान में पत्रकार पर हमला हुआ उस संस्थान के खिलाफ बहिष्कार की रणनीति को अपनाया जाये और जब तक संस्थान कार्यवाही न करे तब तक उस संस्थान से जुडी खबरे मीडिया में न चलायी जाये। इसके अतिरिक्त भी तमाम चीजे है जिन पर विचार करना जरुरी है।
सनद रहे जब तक ये बदलाव नहीं होंगे तब तक मीडिया के गिरते मानक को नहीं सुधारा जा सकता और न ही पत्रकारों पर हो रहे हमलो को रोका जा सकता है।
Read Comments