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“हिंदी बाज़ार की भाषा है” गर्व की नहीं. या हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गयी है -क्या कहना है आपका?-कांटेस्ट

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हिंदी गर्व की भाषा है. हमें हिंदी भाषा पर अभिमान है, हमारा पथ-प्रदर्शक है. सम्पूर्ण देश की भाषा है यह, इसके छाँव में हमें आनंद का अनुभव होता है. भाषा का अलग इतिहास है, मात्र बाज़ार की भाषा कहना न्यायसंगत नहीं है. हिंदी का अपार संसार है,अतुलनीय है. यह भाषा हमें जीवन देता है. जब हम हिंदुस्तानी हैं तो हमें गर्व कैसे नहीं होगा. भारत बहु-भाषी देश है. इस बहु-भाषी को मात्र हिंदी ही एक सूत्र में बांध सकती है, बांध कर सम्पूर्ण देश में अनेकता में एकता लाती है. इसके कारण हमें गर्व है.
हिंदी अपने व्यापक रुपें में अन्य भाषाओँ के संपर्क-सूत्र का कार्य करती है और भारत की सामाजिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बनती है, अतः हमें गर्व है.
यह बाजारू नहीं है. हमें आत्म -गौरव की अनुभूति होती है इस भाषा के पठन से. जिस तरह मानव देश -विदेश भ्रमण कर ले लेकिन संतुष्टि अपने नीड़ यानी घर में ही मिलती है. उसी तरह हम कितनी भी भाषाओँ का अध्ययन करें रोचकता हमें हिंदी में ही मिलती है, अतः यह मात्र बाज़ार की नहीं अपितु गर्व की भाषा है.
अपनी मिटटी, अपने स्वजन तथा अपनी भाषा से मधुर कुछ हो ही नहीं सकता. मेरा वर्तमान,भविष्य मात्र हिंदी ही है. इसीके छाया में हम पालित-पोषित होते हैं. हमने अभिमान है की हम हिंदी भाषी हैं.
मेरा कहना है की हिंदी बाज़ार की भाषा के साथ गर्व की भी भाषा है.
भाषा अमीरी-गरीबी से दूर होती है. भाषा तो भाषा होती है. हिंदी भाषा इतना विशाल है फिर वह मात्र गरीबों या अनपढ़ों की भाषा कैसे होगी. यह प्रश्न ही औचित्यपूर्ण नहीं है. जिस तरह सागर नदियों को अपने में समेट लेता है उसी तरह हिंदी सभी भारतीय भाषाओँ को अपने में समेटे रहती है.
कोई भी भाषा कैसे मात्र गरीबों की हो सकती है? गरीबी या अमीरी तो ‘अर्थ’ से तौला जाता है,लेकिन भषा की अमीरी या गरीबी उसके साहित्य की धनाढ्यता या विपन्नता से तौली जाती है. अतः भाषा गरीबों की या अमीरों की अलग-अलग नहीं हो सकती. दिखावे के लिए तथाकथित अमीर अपने जीभों को ऐंठ कर पाश्चात्य भाषाओँ का नक़ल ज़रूर करते दीखते हैं. लेकिन उनकी हालत ऐसे ही होती है जैसे “खंजन गई कौए की चाल चलने अपनी भी भूल गयी.”
आज-कल लोग अंग्रेजी में बात करना शान समझते है. भाषा कोई भी ख़राब नहीं होती है, लेकिन दिखावा करना कि मुझे अंग्रेजी आती है हिंदी नहीं , यह सरासर गलत है. कतिपय तथाकथित धनी लोगों की धारणा होगी – हिंदी गरीबों की भाषा है, अनपढ़ों की भाषा है. हिंदी सर्वजन की भाषा है. यह भाषा भारतीय समाज के भव्य बिचारों का दर्पण है. जीवन की विषम परिस्थितियों में भी अन्तः-करण से आनंद की अनुभूति का मानव को अनुभव कराने में सदैव संलग्न रहा है. यह भाषा बच्चे तथा अनपढ़ भी उतनी ही सरलता से समझते हैं जितनी आसानी से कोई शिक्षित. इसका माधुर्य तथा प्रसादगुण सर्वथा ग्राह्य है. यह भाषा भारत के आत्मा में बसती है. फिर यह कैसे मात्र गरीबों या अनपढ़ों की भाषा हो सकती है.
सुधिजन ! मैं क्षमा प्रार्थी हूँ , यह प्रश्न विचित्रता के साथ तर्कहीन है. क्या हवा,धुप, छांव , बारिस अदि कोई भी वस्तु अमीर या गरीब केलिए अलग नहीं होता.क्यों कि ये सारी चीजें प्रकृति-प्रदत है, ठीक उसी तरह हिंदुस्तान वासियों केलिए हिंदी भी प्रकृति-प्रदत है. वह चाहे गरीब हो या अमीर,अनपढ़ हो या पढ़ा -लिखा सभी केलिए हिंदी समान है.

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