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वाणों की शय्या

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प्रेम अपराध नहीं है . सर्वश्रेठ अनुभूति है प्रेम . प्रेम-रस जीवन का सबसे अद्भुत रस है . लेकिन प्रेम की सीमा होनी चाहिए . आयु के अनुकूल और विशेषता तथा परिस्थिति के अनुसार प्रेम करना चाहिए . अपने कुल ( यहाँ कुल का मतलब संस्कार से है) की प्रतिष्ठा के अनुसार ही प्रेम करने की कोशिश करना मानवोचित धर्म है .
महाभारत में वर्णित शान्तनु का सत्यवती से प्रेम करना उनके कुल के प्रतिकूल ही तो था . उनका प्रेम पूर्णतया वासनामयी था न कि उद्देश्य्पूर्ण और एक पक्षीय भी . प्रेम द्विपक्षीय हो तो ही सम्बन्ध में स्वीकृत, न्यायोचित, और उद्देश्य पूर्ण हो सकता है. एकपक्षीय प्रेम में अस्वीकृति की संभावना अत्यधिक रहता है. यहां भी शांतनु का प्रेम एकपक्षीय होने के कारण दूसरे पक्ष से अस्वीकृत था . ऐसे में उनकी उदासीनता स्वाभाविक थी. सबने समझ भी ली थी . खैर, खून, खांसी, प्रीति, और वैर तो छुपाये नहीं छुपती न ! उनके पुत्र देवव्रत कैसे इन से अज्ञात रह सकते थे ?
पिता के प्रेम के विषय में पता चला होगा तो वे विस्मित हो गए होंगे . थोड़ा अजीब लगा होगा , थोड़ा सोचने पर विवश हुए होंगे. देवव्रत भी विवाह के योग्य हो चुके थे , पर कामुक शांतनु कामपिपासा से ग्रस्त थे और वे अंधे हो गए थे , कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था. गंगा जैसी सर्वगुण सम्पन्ना एवं सुंदरी तथा देवव्रत जैसे योग्य एवं वीर पुत्र के होते हुए भी शांतनु पता नहीं किस कारण से सत्यवती के मोह में फंस गए. भवितव्य ही रहा होगा . महाभारत जो होना था . कुल के किसी एक के गलत आचरण से सम्पूर्ण कुल का विनाश जो होना था. शायद यही कारण रहा होगा.
स्वयं देवब्रत चले गए सत्यवती के पिता से प्रार्थना करने , अपने पिता के लिए उनकी पुत्री का हाथ माँगा . यहाँ दूसरा अन्याय हुआ. बाप जाते हैं बेटे के लिए बहू का हाथ मांगने ,पर कलियुग आना था और उल्टी गंगा बहना था , तभी तो बाप के लिए बेटा माँ का हाथ मांगने को मजबूर था.
प्रेम या आकर्षण एक पक्षीय अर्थात अधूरा होने से शर्त पर आधारित था. जब देवब्रत को पता चला कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती के पिता अपने दोहित्र (सत्यवती जनित पुत्र ) को बनाना चाहते है तो वे सहर्ष राजी हो गए . राजी होने के पश्चात जब ये कहना कि आप तो मान गए लेकिन आपका पुत्र नहीं माना तो …. इस बात को सुनकर आजीवन विवाह न करने की शपथ ले ली . सर्वत्र देवव्रत की इतनी बड़ी त्याग की प्रशंसा होने लगी .पितृभक्ति इससे बड़ी हो ही नहीं सकती .अपनी आहुति दे डाली देवव्रत ने . यह उनकी उत्कृष्ट कुल एवं माँ गंगा की संस्कार का ही प्रतिफल था . लेकिन पिता ने कैसे विवाह रचा ली ,क्या उनकी आत्मा ने धिक्कारा नहीं ? उनकी आत्मा सुप्त हो गयी थी जिससे उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहा .सर्वप्रथम अपने पुत्र को समझाते .यदि वे अडिग ही रहते तो स्वयं विवाह नहीं रचाते. वंशवेल बढ़ाने के लिए देवव्रत तो थे ही . फिर भी अगर प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत विवाह न करते और वंश बढ़ाने की अनिवार्यता था तो शर्तगत विवाह न कर अन्य सुयोग्य महिला से विवाह करते . ऐसे प्रेम को त्याग देते जिसमें उनके पुत्र को इतनी भीषण प्रतिज्ञा लेनी पड़ी . इसी को कहते हैं प्रेम अँधा होना . वास्तव में अँधा ही होता है नहीं तो इतने सुयोग्य राजा ऐसा निकृष्ट कार्य करते . कितनी कठिनता से पुत्र मिला था उन्हें . कितना तड़पे थे इस पुत्र के लिए ,मात्र एक स्त्री के कारण या प्रेम के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी दिलवा दी बेटे से जाने या अनजाने, कारण तो वही थे . जिसे माँ गंगा का प्रेम मिला हो, अंश मिला हो वह कैसे किसी अन्य के प्रति अनुरक्त हुआ होगा सोच कर भी आश्चर्य लगता है .पत्नी के रूप में जिसे गंगा मिली हो उसे अन्य की चाह हो सकती है .जिसे गंगा का सानिध्य प्राप्त हुआ हो वह कैसे दूसरे के प्रति अनुरक्त हुआ होगा यह सोचकर ही मुझे आश्चर्य लगता है l विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता, मेरी दृष्टि में पतन तो उसी दिन से आरम्भ हो गया होगा जिसदिन से ऐसी बातें हुई होंगी . माता गंगा कितनी आहत हुई होंगी ,कितनी कुपित हुई होंगी या सोचती होंगी -किस पुरुष के साथ संग की मैनें ? मेरे युवा पुत्र के विवाह की बात करता तो स्वयं प्रेम कर बैठा . वाह रे मानसिकता . अपने पुत्र की दयनीय अवस्था को देखकर कितनी व्यथित होती होंगी .
सदैव कश्मकश में ही रहे देवव्रत अर्थात भीष्मपितामह . दुर्योधन के अनुचित आचरण को देखकर कितने व्याकुल होते होंगे , द्रौपदी के साथ अन्याय होते देखकर कितनी छटपटाहट हुई होगी . अभिमन्यु के साथ भीषण अन्याय देखकर कितनी पीड़ा हुई होगी . पीड़ा तो हुई होगी लेकिन पीड़ा होने पर विरोध न कर पाने की विवशता के कारण चुप चाप अन्याय को मूक दर्शक बन कर देखने की गलती की उन्होंने. यह सब क्यों हुआ? शायद गलत का साथ देने या कहें की देवव्रत से लेकर भीष्मपितामह होने तक की गलतियों के परिणामस्वरुप उन्हें महाभारत के युद्ध में अशक्त होने के बाद भी जिस वाणों की शय्या पर युद्ध के अन्त तक उन्हें लेट कर समय बिताना पड़ा वह शय्या क्या था – अफ़सोस की सैय्या ! पछतावा का सैय्या या मज़बूरीवश अनुचित होते हुए केवल मूक दर्शक बने रहने की विवशता से आया विक्षोभ ? कितनी मानसिक (शारीरिक?!) पीड़ा में व्यतीत किये होंगे वे दिन . मात्र पितृ भक्ति के कारण ही या अपने को स्वयं को महत्वहीन समझने के कारण.
मेरी दृष्टि में आज भी जो कुछ पिता अपने पुत्र की अनदेखी करते हैं ,यह उसी युग की देन है . जो सम्बन्ध ही छोटी सोच से शुरू हुआ हो उसका अन्त तो अशोभनीय होगा ही. अतः मानव को इस बात पर ध्यान देना चाहिए नहीं तो शान्तनु की तरह स्थिति होगी . जब देहावसान का समय आता है तब मानव को करने हेतु कुछ नहीं बचता है, अशक्त होता है तो कुछ कर भी नहीं पता. तब मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए मृत्यु शय्या पर सोये -सोये अपने अच्छे बुरे किये कर्मों का जाने -अनजाने विश्लेषण करता है और किये गए गलत तथा बुरे कर्मों के पश्चाताप रूपी वाणों की शय्या पर चुभन अनुभव करते हुए समय व्यतीत करना पड़ता है.

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