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मिथिला की विदुषी गार्गी -याज्ञवल्क्य संवाद

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मिथिला की विदुषी गार्गी वाचक्नु ऋषि की पुत्री थी. अतः उनका पूरा नाम गार्गी वाचक्नवी था. वेदों और उपनिषद में उच्चस्तरीय ज्ञान रखनेवाली गार्गी अपने समकालीन पुरुष दार्शनिकों के समकक्ष या उनसेअधिक ज्ञानवती मानी जाती थीं. गार्गी को मिथिला के राजदरबार के नवरत्नों में स्थान प्राप्त था. वह काल मिथिला में विद्वता के स्वर्णकाल था. राजा जनक स्वयं विद्वान थे और उनके राज्य में विद्वान पूजित एवं प्रतिष्ठित थे. समय समय पर उनके दरबार में विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ तथा ज्ञान सभा का आयोजन होता रहता था . एक बार राजा जनक की पुत्रियों (सीता,उर्मिला,मांडवी एवं श्रुतकृति) की शिक्षा आरम्भ करने के समय इसी तरह का ज्ञान सभा आयोजन जनकपुर के दरबार में किया गया. इस ज्ञान सभा में याज्ञवल्क्य जैसे विद्वान से शास्त्रार्थ करने की हिम्मत किसी और में न था. वहां उपस्थित मिथिला के सारे विद्वान जब चुप बैठे थे तो निडर एवं खुले विचारधारा की स्वामिनी गार्गी ही ऐसी विदुषी थी जिन्होंने उनसे कुछ ऐसे प्रश्न पूछे जिनका उत्तर विद्वान गुरु याज्ञवल्क्य ने कुछ ऐसे दिया जो आज भी सत्य और सांदर्भिक है.
प्रस्तुत है गार्गी और याज्ञवल्क्य के मध्य हुई प्रश्न उत्तर संवाद रूप में.
गार्गी – ऐसा माना जाता है ,स्वयं को जानने के लिए आत्मविद्या के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है परन्तु आप ब्रह्मचारी तो नहीं .आपकी तो स्वयं दो दो पत्नियाँ हैं ,ऐसे में नहीं लगता कि आप एक अनुचित उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं ?
याज्ञवल्क्य – ब्रह्मचारी कौन होता हैं गार्गी ?(जवाब में यज्ञवल्क्य पूछते हैँ).
गार्गी – जो परमसत्य की खोज में लीन रहे .
याज्ञवल्क्य – तो ये क्यों लगता हैं , गृहस्थ परम सत्य की खोज नहीं कर सकता .
गार्गी – जो स्वतन्त्र हैं वही केवल सत्य की खोज कर सकता .
विवाह तो बंधन हैं .
याज्ञवल्क्य – विवाह बन्धन हैं ?
गार्गी – निसंदेह .
याज्ञवल्क्य- कैसे ?
गार्गी – विवाह में व्यक्ति को औरों का ध्यान रखना पड़ता हैं. निरंतर मन किसी न किसी चिंता में लीन रहता हैं, और संतान होने पर उसकी चिंता अलग. ऐसे में मन सत्य को खोजने के लिए मुक्त कहाँ से हैं? तो निसंदेह विवाह बन्धन हैं महर्षि.
याज्ञवल्क्य – किसी की चिंता करना बन्धन हैं या प्रेम?
गार्गी – प्रेम भी तो बन्धन हैं महर्षि ?
याज्ञवल्क्य – प्रेम सच्चा हो तो मुक्त कर देता हैं. केवल जब प्रेम में स्वार्थ प्रबल होता हैं तो वह बन्धन बन जाता हैं. समस्या प्रेम नहीं स्वार्थ हैं.
गार्गी – प्रेम सदा स्वार्थ ही होता हैं महर्षि.
याज्ञवल्क्य – प्रेम से आशाएं जुड़ने लगाती हैं, इच्छाएं जुड़ने लगती हैँ तब स्वार्थ का जन्म होता हैं. ऐसा प्रेम अवश्य बन्धन बन जाता हैं. जिस प्रेम में अपेक्षाएं न हो इच्छाएं न हों , जो प्रेम केवल देना जनता हो वही प्रेम मुक्त करता हैं.
गार्गी – सुनने में तो आपके शब्द प्रभावित कर रहे हैँ महर्षि. परन्तु क्या आप इस प्रेम का कोई उदहारण दे सकते हैँ?
याज्ञवल्क्य – नेत्र खोलो और देखो समस्त जगत निःस्वार्थ प्रेम का प्रमाण हैं. ये प्रकृति निःस्वार्थता का सबसे महान उदहारण हैं. सूर्य की किरणें , ऊष्मा , उसका प्रकाश इस पृथ्वी पर पड़ता हैं तो जीवन उत्पन्न होता हैं. ये पृथ्वी सूर्य से कुछ नहीं मांगती हैं . वो तो केवल सूर्य के प्रेम में खिलना जानती हैं और सूर्य भी अपना इस पृथ्वी पर वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करता हैं. ना ही पृथ्वी से कुछ मांगता हैं. स्वयं को जलाकर समस्त संसार को जीवन देता हैं. ये निःस्वार्थ प्रेम हैं गार्गी! प्रकृति और पुरुष की लीला और जीवन उनके सच्चे प्रेम का फल हैं. हम सभी उसी निःस्वार्थता से उसी प्रेम से जन्मे हैँ और सत्य को खोजने में कैसी बाधा.
इन उत्तरों को सुन गार्गी पूर्णतः संतुष्ट हो जाती और कहती हैं ” मैं पराजय स्वीकार करती हूँ”.
तब याज्ञवल्क्य कहते हैं गार्गी तुम इसी प्रकार प्रश्न पूछने से संकोच न करो, क्योंकि प्रश्न पूछे जाते हैँ तो ही उत्तर सामने आते हैँ. जिनसे यह संसार लाभान्वित होता हैं.
मेरे विचार में उपरोक्त सम्बाद अभी भी सामायिक हैं.

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