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कौसल्या एक महान महिला

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महिला दिवस पर पौराणिक महिलाओं की संक्षिप्त परिचय का यह मेरा प्रयास है. आरम्भ मैं माता कौसल्या से कर रही हूँ

भारतवर्ष पुण्य भूमि है, इसलिए इसे माता कहा जाता है. महान नारियों की गौरव-गाथाओं से भारतीय प्राचीन इतिहास ओतप्रोत है. महान महिलाओं के दिव्य चरित्रों की पवन गंगा यहाँ कल-कल बहती है, जिसमे उनके तप,त्याग,तपस्या एवं पावन प्रेम की शुचि , शीतल और सुखमय तरंगे उमड़ती रहती है. जो व्यक्ति उस धरा में स्नान करते हैं, उनके मन के दर्पण का धूल साफ हो जाता है, धरा पवित्र हो जाती है. इन महान नारी के पवन चरण ऱज से धरा निर्मल हो जाती है.
ऐसी ही एक पुण्य आत्मा माता कौसल्या है. उनका जीवन सफल है. उनका चरित्र उच्चकोटि का है. वे त्यागमयी और ममतामयी थीं. पति की अनुगामिनी थी,करुणामयी एवं श्रद्धामयी थीं. इस धरा पर माता कौसल्या से भाग्यशालिनी कोई और नहीं हो सकता क्योंकि भगवान स्वयं उनके पुत्र के रूप में अवतरित हुए. साक्षात जगतजननी उनकी पुत्रवधू बनीं, इससे परम सौभाग्य की क्या बात होगी? वह अत्यंत सहनशीला थीं. जब राम का राज्याभिषेक होने के कुछ क्षण पहले कैकयी का राजा दशरथ द्वारा पूर्व वचन में बधें होने के कारण वर मांग कर राम को वन गमन तथा भरत का राज्याभिषेक के समाचार को सुनकर स्वयं को सम्भालना तथा राजा दशरथ के व्याकुल होने पर उन्हें सांत्वना देना बहुत ही कठिन कार्य था. लेकिन माता ने उन्हें धैर्य बंधाया . उन्होंने कहा- परिवार के प्रमुख हैं , आप ही धैर्य धारण नहीं करेंगे तो परिवार रूपी नैया का क्या होगा , जब नाविक ही संतुलन खो देगा . परिवार के कर्णधार हैं आप, आप धीरज खोएंगे तो परिवार बिखर जायेगा . उनके इस वचन से संज्ञाशून्य हो गए दशरथ की कुछ चेतना जगी थी . सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी बड़ी होने के बाद भी राजा दशरथ का कैकेयी के प्रति अगाध प्रेम को भी उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया था . परिवार को बांध कर रखती थी . इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा की वे पति की दोनों पत्नियों से भगिनी सदृश स्नेह रखती थी.
पुत्र राम के वन गमन पर भी अपने पुत्र को छोड़ कर पति की अनुगामिनी बन कर रहना बहुत ही त्याग की बात है. अपनी पुत्रवधु सीता के प्रति उत्कट लगाव था. शायद ही कोई ऐसी सास होगी जो पुत्र से अधिक पुत्रवधु के लिए चिंतित होगी. वनगमन के समय सीता केलिए करुण-विलाप करना और यह कहना की ‘सुकुमारी वन में कैसे रहेगी?’ कठोर भूमि पर कैसे चलेगी ?
सुमंत का राम-लक्ष्मण को वन में छोड़ कर आने के बाद सर्वप्रथम जानकी के लिए पूछना की ‘मेरी आँखों की तारा सीता ठीक तो है?’ ऐसी सास कौसल्या के अतिरिक्त अन्य मिलना दुर्लभ ही है. वे चारों भाइयों को बहुत स्नेह देती थीं.
भरत जब ननिहाल से लौट कर आये तो अपने को ही समस्त अनर्थों का कारण मानकर करुण विलाप करने लगे जिससे समस्त परिवार के साथ अयोध्या नगरी शोक-संतप्त हो गया. उस समय भरत को धीरज माता कौसल्या ने ही बंधाया. उनका यह कहना कि- पुत्र , किसी का दोष नहीं है. होनी को कोई नहीं टाल सकता . काल और कर्म की गति को अमिट जानकर संताप न करो, धैर्य धारण करो . भरत को हृदय से लगाने के बाद उन्हें ऐसा ही अनुभव हुआ की राम वन से लौट आया है. ऐसी महान महिला दूसरी हो सकती है क्या?

कौशल प्रदेश की राजकुमारी , राजा सुकौशल और रानी अमृतप्रभा की पुत्री थीं. पूर्वजन्म में दशरथ स्वायम्भुव मनु थे और कौसल्या उनकी की पत्नी शतरूपा थीं. शतरूपा ने घोर तप करके भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान माँगा था. वही मनु. अयोध्या के सम्राट दशरथ और शतरूपा , कौसल्या के रूप में उत्पन्न हुईं. राजा दशरथ ने दक्षिण कौशल के राजा सुकौशल को सन्देश भेजा था कि – या तो वे मुझसे मित्रता करें या मुझसे युद्ध. युद्ध में दशरथ विजयी हुए और सुकौशल को मित्रता और शांति का चयन करना पड़ा. मित्रता प्रगाढ़ हो गयी और राजा सुकौशल ने अपनी पुत्री कौसल्या का विवाह दशरथ से कर दिया.
राजा राम की एक बहन थीं – शांता. शांता के अलावा दशरथ के यहाँ और कोई संतान नहीं था. उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु शांता का त्याग करदिया था , जिस कारण कौसल्या व्यथित रहती थीं. राजा दशरथ ने शांता का त्याग पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से किया था. और पुत्रेष्टि यज्ञ के बाद कौसल्या को राम के रूप में भगवान प्राप्त हुए थे. राम से उन्होंने तत्व ज्ञान प्राप्त किया था. इस तरह स्वयं भगवान से ही तत्व ज्ञान प्राप्त करना तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि के लिए भी दुर्लभ था. अतः वह त्यागमयी,करुणामयी,भगवन की जाया स्त्री कौसल्या सभी स्त्रियों के लिए एक आदर्श महिला थीं.
कौसल्या इस धरा की अनमोल रत्न ही नहीं हम सबके लिए अनुकरणीय हैं.ऐसी महान नारी को नमन !

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