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दंगा और हिंसा चेहरे नहीं मोहरे बदलते है..

लिखा रेत पर
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देश का अजीब हाल बना दिया गया जिसका मूड होता है, वही मुंह उठाकर, झूठ सच बोलकर, पांच-सात हजार लोग लेकर सड़कों पर हिंसा करने निकल पड़ता है और आन्दोलन तो एक ऐसा अलादीन का चिराग हो गया जिसे रगड़ते ही अब गुंडे बाहर निकलते है और पूछते है “क्या हुक्म है मेरे आका?” कि फूंक दे बेटा देश, भली करे करतार।

अब अनुसूचित जाति-जन जाति कानून के विरोध में आहूत भारत बंद हिंसक हो गया था। देश के विभिन्न हिस्सों में हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ हुई। करीब 12 लोगों की मौत हुई और कुछ घायल भी हुए। बंद समर्थको ने रेल आदि यातायात पर अपना गुस्सा उतारा कई जगह बसों को भी आग के हवाले किया गया।

बरहाल अब लोग सोशल मीडिया पर इस भयंकर त्रासदी के फोटो डालकर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे है और समस्त दलित समाज को दोषी ठहरा रहे ।

मुझे नहीं पता लोग किस मुंह से यहाँ किसी को दोषी ठहरा सकते है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पद्मावत का विरोध करने वाले कौन थे? जल्लीकट्टू पर शीर्ष अदालत का विरोध करने कौन थे? दीपावली पर पटाखा हो, होली पर कोई गाइड लाइन या फिर  तीन तलाक के फैसले पर रामलीला मैदान में प्रदर्शन करने वाले ये लोग भी तो सुप्रीम कोर्ट के ही विरोधी है।

हालाँकि फोटो डालने और खींचने की जरुरत ही नहीं थी। सब फोटो ठीक वैसे ही है जैसे पिछले हफ्ते रामनवमी के हिंसक प्रदर्शन के दौरान थे। बस मरने वाले लोगों के नाम बदले हुए हैं और फूंकी गयी गाड़ियों के नम्बर अलग। सब कुछ गुजरात के पटेल आन्दोलन, हरियाणा के जाट आन्दोलन, करणी सेना के पद्मावत के विरुद्ध आतंक और राम-रहीम की गिरफ्तारी के विरुद्ध जैसा ही मंजर दिख रहा हैं।हाँ बस अंतर ये था जो दंगाई दो दिन पहले सिर पर भगवा पट्टी बांधे हुए थे परसों वाले भारत बंद में पट्टी का रंग नीला हो गया था.

घटना क्यों हुई! इसके कारण क्या थे यह सब अब निकलकर आ रहा है। यदि एक दिन पहले चेता देते तो शायद किसी को बेमौत मरना न पड़ता, किसी मासूम बच्ची का सिर नहीं फूटता। किसी मजदूर राकेश टमोटिया की लाश पर उसकी माँ और बीवी को सिसकना न पड़ता।

कोई कह रहा है ये ऊना का गुस्सा था, कोई कह रहा है नहीं-नहीं ये शौर्य दिवस पर हुई हिंसा का नतीजा । अरे! नहीं यार ये जब का गुस्सा था जब एक दलित की कथित ऊँचे वर्ग ने मूछ काट दी थी। किसी को इसमें अम्बेडकर जी की मूर्ति टूटने का गुस्सा नजर आ रहा है।जिनको कुछ नहीं पता था वो ये समझकर हिंसा कर रहे थे कि सरकार हमारा आरक्षण का अधिकार छीन रही है।

आन्दोलन में मोदी योगी मुर्दाबाद, भाजपा आरएसएस मुर्दाबाद जैसे नारे बता रहे थे कि ये आन्दोलन दलित नहीं बल्कि भाजपा के विरोध में प्रायोजित था. जिसे कुछ लोग इसे पिछले कई हजार का बदला बता रहे हैं तो कुछ धर्म शास्त्रों में लिखे भेदभाव का नतीजा बता रहे है। ये कोई नहीं कह रहा हैं कि बाबा साहेब द्वारा बनाया संविधान उसके ही मानने वालों ने जातिगत राजनीति के वोटर बनाकर खूब मन लगाकर फूंका।

हिंसा को शब्दों और संवेदना की ओट में खड़ा कर जायज सा ठहराने की मांग सी हो रही है। हालाँकि बीएसपी प्रमुख मायावती शीर्ष अदालत की ओर से किए गए बदलाव के बाद सरकार के रवैये की जमकर आलोचना कर रही हैं, लेकिन 2007 में जब वह उत्तर प्रदेश में सत्ता में थीं तो उस समय उन्होंने इस कानून के हो रहे दुरुपयोग पर राज्य के सभी पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिए थे कि जाँच के बाद ही कारवाही हो ताकि किसी निर्दोष को सजा न मिले. यही बात अब शीर्ष अदालत ने कही है।

ऐसे मौकों पर बहुत कम पत्रकार या कलमकार होते है जो विवेक और सच्चाई से काम लेते है वरना सब भावनाओं में बहकर गलत को सही ठहराने की कोशिश में लगे रहते है। दरअसल आग तब भी लगती है जब अम्बेडकर की मूर्ति को तोडा जाता है और आग तब भी भड़कती है जब अम्बेडकर की मूर्ति के नीचे रखकर हनुमान जी मूर्ति पर थूककर वीडियो अपलोड होता हैं। इन घटनाओं से ही लोग आसानी से हिंसा करने, करवाने के शिकार बन जाते है।

शायद इसी कारण ही एक बार फिर वोट की राजनीति और कलमकारों ने असली सवाल दबा दिए। क्योंकि जो चेहरे और तस्वीरें सामने आईं हैं जो संशय पैदा करती हैं कि क्या दलित आंदोलन में हिंसा भड़काने में कोई और भी शामिल था?

पुलिस ने जब गोलियां नहीं चलाई तो ये मौतें कैसे हुईं? क्या आंदोलनकारी एक दूसरे को मार रहे थे? या कोई और आंदोलन को दूसरी तरफ ले जा रहा था। ये जरुर जांच का विषय है।

क्या इससे पहले किसी कानून में सुधार नहीं हुआ कुछ समय पहले शीर्ष अदालत द्वारा दहेज उत्पीडन की धारा 498-ए का महिलाएं इसका गलत इस्तेमाल कर रही हैं ये कहकर बदलाव किया था कि झूठे केस दर्ज हो रहे हैं। और अधिकांश मामलों में इस कानून की वजह से अन्याय भी हो रहा है।

ऐसा ही कुछ हाल महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानून की धारा 354 के सेक्शन ए.बी.सी.डी और रेप के खिलाफ बनी कानून की धारा का भी दुरूपयोग बहुतेरे मामलों में झूठा पाया गया। कहने का अर्थ है कि अन्याय के विरुद्ध बने कानून ही जब अन्याय करने लगे तब क्या नागरिक भगवान के भरोसे बैठकर ही न्याय की अपेक्षा करें?..राजीव चौधरी

 

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