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धरती

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‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, जन्मभूमि को जननी कहना अर्थात माँ मानना , और सोच यह की स्वर्ग भी यहीं हो,इस युग में भी प्रचलित ही है.
धरती जन्म भूमि है , इसकी कोख से हर जीव-जंतु उत्पन्न होता है और अगर नियम तथा संयम कायम रहे तो यह अनंत कल तक अनवरत माँ (धरती) का प्यार पाता रहेगा और स्वर्ग सामान रहेगा.
सहनशीलता का पाठ धरती से सीखना चाहिए . धरती माँ की तरह सहनशील बनाना चाहिए . जन्म दायिनी माँ की तरह यह है मेरी धरा . पृथ्वी कहूँ, धरा कहूँ, भूमि कहूँ या धरातल कहूँ , अनेक नामों से सुशोभित है यह माँ. मेरी दृष्टि में तो ममतामयी करुणामयी सहनशक्ति की आधार है यह. सभी मानव का भार वहन करने वाली यह माँ अनमोल है. इसके ऋण से हम मानव कभी मुक्त नहीं हो सकते. जन्म से मृत्युपर्यन्त मानव हर पल इस की गोद में व्यतीत करता है.
धरती माँ हर संतान का पालन भेद-भाव रहित होकर करती है. कुछ जन्म दायिनी माँ भी अपनी संतान की परवरिश में भेद-भाव करती है. कतिपय माँयें दो बेटों में भी भेद करती है . जो बेटा बाहर कमाने जाता है, वह बाहरी अर्थात पराया ही हो जाता है. जो समीप में रहता है उसी पर सम्पूर्ण स्नेह न्यौछावर करती है, तो कुछ पुत्र-पुत्री में विभेद करती है. पुत्र का अधिक ध्यान रखती है और पुत्री को उपेक्षित कर देती है. कुछ तो पुत्री को गर्भ में ही मार देती है, बेटे के मोह में. वही बेटा बाद में अपनी माँ का दुर्दशा करता है. जिस बेटी को उपेक्षित करती है वही बेटी बुढ़ापे में लाठी यानी सहारा बनती है. अस्तु.
लेकिन यह पृथ्वी हर मानव को एक सदृश स्नेह देती है. निर्धन हो या धनवान , कुकर्मी हो या सुकर्मी हर एक को सामान नज़र से देखती है. बलशाली हो या निर्बल सब को सामान रूप से अपनी कोख में रखती है. वास्तव में यह श्लोक धरती माँ पर ही उपयुक्त प्रतीत होती है- “कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति” .
अन्न देकर मानव को पालित-पोषित करती है. प्राकृतिक सौंदर्य से सुंदरता का बोध करवाती है. गंगा ,यमुना,सरस्वती जैसे पवित्र नदियों को अपने छाती पर वस इस लिए बहने देती हैं ताकि मानव जीवन का अस्तित्व कायम रह सके. इस धरा के हरेक मानव को जल ही जीवन है इस अमृत-तत्व से परिचित ही नहीं करवाती वरन जीवन दान देती है. हरे- भरे वृक्षों से ऑक्सीज़न देकर हमें जीवन प्रदान करती है. वन से लकड़ी देकर हमारे ऊपर उपकार करती है, यदि वन न होता तो हमारा जीवन अत्यंत कठिन हो जाता. प्रकृतिक सम्पदा से मानव को उपकृत करती है.
सागर जैसे अनुपम भेंट देकर मानव को उपकृत करती है. यदि सागर नहीं होता तो मानव की कैसी दयनीय दशा होती ? उर्बर भूमि देकर मानव का तन पालती है. अपनी अनोखी शक्ति से मानव का मन प्रसन्न रखती है. अपनी कोख से अनेक रत्नों को जन्म दिया है जो इस धरा को सुशोभित कर रहे हैं. और कितने महान सपूत इसकी गोद में सो कर भी अजर-अमर है. अपनी कोख से अनेक रत्नगर्भा पुत्री को उत्पन्न किया है जो अपने सुकर्म से इस धरा पर अमिट छाप छोड़ दी है और कितनी बेटियां अपने अनुपम कृति से इस धरा को गौरवान्वित कर रही है. इसकी मिटटी में इतनी खुशबू है जो अपने सुगंध से सम्पूर्ण धरा को सोंधी-सोंधी खूशबू से आप्लावित करती रहती है.
पूर्णसलिला धरती का मानव हर क्षण उपयोग ही नहीं करता इसके अपूर्व दान से फलता-फूलता है. उर्वर माटी से पालित-पोषित करनेवाली धरती माँ के साथ क्या हम न्याय कर रहें हैं, उसके उपकार का बदला अपकार से नहीं दे रहे हैं? इसकी सरलता का हम नाजायज लाभ नहीं उठा रहे? यह ममतामयी माँ हमारे मल-मूत्र को भी हँसते -हँसते वहन कर रही है और हम मानव कूड़ा-करकट डाल कर अपवित्र करते रहते है. अनमोल धरोहर को नष्ट करते जा रहे हैं. मात्र अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए संतान सदृश इसके वृक्षों को निर्ममतापूर्वक काट रहे हैं, न संकोच न करुणा. प्राकृतिक सम्पदा नष्ट कर रहे हैं. पवित्र नदियां जो यह माता हमें उपभोग करने केलिए दी हुई है उसमें हम गन्दगी डाल कर दूषित कर रहे हैं. ढकोसलों के कारण मानव-शव को डाल कर इसे प्रदूषित कर रहें हैं, बिना यह विचार किये कि इस से माता कितनी व्यथित होती होगी. इतना ही नहीं सर्वत्र अट्टालिका , गगनचुम्बी इमारतें बन रही है. इसकी सम्पदा को नष्ट-भ्रष्ट करके . जिस मानव के लिए यह इतना त्याग कर रही है उसी मानव को इस तरह गगनचुम्बी इमारतें बनाकर कभी ऐसा न हो कि भूमि के आभाव में खेती न हो पायेगी और मानव अन्न-अन्न , दाने -दाने को तरस जायेगा. आज ही कृषक की दशा इतनी गंभीर है . प्रतिदिन आत्म- हत्या कर रहे हैं . पेट पालने को भी अन्न नहीं है. कर्जभार से मुक्त होने केलिए ख़ुदकुशी तक कर रहे हैं. पीछे छोड़ जाते हैं बिलखते परिवारों को . इसके जिम्मेवार कौन हैं? मात्र स्वार्थपूर्ति के कारण मानव को हवस हो गयी है पैसे कमाने की . भूख हो गयी है धन अर्जन की. मानव का पेट कभी नहीं भरता अर्थ रूपी दानव से. इतना अत्याचार होने के पश्चात भी माँ तो माँ होती है. सर्वदा अपनी संतान पर कृपा-दृष्टि बनाये रखती है. धरती माँ ही संभवतः मनुष्य को सद्बुद्धि दे जिससे मृगमरीचिका के पीछे भाग कर नहीं अपनी लोलुपता को विराम दे. काश ! पुनः राम, कृष्ण जैसे मानव इस धरा पर अवतरित हो कर हमारी कामधेनु सदृश धरती माँ को पुनः अपनी स्वरुप में ले आएं.

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