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अक्सर लोग कहते है गुजरा समय लौटकर नहीं आता, पर परिस्थिति जरुर लौटकर आती है. बस उसकी शक्ल और नाम बदला होता है, देश के अन्य हिस्सों की तरह एक बार फिर मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों का आंदोलन उग्र होने के बाद पुलिस की फायरिंग में कम से कम 5 किसानों समेत 6 लोगों की मौत हो गई है. इसके साथ ही चार अन्य किसान घायल भी हुए हैं. सरकार ने मंदसौर, रतलाम और उज्जैन में इंटरनेट सेवा बंद कर दी थी.
इसके बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के धड़ाधड़ ट्वीट आने शुरू हुए कि मेरे किसान भाइयों शांति बनाएं रखो. “पता नहीं चला इंटरनेट बंद होने के बाद किसान ऑनलाइन कौनसी स्लेट या वेवसाइट पर वह ट्वीट पढ़ रहे थे.” मुझे याद है जब अन्ना के आन्दोलन के समय और निर्भया रेप केस के बाद हो प्रदर्शनों पर तत्कालीन सरकार ने सोशल मीडिया पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध की बात कही थी तो राष्ट्रवाद उबल पड़ा था. पर पटेल आंदोलन होता है तो इंटरनेट बंद कर दिया जाता है. दलित आंदोलन होता है तो इंटरनेट बंद हो जाता है. जाट आन्दोलन रहा हो या मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसान आन्दोलन. क्या कोई बता सकता है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है इंटरनेट या सरकार?
मीडिया से पता चला कि सभी किसान कांग्रेसी थे! मुझे भी लगा ये जरुर विपक्ष के ही किसान होंगे वरना सरकार के किसान तो बेंको से मिले कर्जे पर धन और सब्सिडी लेकर ब्रिटेन में आराम फरमा रहे है. पर लोग शायद भूले नहीं होंगे अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में तमिलनाडू के किसान पिसाब पिसूब तक तक पीकर अपनी तंगहाली का रोना रोकर खाली हाथ चले गये थे. क्या वो भी विपक्ष के किसान थे?
पिछले दो दिनों से सोशल मीडिया के ठेकेदारों द्वारा मंदसोर आन्दोलन के किसानों की जींस पेंट में फोटो डालकर यह पूछा जा रहा है कि भाईयो “ये किसान है या गुंडे? क्यों भाई किसान जींस की पेंट क्यों नहीं पहन सकता में खुद किसान का बेटा हूँ में पेंट शर्ट पहनता हूँ तो इसमें अपराध क्या? बस यही कि मुझे अपनी फसल का उचित मूल्य फटी लंगोटी पहनकर मांगना पड़ेगा? या फिर इनकी समझ से गोदान उपन्यास का होरीलाल महतो ही किसान का सच्चा रूप है? बाकि किसान विपक्ष के गुंडे!! असामाजिक तत्व थे तो मुआवजा क्यों? यदि किसान थे तो गोलियाँ क्यों ?
अब थोडा पीछे चले तो दिसम्बर 2012 निर्भया के रेप के बाद सड़कों पर जन सेलाब उमड़ पड़ा था मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री, शिंदे ग्रहमंत्री और शीला दिल्ली की सीएम हुआ करती थी. पुलिस पर पथराव हुआ, नारे लगे, हिंसा का पूरा तांडव राजधानी की सड़कों पर देखने को मिला जिसमें दिल्ली पुलिस के एक सिपाही सुभाष तोमर की जान भी चली गयी. तब भी पुलिस ने सिर्फ लाठीचार्ज किया पर सीधी गोली नहीं चलाई, जैसे हरियाणे में जाट आन्दोलन के समय 28 लोग, गुजरात में पाटीदार आन्दोलन में करीब 11 लोग और मंदसोर में किसान आन्दोलन के वक्त 6 लोगों की हत्या गोली चलाकर की गयी, चलो मान लिया आज विपक्ष की साजिश है लेकिन संविधान में कहाँ लिखा है कि विपक्ष पर गोली चलाओ? यदि यह सब सही हो रहा है तो फिर जनरल डायर को भी राष्ट्रवादी क्यों ना लिखा जाये.?
यह सब देखकर क्या कहा जा सकता है कि यह सरकार नागरिकों के बीच राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता के प्रति और अपने समवैधानिक दायित्व से विमुख ही नहीं बल्कि उसके विरोध में खड़ी है. क्यों तो पहले सरकार ने फसल की लागत से डेढ़ गुना ज्यादा देने का वादा किया था क्यों अब मुकर रहे यदि मुकरते है तो किसान की घुटन निकलना भी जायज है.
नई सरकार जिस तरह देशभक्ति को राजनितिक मुद्दा, किसान गरीब के आन्दोलन को विपक्ष का मुद्दा और सेना को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने पर तुली है इससे भी लोकतंत्र को हस्तिनापुर की बहु को भरी सभा में पांचाली बनने में देर नहीं लगेगी! जनमत बनाने-बिगाड़ने में टीवी चैनलों की भूमिका और देश के नागरिकों से जूझने के लिए फौज का उतारा जाना, ये दो ऐसे चीजें हैं जिसने लोकतंत्र के वर्तमान हालात पर सवाल उठा दिया है
सरकार को समझना चाहिए लोगो ने पुरानी सरकार को नकारकर नई सरकार चुनी थी. तुष्टिकरण की राजनीति और न्याय के लिए वोट दिया था. गरीब, किसान और मजदुर ने अपनी सवेंधानिक मांगों की पूर्ति के लिए वोट दिया था यदि सरकार इससे दूर जाएगी तो ध्यान रहे मनमोहन सिंह ने अपने विदाई भाषण में कहा था, यदि मैंने अपने कार्यकाल में कुछ भी सही किया है तो इतिहास मेरे साथ न्याय जरुर करेगा..
राजीव चौधरी
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