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ना उम्र की हो सीमा

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आज मैं अचंभित हूँ , क्या ऐसा भी हो सकता है ? मैं सदा से एक प्रश्न में उलझी रहती हूँ की आखिर प्यार है क्या ?, क्या है मोह का बंधन?
माता-पिता का वात्सल्य प्रेम , दादा-दादी का अप्रतिम स्नेह , पति-पत्नी का मधुर सम्बन्ध, भाई-बहन का पवित्र रिश्ता , प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम, मित्रों का निःस्वार्थ स्नेह और कभी-कभी अनजान लोगों से उत्कट लगाव , आखिर ये है क्या? यह प्रश्न मेरे हृदय में सदा घुमड़ता रहता है. और कभी-कभी तो यह ऐसा मडोर देता है कि मैं व्याकुल हो जाती हूँ और इस के उत्तर के लिए छटपटा जाती हूँ. शायद प्रश्न जटिल है अतः उत्तर समझने में जटिलता भी अवश्यम्भावी है. “पोथी पढ़ि-पढ़ि जगमुआँ पंडित भया न कोई, ढाई अक्षर प्रेम के पढ़े से पंडित होय ” अब पंडित बनना है तो ढाई अक्षर तो पढ़ना ही पड़ेगा , सो मैं लग गई इस दिशा में.
लेकिन मुझे मेरी माँ जिद्दी कहती है तो ऐसे ही नहीं कहती होगी . मैं भी इस प्रश्न के उत्तर को खोजने हेतु तपस्या में लग गई हूँ. अथक परिश्रम करने से ही सफलता नहीं मिल जाती है, फल पकने का भी निश्चित समय होता है और जब पकता है तभी हम रसास्वादन कर सकते हैं . अतः समय की प्रतीक्षा तो करनी ही थी और समय पूर्ण होने पर आंशिक ही हो लेकिन फल का स्वाद चखने के दिन आया जैसा लगा.
मैं सदैव उलझन में थी ,की शीला आँटी ने मेरी सम्पूर्ण समस्या सुलझा दी. आज मेरी सुबह से ही दायीं आँख फड़क रही थी . मैं अन्य से भिन्न हूँ. कहते हैं बायीं आँखे फड़कने पर कुछ अच्छा होता है लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हैं बल्कि उल्टा जब मेरी दायीं आँख फड़कता है तभी अक्सर मेरे साथ कुछ न कुछ अच्छा घटित होता है. पता नहीं ऐसा क्यों है लेकिन दादी कहती है कि तू उल्टा पैदा हुई थी अतः तेरा सब कुछ अन्यों से उल्टा होता है.
वास्तव में मैं उन लोगों के सदृश नहीं हूँ जो अन्तःकरण में तो कुछ रखते हैं और बाहर कुछ और दिखाते हैं. ‘मुख में राम बगल में छुरी’ ! मौसी कहती है तू तो पारदर्शी है. गुस्सा हो तो भी , दुःख हो तो भी, ख़ुशी हो तो भी सब कुछ तेरे चेहरे पर दिखाई देता है. संभवतः यही वजह होगा कि प्रकृति ने माँ की कोख से पृथ्वी पर मुझे उल्टा ही पहुँचाया. मैं छली-कपटी लोगों को देखकर आहत हो जाती हूँ. मैं ईश्वर से स्पष्टीकरण चाहती हूँ कि वे क्यों मुझे ऐसे लोगों से मिलाता है. कपटी तो अपना काम निकाल लेते हैं लेकिन मैं मन से जुड़ जाती हूँ और वर्षों व्यतीत हो जाता है उस मानव को भूलने में. कोई अपना कार्य निकाल कर या कोई अपने समय व्यतीत करने के लिए यानी टाइम पास करने के लिए मित्रता का ढोंग करता है. इन दोहरी मानसिकता वाले लोगों से मैं ठगी जाती हूँ.
इस बार जब मैं यहाँ आयी तो लोगों से दूरी बनाना आरम्भ कर दी. पुनः धोखा न खाना पड़े. आज-कल ऑनलाइन मित्रता का चलन है. एक बार मैं इस माध्यम से ही मित्रता कर बैठी. ऐसा प्रतीत होता था मानों उससे मेरा पूर्वजन्म का सम्बन्ध हो. लेकिन पुनः मैं ठगी गयी. इस मानसिक संत्रास से निकल ही नहीं पा रही थी, अतः प्रण किया किया कि किसी से भी अब मन से नहीं जुड़ूंगी. उपवन अकेले जाती और किसी को अपने समीप मित्रता का हाथ बढ़ाते देखती तो मधुर स्मित के साथ देखकर लौट आती. मुझे लोग घमंडी कहने लगे. मैंने परवाह नहीं किया.
मैंने अनुभव किया कि शीला आंटी बार-बार मुझ से बात करना चाहती थी , लेकिन मैं bhagti रही , अवॉयड करती रही. प्रतिदिन वह उपवन में मिल जाती थी और सामान्य औपचारिक अभिवादन के बाद मैं अपने में लीन हो जाती थी. एक दिन उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा कि -क्या मैं इस योग्य नहीं कि तुम्हारा सानिध्य मिले ? तुम मुझे अपनी पुत्रीवत lagati हो. अतः मैं तुम से बात करना चाहती हूँ. मैं विकलांग हूँ इस लिए तो नहीं तुम मुझ से दूरी बना रहा रही हो. मैं चकित हो गयी.मैं ने कहा – नहीं,नहीं मुझे तो ये ज्ञात भी नहीं है. आँटी मैं तो बस ऐसे ही. आप तो इतनी अच्छी हैं . आप विकलांग नहीं दिव्यांग हैं.
असल विकलांग तो वे हैं जो शारीरिक रूप से सम्पूर्ण होते हुए भी कर्म के बिना लूला -लंगड़ा, ज्ञान के बिना अँधा, प्रेम के बिना हृदयहीन और बुद्धि के बिना निष्क्रिय हैं फलतः किसी न किसी पर बोझ है.
आप तो अति सुन्दर हैं. मन से और तन से भी. वास्तव में वे अति सुंदरी थीं, अप्रतिम सौंदर्य था उनमें, बड़ी-बड़ी आँखे, गौर वर्ण , लम्बे -लम्बे बल, सुंतवा नाक, बिना लिपस्टिक के भी रक्ताभ ओष्ठ. मैं थोड़ी लज्जित भी हुयी कि क्यों मैंने इनकी उपेक्षा की. सभी को एक तराज़ू में नहीं तौलना चाहिए.
अब तो हम प्रतिदिन मिलने लगे. वे असम की थीं. यहाँ अपने बेटे के पास आयीं थीं. बातों के क्रम में उन्होंने कहा- मैं बचपन से ऐसी नहीं थी. माता-पिता की इकलौती संतान थी. बड़े लाड़-प्यार से पालित-पोषित हुयी हूँ. मैं बी ए पास हूँ. शिक्षिका थी . हाल ही में रिटायर हुई हूँ. तुम्हारे अंकल अत्यन्त सज्जन हैं , मेरी बहुत सम्मान करते हैं ,मेरा बहुत ध्यान रखते हैं .ये अकाउंटेंट थे २साल पहले रिटायर किये हैं .मेरा एक बेटा है जिसका नाम एकलव्य है .बैंक में अधिकारी है , बचपन से ही मेधावी है .हम सब नैनीताल भ्रमणार्थ गए थे , हम सभी अत्यन्त प्रसन्न थे .अचानक पैर फिसल गया ,जब होश आया तो दोनों पैर गवां चुकी थी ,मैं तो अपना पैर खोने से दहल गयी लेकिन तेरे अंकल ने सम्भाल लिया ,एकलव्य को देखकर अपना गम भूल गयी . जीवन चलने का नाम है ,मैं भी बैशाखी को अपनी नियति मानकर पुनः एकबार जीवनरूपी गाड़ी को चलाने के लिए उद्यत हो गयी .मेरी देवरानी के सहयोग से एकलव्य के पालन पोषण बहुत ही अच्छे ढंग से हुआ नौकरानी दीपा भी घर की सारी दायित्वों को अत्यन्त सहजता से सम्भाल ली .तुम्हारे अंकल ने मेरी बहुत सहायता की मेरी ,भागवान करे जन्म जन्मान्तर मुझे ये ही जीवन साथी के रूप में प्राप्त हों .समय की गति निर्बाध रूप से बिना थके बिना रुके चल रही थी ,एकलव्य विवाह योग्य हो गया .लाखों में एक ढूंढ कर बहु लायी ,बैंक में कार्यरत थी ,ईशा नाम है . बेटा भी प्रसन्न था .दोनों की जोड़ी क़माल की थी .दो तीन साल स्वप्न सदृश ही व्यतीत हो गया .तन्द्रा तो तब टूटी जब बेटे का तबादला यहाँ हो गया .मैं मायूस हो गयी ,तेरे अंकल पुनः अपनी उत्कृष्ट सोच से मुझे संभाला . दोनों यहाँ आ गए .ईशा के जाने से अजीब रिक्तिता का अनुभव होता था .मैं गरीब बच्चों को पढ़ाने लगी . धीरे-धीरे पुनः मैं अपने आप में लौट आयी.
बहु ईशा के पास जब भी आती हूँ वह बदली-बदली सी लगाती है. हम दोनों का देखभाल भी ठीक से नहीं करती है. आने के दूसरे दिन से ही पूछने लगती है – माँ आपको कब जाना है? मैं १० दिन रहने के मंसा से आती हूँ लेकिन ५ दिन में ही लौट जाती हूँ. इस बार तो एक महीने के लिए आयी हूँ , देखो कब तक रह paati हूँ. मैं ईशा से बहुत स्नेह करती हूँ , एकलव्य से भी अधिक . आरम्भ में यह ऐसी नहीं थी . हम से काफी लगाव था इसका . ऐसा प्रतीत होता है किसी ने मेरे विरुद्ध इसे कुछ उकसा दिया है. इसकी एक सहेली निशा है, उसका अपने ससुराल वालों से नहीं बनती है. यह उसी का नक़ल करती है. संभवतः उसी ने इसके कान भर दिए हैं. मैं मन ही मन चिंतन करने लगी कि किसी को कोई क्यों खराव करेगा, जब तक उसकी स्वयं इच्छा न हो. लेकिन मैं मूक हो कर सुनती रही.
हम प्रतिदिन मिलने लगे, थोड़ी सशंकित भी थी कि पुनः स्नेह में पड़ गयी, पता नहीं क्या हश्र होगा. विश्वास भी था कि संभवतः आंटी ऐसी नहीं है.
दो-तीन दिनों से अस्वस्थता के कारण मैं उपवन नहीं जा पायी थी. अतः उनसे मिलना भी नहीं हो पाया था.
एक दिन ११ बजे उनका फोन आया तो मैं ने कहा- आंटी मैं बीमार हूँ , कल मिलती हूँ. नहीं-नहीं मैं असम लौट आयी . हुआ यह कि बेटा कुछ दिनों के लिए बाहर गया था. असम का एक परिचित हम से मिलने आये थे, ईशा ने उन से कहा – आप मम्मी पापा को ले जाइये , मम्मी जाना चाहती है. आपके साथ जाएंगी तो मैं निश्चिन्त रहूंगी. आंटी ने आगे कहा – ईशा ने एक तरह से मुझे भगा ही दिया.
मैं क्या कहती, मौन थी. भयभीत भी हो गयी. क्या अपाहिज होना या बुजुर्ग होना त्रासदी है? कुछ दिन मैं अत्यन्त व्याकुल रही. उनका फोन आता रहता था . वास्तव में वे हम से अगाध स्नेह करती हैं. निश्चित रूप से उनसे मेरा पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा.
दो-तीन साल व्यतीत हुए होंगे . उनसे बातें होती रहती थी. मैं भी अपने उलझनों में व्यस्त हो गयी. यदा-कदा आंटी की स्मृति में विह्वल हो जाया करती थी. उपवन में मेरी आँखें उन्हें ही ढूंढती रहती थी. एक दिन मैं उपवन में बैठी थी, सच कहें तो उन्हें ही याद कर रही थी, बैशाखी के सहारे किसी को देख कर मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि कहीं आंटी ही तो नहीं हैं. इतने में मीठी आवाज में अपना नाम सुनकर चौंक गयी, देखा तो आंटी ही थी. मैं आनंदातिरेक से दौड़ कर उनके गले से लिपट गयीं. ऐसा अनुभव हुआ जैसे मैं अपने जननी से मिल रही हूँ.
प्रेम की परिभाषा समझ में आने लगी. प्यार मात्र रिश्ता ही नहीं , जन्म से ही नहीं कभी भी कहीं भी किसीसे भी हो सकता है. मोह का बंधन अजीब है. प्यार का रूप अलग है लेकिन प्यार तो प्यार ही है. किसी रिश्ते का बंधन न होते हुए भी शीला आंटी अपनी थीं. आंटी ने कहा ईशा को सपने में उदास देखा तो मिलने आ गयी, अंकल असम में ही हैं. मैं अपने -आप को रोक नहीं पायी . आखिर ईशा है तो मेरी बेटी ही. ईशा समझे या ना समझे है तो मेरी बच्ची ही. किसी दिन अवश्य उसको इस बात का अनुभव होगा. संभवतः मैं इस धरा पर रहूँ या न रहूँ. ईश्वर से यही प्रार्थना हैं कि वह सदा प्रसन्न रहे . थोड़ा रुक कर उन्होंने कहा तुम से मिलने की भी उत्कंठा हो गयी थी. कल चली जाउंगी. अंकल अकेले हैं न.
तुम्हारे लिए कुछ लायी हूँ. ड्राइवर को आवाज देकर एक पैकेट मंगवायीं और मुझे दे कर कहा इसे पहनना अवश्य. पायल था . उन्होंने कहा मुझे ज्ञात है तुम्हें पायल पसंद है. मैं चुप , क्या कहूँ. आँखों से अश्रुधारा बहने लगी. दोनों गले लग कर बहुत रोये. मैंने प्रण किया कि आजीवन इनका साथ दूंगी.
ईशा की बुद्धि पर तरस भी आया . इतनी ममतामयी सास को पहचान नहीं पायी. हीरा को परख नहीं सकी . इसी क्रम में माँ की कही एक कथा की स्मृति हो आयी .मैं किसी बात पर आहत थी तो मेरी माँ का यह कथन कि – तुम्हे वे सब समझ नहीं पाये हैं ,हीरा की परख नहीं है उन सबको और एक कहानी सुनायी .कहानी है – एक कृषक था अत्यन्त सज्जन प्रकृति का था. उसे एक हीरा मिला . वह उसका मूल्य तो जानता नहीं था . साधारण पत्थर समझकर अपनी हल में उसे लगा दिया. एक दिन कोई हीरा व्यापारी उधर से जा रहा था . उसकी दृष्टि हीरा पर पड़ी और उसने उस कृषक से पूछा कि तुम इस पत्थर को बेचोगे ? किसान सहर्ष तैयार हो गया. जौहरी ने उस कृषक को उस पत्थर का मूल्य रूप में दो आने दे दिए. भोला -भला किसान कीमत से अनजान उससे दो आने ले लिए. यह बिडम्बना है संसार की कि सदा से भोले – भाले निश्छल प्राणी कपटी व्यक्ति से छले जाते रहे हैं. कृषक तो सदा से ठगा ही जाता रहा है, अथक परिश्रम से अन्न उपजाता है . वह न शीत काल में ठण्ड की परवाह करता है न ग्रीष्म में भीषण गर्मी की . कितनी भी उमस हो पसीने से लथपथ होने के बाद भी वह श्रम करने से हिचकता नहीं. उसके पसीने की बून्द मानो धरती को रक्त से सींच रहा होता है. बारिश में भीगते हुए भी खेत पर जा कर संसार को पालित-पोषित करने हेतु न दिन देखता है न रात. अहर्निश मानवसेवार्थ तल्लीन रहता है. उस निश्छल मानव को क्या हम मानव उचित सम्मान दे पाते हैं? अस्तु! जौहरी कैसे भिन्न हो सकता है? लेकिन ईश्वर तो सब के पिता हैं. इस अन्याय को कैसे सहन कर सकते ? जैसे ही कृषक ने हीरा जौहरी को दिया कि आकशवाणी हुयी -” ऐ कपटी मानव , भोला-भाला किसान तो मेरी कीमत नहीं जानता है, लेकिन तुम्हें तो ज्ञात है मेरा मूल्य, तुमने दो आने मूल्य लगाकर कपट ही नहीं किया मुझे अपमानित भी किया है. मैं अपना अपमान नहीं सहन कर सकता . जैसे ही किसान ने हीरा जौहरी को दिया , वह हीरा टूट कर बिखर गया. इस कथा से एक बात तो समझ में आ गया कि कितना भी मानव दूसरे को ठगे उपरवाला सब देखता है. उसकी न्याय प्रक्रिया सबसे अनोखी होती है.
मेरी माँ ने कहा – जब तुम्हें सब पहचानेंगे तो तुम्हारा खोया हुआ सम्मान अवश्य प्राप्त होगा. मेरे साथ सही घटना घटित हुआ . मुझे जब सब समझ गए तो मेरा खोया सम्मान ही नहीं मिला , मैं सबकी चहेती बन गयी. मैंने ईश्वर से विनती की कि हे ईश्वर ईशा को सद्बुद्धि देना, को हीरा को समझ सके और शीला आंटी को उपयुक्त सम्मान दे.
मुझे जिस प्रश्न की वर्षों से प्रतीक्षा थी वह शीला आंटी के स्नेह ने क्षण में ही उत्तर दे दिया. और मैं प्रेम की परिभाषा को जान गयी. वास्तव में प्रेम जन्म के रिश्ता से नहीं, पति-पत्नी का नहीं, प्रेमी-प्रेमिका का नहीं, अमीर-गरीब का ही नहीं,मित्रों का भी नहीं , उम्र की समानता का भी नहीं यह कभी भी कहीं भी किसीसे हो सकता है, जिसका कोई नाम नहीं मात्र अनुभव होना चाहिए और मुझे वर्षों पूर्व पुराने गाने की एक पंक्ति स्मरण हो आया -“न उम्र कि सीमा हो न जन्म का बंधन हो…..”.

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