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यादों के साये में “अदम गोंडवी”

anurag
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“महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के हजारो रस्ते है सिन्हा साहब की कमाई  के, मिसेज सिन्हा के हाथो में जो बेमौसम खनकते है, पिछली बाढ़ के तोहफे है ये कंगन कलाई के’जैसी रचना लिखकर मौजूदा भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति आवाज़ बुलंद करने वाली आमजन की आवाज़ अदम अब खामोश हो चुकी है लेकिन उनकी लिखी रचनाये सदैव आम आदमी की आवाज़ बनती रहेंगी।

अदम से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे बाल्यकाल में उनके गृह जनपद गोंडा के कस्बे करनैलगंज के कवि सम्मलेन में हुई थी। ये बात है नवम्बर १९९२ की। मंच पर एक से बढ़कर एक कवि और शायर विराजमान थे जिनमे अंजुम रहबर, मंजर भोपाली, राहत इन्दौरी, मुकुट बिहारी सरोज, कुवर बेचैन जैसे प्रमुख नाम थे उन्ही सब के बीच एक दुबला पतला आदमी मटमैली धोती और कुर्ता पहने बैठा था जिससे मै पूरी तरह से अनजान था। कवि सम्मलेन का दौर शुरू हुआ और सम्मलेन के मध्य में संचालकशिव ओम अम्बर ने अदम गोंडवी को आवाज़ दी। वही दुबला पतला आदमी मंच पर आया और उसने काव्य पाठ शुरू किया।उस दिन मैंने अदम की लिखी रचना ” आइये महसूस कीजिये जिन्दगी के ताप को मै चमारो की गली तक ले चलूँगा आप को”पहली बार सुना। एक पल को मै अदम की इस रचना में खो गया जब होश आया तो पता चला की अदम काव्य पाठ कर चुके थे और फिर चुप चाप उसी जगह जाकर बैठ गए जहाँ पर वो बैठे थे। इस रचना को सुनने के बाद सहर्ष मन में एक आवाज़ आई की कितने सहज अंदाज में इस कवि ने आज की सामंतवादी राज को बतलाया है।

उनसे दूसरी मुलाकात का लखनऊ में आयोजित एक कवि समेलन में हुई वहां भी अदम ने अपनी रचना “मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे हम अपने इस कालखंड में एक नया इतिहास लिखेंगे , सदियों से जो रहे उपेछित श्रीमन्तों के हरम सजाकर, उन दलितों की करुण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे” को सुनाकर मौजूद लोगो को अपनी रचना का कायल बना  लिया और हर तरफ से आवाज आई “वह अदम वह”। उस दिन के बाद से अदम से मिलने का जो दौर शुरू हुआ वो उनके जीवन की आखिरी सासों तक चलता रहा। अदम की लेखनी सिर्फ यही पर आकार नहीं थम गयी बल्कि उन्होंने इससे भी बढ़कर एक से एक रचनाये लिखी जिनमे “काजू भूनी प्लेट में व्हिस्की गिलास में उतरा है रामराज विधायक निवास”, में जैसी प्रमुख रचनाये है।

इसके आलावा भटकती नौजवान पीढ़ी को समझाते हुए अदम कह्ते है कि “अदीबो की नयी पीढ़ी से मेरी ये गुजारिश है, सजाकर रखे ‘धूमिल’ की विरासत को करीने से”। गजल को भी अदम ने बड़ी ही खूबसूरती से परभाषित करते हुए लिखा था कि ” दर्द के दारिया में अश्को की रवानी है गजल, हुस्ने- फितरत से मुसलसल छेड़खानी है गजल बेल-सी लिपटी हुई फलसफे की शाख पर, भीगी रातो में महकती रातरानी है गजल”

करनैलगंज में हुई अदम से मुलाक़ात के बाद मुलाकातों का  जो दौर शुरू हुआ वो उनके जीवन की आखिरी सासों तक चलता रहा। कभी वो मेरे घर आ जाते थे और कभी मै चला जाता। ज्यादातर वो अपने कवि मित्र कमल किशोर श्रमिक , जमुना प्रसाद उपाध्याय के साथ मेरे घर आ जाते थे और काव्यपाठ का दौर जो दौर शुरू होता वो घंटो चलता । अदम के सानिध्य के वजह से ही मेरा साहित्य के प्रति लगाव बढ़ा।

गोंडा के परसपुर कस्बे के आटा मौजे के गजराजपुरवा गाव के निवासी रामनाथ सिंह  अदम सिर्फ पाचवी तक ही पढ़े थे। अदम को मंचीय काव्यपाठ के लिए गोंडा के कामरेड और पेशे से वकील टिक्कम दत्त शुक्ल प्रोत्साहित किया था। उन्होंने ही अदम को जनवादी विचारधारा के मंच से जोड़ा था और तब से अदम ने काव्य पाठ शुरू किया तो उनके चाहने वालो की लिस्ट देश के बाहर निकलकर विदेशो तक पहुच गयी। अदम के चाहने वालो आम आदमी से लेकर राजनेताओ ताकि लम्बी लिस्ट  है और सिर्फ राज नेता ही क्यों राज्य के बड़े बड़े ब्यूरोक्रेट्स भी इस लिस्ट में शामिल है जिनमे नवनीत सहगल, कुवर फ़तेह बहादुर सिंह प्रमुख नाम है। अदम की गोंडा की मित्र मंडली में डा. बृजभूषण लाल, सूर्य प्रसाद मिश्र, सुरेश मोकलपूरी, जैसे प्रमुख नाम है।  स्वाभाव के सरल और खुद्दार अदम ने जीवन के अंतिम क्षणों में भी अपनी खुदारी को बनाये रखा अपने किसी भी शुभचिन्तक  से इलाज़ के लिए कोई सहारा नहीं माँगा।

किन्तु दुःख और रोष यह है की इस कवि की रचनाओ पर वाह वाह करने वाले ये ब्यूरोक्रेट्स अदम को देखने तक न आये और उस पर भी हद तब हो गयी जब उनकी मृत्य(18 दिसंबर 2011) के बाद दलितों की मसीहा मुख्यमंत्री मायावती  ने सिर्फ एक शोक सन्देश भेज कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।

जबकि दलितों की के ख़राब स्थिति पर अदम ने सन १९८२ के उस दौर में जब सामंतवादी सोच अपने चरम पर थी और सहित्य जगत भी दलितों के हो रहे शोषण को लेकर पूरी तरह शांत था उस समय अदम ने आइये महसूस कीजिये जिन्दगी के ताप को मै चमारो की गली तक ले चलूँगा आप को” जैसी रचना लिखकर पूरी सामंतवादी व्यवस्था को हिला दिया था। ये वही अदम थे जिनकी लिखी रचनाओ को पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर संसद में दिए जाने वाले अपने ज्यादातर वक्तव्य में इस्तेमाल किया करते थे।

अदम की मृत्यु के दो साल बाद भी एक सवाल आज भी खड़ा है कि  क्या जीवन भर सहित्य के द्वारा समाज की सेवा करने वाले कवि के प्रति सरकारों का कोई दायित्व नहीं बनता है?  क्या आजीवन समाज की सेवा करने वाला कवि जीवन की अंतिम क्षणों में मात्र आर्थिक तंगी के चलते जीवन और मृत्यो की लड़ाई में जिन्दगी से हार जाये और सरकारे मूक दर्शक बनी बैठी रहे ?

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