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लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जब १५ मार्च को समाजवादी युवराज अखिलेश यादव ने प्रदेश की सत्ता संभाली तो वायदा किया था की वो प्रदेश भयमुक्त अपराधमुक्त बनायेंगे पर २२ जून को पूरे हुए सपा सरकार के १०० दिन के कार्यकाल को देखा जाए तो कहा जा सकता है की १०० दिनों के शासन ने सपा सरकार जो मानक स्थापित किया वो बलात्कार हत्या, लूट दबंगई और भ्रष्टाचार का है . प्रदेश में हत्या, बलात्कार, लूट की वारदाते इस तरह बढ़ी जैसे मानो गंगा में बाढ़ आ गयी हो. चाहे इटावा के एक मंदिर में झंडा चढ़ाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस द्वारा चलाई गयी गोली में तीन श्रद्धालुओं की मौत का मामला हो, या फिर इटावा में ही एक ही परिवार के छह लोगों की हत्या का मामला हो, हर जगह प्रदेश पुलिस का नाकारापन दिखाई पड़ा. मुरादाबाद में पूर्व विधायक की पौत्री के साथ सामूहिक दुराचार किया गया लड़की ने आत्महत्या कर ली , बदायूं जिले की एक पुलिस चौकी में महिला के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ , आगरा में पुलिस की निर्मम पिटाई से कारोबारी की मौत हो गयी और न जाने कितने ऐसे मामले है जहाँ कानून व्यवस्था पंगु सी दिखी. प्रदेश में अपराध की स्थिति क्या है या यह बात खुद सरकारी आकडे बताते है. 16 मार्च से 31 मई 2012 के बीच ढाई महीनों में इस सरकार के कार्यकाल में जितने अपराध हुए, उतने तो मायावती राज में भी नहीं हुए थे..
याद कीजिये जब प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे थे सपा और उसके नेता लगातार माया शासन में हुए भ्रष्टाचार और कुशासन की दुहाई देकर प्रदेश की सत्ता सौपने की गुजारिश कर रहे थे. अखिलेश ने सत्ता सँभालने के बाद वादा किया था वह मायावती के कुशासन से मुक्ति दिलाकर उत्तर प्रदेश को एक अच्छी सरकार देंगे, जहां अपराधियों का नाममात्र का खौफ नहीं होगा, शांति बनी रहेगी, लोग भयमुक्त होकर रह सकेंगे, विकास की गंगा बहेगी और भ्रष्टाचारमुक्त शासन व्यवस्था कायम होगी।
लेकिन सत्ता में आने के हकीकत कुछ और ही दिख रही है. घोटालो को खोलना दूर सपा सरकार ने बसपा शासन के उन मंत्रियो के खिलाफ कार्यवाही भी नहीं की जिनको लोकयुक्य ने गंभीर भ्रष्टाचार के मामलो में लिप्त पाया था और उनके विरुद्ध विधानिक कार्यवाही करने की संतुस्ती राज्य सरकार से की थी. इसके अतिरिक्त बसपा शासन काल में १२ चीनी मिलो को गलत तरीके से बेच देने का मामला भी मुख्यमंत्री अखिलेश ने ठंढे बसते में डाल दिया. खुद अखिलेश ने विधानसभा की कार्यवाही में लिखित तौर पर इस बात की पुष्टि की चीनी मिलो को बेचने में हुए घोटालो की जांच नहीं करायी जाएगी. इतना ही नहीं अखिलेश सरकार ने मायावती के बंगले पर खर्च हुए 85 करोड़ रुपयों की बंदरबाट की चल रही जांच भी रोक दिया.ये तो वो बाते थी जो अखिलेश ने चुनाव के समय जनता से की थी और वायदा किया था कि कि सत्ता में आने पर इन बातो को पूरा किया जायेगा.
अब जरा इस सरकार के शासन से जुड़े नीतिगत निर्णय लेने की क्षमता का भी आकलन भी कर लिया जाये. १५ जून से ५ जुलाई तक यानि १२० दिन के कार्यकाल में इस सरकार ने दो बार अपने निर्णयों को वापस लिया. पहला निर्णय लखनऊ में माल्स के संदर्भ में था जिसमे अखिलेश सरकार ने तुगलकी फरमान जारी कर के कहा था की माल्स शाम ७ बजे तक ही खुलेंगे. जनता और विपक्ष के भरी दबाव के चलते सरकार को यह फैसला २४ घंटे के अन्दर वापस लेना पड़ा. सेम यही स्थिति तीन दिन पहले अखिलेश सरकार के विधायक निधि से विधयाको के गाडी खरीद के फैसले में देखने को मिली. इस फैसले को भी विपक्ष के दबाव के चलते २४ घंटे के अन्दर ही वापस लेना पड़ा. संभवता ऐसा पहली बार हुआ जब एक पूर्ण बहुमत की सरकार को सत्ता सँभालने के मात्र १२० दिनों के अन्दर अपने दो महतवपूर्ण फैसले वापस लेने पड़े हो. इसके अतिरिक्त अभी लखनऊ हाई कोर्ट ने भी एक जनहित याचिका कि सुनवाई के दौरान सरकारी वकीलों कि नियुक्ति को लेकर अखिलेश सरकार को आड़े हाथो लिया और चार हफ्तों के अन्दर जवाब देने को नोटिस जारी किया. जनहित याचिका में सरकार पर ये आरोप था कि सरकार ने उच्च न्यायालय में योग्यता के अनुसार सरकारी वकीलों की भर्ती न करके ऐसे वकीलों को हाई कोर्ट में सरकारी वकील नियुक्त कर दिया है जिन्होंने कभी उच्च न्यायालय में वकालत नहीं की.
अब प्रश्न ये उठता है क्या अखिलेश सरकार में राज्य के हित में नीतिगत फैसले लेने की योयता है. खुद सपा नेता मोहन सिंह ने कहा है की उत्तर प्रदेश में सत्ता अफसर चला रहे है. वास्तव में होना ये चाहिए था की राज्य की कमान खुद नेता जी संभालते और अखिलेश को राज्य सरकार में वरिष्ठ मंत्री पद देते जिससे उन्हें शासन करने की बारीकियो को समझने में आसानी होती. लेकिन क्या करे बेचारे नेताजी समाजवाद पर हावी हो गया परिवारवाद पुत्र मोह में उन्होंने ने अखिलेश को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया जिसका नतीजा ये हुआ की आज हर स्तर पर सपा सरकार विफल है.
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