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कंडोम के विज्ञापन की समय अवधि पर बेतुकी रार

लिखा रेत पर
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ज्ञान का झरना यदि तेज कहीं गिरता है तो भारत की वेबसाइटों, पोर्टलों पर गिरता है. कदम सरकार के हों या विपक्ष के एक उठा नहीं कलम से दुसरे पर सवाल उठा दिया जाता है. पिछले दो तीन दिन से भारत के बुद्धिजीविओं का एक टोला कंडोम के विज्ञापन पर समय अवधि पर लगी रोक को भी आपातकाल माने बैठा है. दरअसल केन्द्र सरकार ने एक संस्कारी आदेश देते हुए कंडोम के विज्ञापन के लिए एक समय सीमा तय कर दी है. सरकार ने आदेश दिया है कि टीवी चैनलों पर सिर्फ रात दस बजे से लेकर सुबह छह बजे तक ही कंडोम के विज्ञापन दिखाए जा सकेंगे. टीवी चैनलों पर कंडोम के विज्ञापन के खिलाफ मिल रही शिकायतों के आधार पर यह फैसला किया गया है. शिकायतों में बार-बार यह बात कही जा रही थी कि ऐसे विज्ञापन अश्लील और अनुचित है.

90 का दशक था महाभारत, चन्द्रकान्ता और मोगली दूरदर्शन पर छाये हुए थे. ब्लेक एंड व्हाइट पर्दे पर सीरियल के बीच अचानक राजकपूर और नर्गिस बारिश में छाता लिए गाना गाते दिखते थे “प्यार हुआ इकरार हुआ प्यार से फिर क्यों डरता है दिल” साथ ही सन्देश आता कि प्यार का अहसास सुरक्षा का विश्वास डिलेक्स निरोध. इस दशक में भारतीय समुदाय के लिए सेक्स और कंडोम की बात भी करना सबसे बड़ा पाप समझा जाता था. पर फिर भी कहीं इसके विरोध में लोगों के स्वर सुनाई दिए हो? हालाँकि इसके बाद के कई विज्ञापन तो शर्म और संकोच तोड़ने के लिए बने कि दुकानदार से कंडोम मांगे कैसे?

तब शायद निरोध में फ्लेवर नहीं थे. विज्ञापन का मूल ध्येय होता था परिवार नियोजन और यौन सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करना. माला डी से लेकर सेनेटरी पैक के विज्ञापन आना अधिकांश बच्चों की समझ से परे थे. उस दौरान केवल टीवी ही नहीं बल्कि ट्रकों और बसों के पीछे भी लिखा होता था छोटा-परिवार, सुखी-परिवार, लेकिन आज जमाना बदला और कंडोम बनाने वाली कम्पनियां जिस तरीके से विज्ञापन पेश कर रही हैं न उसमें कुछ छिपता और न ही कुछ स्पष्ट होता. न कोई शिक्षा और ना ही कोई सन्देश होता बस कुछ दिख रहा है तो सिर्फ बाजार का मुनाफा.

भारत में कंडोम विज्ञापन पहले लोगों को सुरक्षित यौन सम्बन्ध के प्रति जागरुक करने के लिए बनाए जाते थे. अब दुनियाभर में इसे बेचने के लिए नए-नए तरीके खोजे जाने लगे और भारतीय विज्ञापन जगत ने इसके लिए पूजा बेदी से लेकर सनी लियोनि का सफर तय किया.

हालांकि सुशीलता और अश्लीलता की कोई क़ानूनी परिभाषा नहीं है साथ ही मुझे नहीं लगता सरकार या लोगों को कोई दिक्कत कंडोम के विज्ञापन को लेकर हो! दिक्कत यदि कहीं दिख रही है तो उसके बेचने के ढंग से है. किस तरह कंडोम के विज्ञापन को कामुकता से भरे द्रश्यों में लपेट-लपेटकर फेंका जा रहा है. सिसकारियां, आह ऊह की आवाजे, क्या यह भी जागरूकता का तरीका है? उसके फ्लेवर इस तरह प्रसारित किये जा रहे है जिसे कंडोम न होकर कोई खाने-पीने की वस्तु हो?

ऐसा नहीं है यह विरोध केवल भारत में हुआ है बल्कि समय-समय पर विश्व के अनेक देशों में कंडोम के विज्ञापन को लेकर बहस उठती रही है. वर्ष 2013 में कीनिया के रोमन कैथोलिक चर्च ने कंडोम के इस्तेमाल को बढ़ावा देने वाले एक विज्ञापन पर ऐतराज जताया था. प्रकाशित विज्ञापन में एक मुस्कुराते हुए युगल को ये कहते हुए दिखाया गया है कि “गुड कैथोलिक यूज कंडोम” यानि कि अच्छे कैथोलिक कंडोम का इस्तेमाल करते हैं. जिसके बाद कीनियाई मुस्लिमों के संगठन, कीनिया के इमामों और प्रचारकों की परिषद ने भी एक मिनट के इस विज्ञापन को दिखाने के लिए टीवी चैनलों की आलोचना की थी.

इससे पहले साल 2010 में भी दक्षिण अफ्रीका में होने वाले फुटबॉल विश्व कप में कंडोम को बढ़ावा देने के दौरान यौनकर्मियों के लिए काम करने वाले कुछ संगठनों ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि फुटबॉल के जरिए कंडोम का प्रचार करने से वेश्यावृत्ति को और बढ़ावा मिलेगा. तो इसी वर्ष नवरात्रों में गुजरात में मैनफोर्स कंडोम के पोस्टर से विवाद बढ़ गया था.

मसलन सच यह भी है कि कहीं भी विरोध कंडोम का नहीं हुआ विरोध हुआ बस उसके प्रसारित करने के तरीकों को लेकर हुआ है. गौर से देखे तो आज हमारा समाज सांस्कृतिक वातावरण के बदलाव के दौर से गुजर रहा है. गरीबी व अभावों से निकल कर समाज के एक बडे हिस्से के पास समर्धि आई है. इसके अलावा और भी चीजें जिंदगी के साथ जुड गईं जो हमारे सोच के दायरे के बाहर थी. मुझे नहीं लगता आज कोई चीज छिपी हो.

लेकिन इसके बावजूद भी आज कंडोम को बाजार की वस्तु होने से अधिक इसे एक नई सांस्कृतिक संरचना बनाया जा रहा है. एक दम पारदर्शी संरचना आपने देखा होगा वो विज्ञापन जब एक लड़की मेडिकल स्टोर पर खड़ी भीड़ में जाकर कहती है भैय्या एक कंडोम देना!! हालाँकि इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन माता-पिता के बीच एक साथ टीवी देखते बच्चे-बच्चियों के लिए यह सब उसी रूप में पेश हो रहा है जैसे कि माता-पिता के लिए. बस इससे यौन गोपनीयता कुछ देर को झटके खाती है. क्या यह सब तरीके हमने चाहें? यौन शिक्षा जरूरी हैं बशर्ते उसके तरीके गलत न हो..!!

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