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बाढ़ की त्रासदी का प्रणेता

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जब बरसात के पानी का बोझ नदी झेल नहीं पाती तो उसका जल अपनी राह को खोजते हुए नदी से बाहर निकल आता है और आसपास फैलते हुए अपनी तेज धाराओं को चारों ओर फैला देता है. इसी को हम बाढ़ कहते हैं. जब नदी, झील या ताल तलैया तथा तालाब में अतिवृष्टि के कारण जल समां नहीं पाता, तो बाढ़ आती है.
जलप्रवाह में नदियों में बाधा होने से बाढ़ आती है. यह जल निकासी के अभाव के कारण होता है. मुख्य नदी के जलस्तर बढ़ने पर यह जल सहायक नदियों से होते हुए आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ उत्पन्न कर देता है. मानसून के आरम्भ से ही नदियां उफान पर आने लगती है और तबाही का तांडव शुरू हो जाता है.

सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है, अतः बाढ़ से मानव का आदिकाल से सम्बन्ध रहा है. जब -जब बाढ़ आई मानव को तबाही का सामना करना पड़ा है. परन्तु पिछले कुछ वर्षों से बाढ़ के कारण जो तबाही मची है, वह विकराल ही है. मजे की बात है कि पिछले दशकों के तुलना में कुछ वर्षों से बरसात की मात्रा में कमी आयी है, लेकिन बाढ़ से होने वाली तबाही हर साल बढ़ती ही जा रही है. नदियों के विशेषज्ञ चिंतित इसलिए हैं कि नदियों का जलस्तर कम हो रहा है. अब सोचने लायक विषय है कि वर्षा कम हो रही है, नदियों का औसत जलस्तर भी कम हो रहा है, पर बाढ़ ज्यादा आ रही है और विकराल भी. राजस्थान जैसा इलाका, जो मरुभूमि था वहां भी बाढ़ का प्रकोप झेलना पड़ रहा है.

बाढ़ की समस्या वस्तुतः भारत के हर क्षेत्र में है. गंगा बेसिन के इलाके में गंगा, यमुना, घाघरा, गंडक, कोशी, बागमती, कमला, सोन, महानंदा आदि नदियां तथा इनकी सहायक व पूरक नदियां नेपाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश एवं बंगाल में फैली हुयी हैं. इनके किनारे पहले घने जंगल हुआ करते थे, जहाँ आज घनी बस्तियां फली हुयी हैं. हिमालय से निकलने वाली नदियां चाहे वह गंगा हो, ब्रह्मपुत्र हो या सिंध हो या फिर कोई अन्य या उनकी सहायक नदियां, उनके उद्गम क्षेत्र के पहाड़ों (ढलानों) की मिट्टी को सम्भालकर या बांधकर रखने वाले जंगल को मानव ने तथाकथित विकास के नाम पर उजाड़ दिया और उन पहाड़ों को नग्न कर दिया. फिर क्या, पानी को रोकने वाला कोई नहीं रहा और उसे धरती के अंदर समाने का अवसर नहीं मिला, तो उसकी गति निर्बाध हो गयी.

जब इन पहाड़ी ढलानों पर पानी आता है, तो पूरे वर्ष झरनों से होते हुए यह नदियों में आता रहता है और मानसून में इन पहाड़ों पर अतिवृष्टि हो न हो थोड़ी भी बारिश हो तो सारा जल अविरल नदियों में ही आता है, जो बाढ़ के रूप में मैदानी इलाकों को तबाह कर देता है. मिट्टी को रोकने वाले पेड़ पौधे तो नष्ट हो गए, फिर पहाड़ के ढलानों की मिट्टी नदियों में समाती ही नहीं बैठ जाती है और नदियों की गहराई कम होती गयी. फलतः पानी को समाये रखने की क्षमता भी कम हो गयी. नेपाल के पहाड़ों और मैदानों के बी किसी समय ‘चार कोशे’ झाड़ी के नाम से प्रख्यात जंगल हुआ करता था, जो उत्तरी क्षेत्र के पहाड़ों पर होने वाली बरसात के पानी को आहिस्ता-आहिस्ती नीचे आने देता था. साथ ही साथ बहुत सारा पानी उन्ही इलाकों में ठहराव पाता था, जो धारित में भी समां जाता था. अतः बाढ़ कम आती थी या इतनी विकराल नहीं होती थी. यही हालत भारत के पहाड़ी इलाकों में भी थी. पर अंग्रेजों के ज़माने में जो वनसंहार शुरू हुआ वह अभी पिछले दिनों तक कायम ही था और स्थिति ऐसी हो गयी की सारा पहाड़ नग्न हो गया. पानी रोकने वाला, उसे ठौर देने वाला कोई नहीं रहा. भूस्खलन, भू-क्षरण में तेजी आयी और जल प्रवाह को गति मिली, परिणाम भयानक बाढ़ की त्रासदी.

असम के जंगल का संहार मनुष्यों ने इस हद तक किया कि ब्रह्मपुत्र की ४१ सहायक नदियां मिलकर असम को बाढ़ की भीषण त्रासदी झेलने को विवश कर देती हैं. ब्रह्मपुत्र घाटी और उत्तर-पूर्व के पहाड़ों के मध्य औसतन ६०० मिमि वर्षा होती है और यह पानी बिना किसी रोक रूकावट के असम के निचले हिस्सों में आ जाता है और फिर त्रासदी को जन्म देता है. मध्य भारत तथा दक्षिण भारत में वैतरणी, ब्राह्मणी, महानदी एवं नर्मदा, गोदावरी, ताप्ती, कृष्णा नदियों के किनारे घनी बस्ती है और चक्रवाती तूफान आते रहते हैं, जो बाढ़ को जन्‍म देते हैं, जिससे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और उड़ीसा भी प्रभावित होते हैं.

बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होने के बाद त्रासदी से निपटने के राग बहुत गाए जाते हैं, पर स्थायी उपाय पर बहुत कम विचार होता है. बाढ़ की स्थिति न हो इसके लिए निवारण (प्रिवेंशन) का प्रयास कम होता है. वर्षा के पानी को ठहराव मिले इसके लिए वन विकास (एफॉरेस्ट्रेशन ) वनीकरण को प्रोत्साहन ही नहीं वरन उच्च प्राथमिकता देना चाहिए. विकास के नाम पर या धनलोलुपता के कारण ध्वस्त किए गए नदी, नाले, तालाब, झील, ताल-तलैया को पुनर्जीवित करना पड़ेगा.
कंक्रीटों के जंगलों का विकास को रोकना पड़ेगा. अनुचित या स्वार्थ पूर्ण बांध को हटाकर आवश्यक बांध का निर्माण करना पड़ेगा. नदियों तथा जलाशयों का दुरूपयोग बंदकर सदुपयोग करना पड़ेगा. तत्काल ही सभी नदियों तथा जलाशयों का गहरीकरण भी वैज्ञानिक विधि से करना पड़ेगा. अगर समय रहते आवश्यक और उचित उपाय नहीं किए गए, तो वह दिन दूर नहीं जब पीने का पानी न मिलने से और बाढ़ के पानी से मनुष्य जाति ही सम्पूर्ण जीव-जंतु को विनाश का सामना करना पड़ेगा. जल-प्रलय होगा और धरती पर कोई नहीं बचेगा. इस अंत का जिम्मेदार और कोई नहीं वरन बाढ़ की त्रासदी का प्रणेता स्वयं धनलोलुप मानव ही होगा.

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