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लेखक की हत्या का राजनितिक उत्सव

लिखा रेत पर
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कन्नड़ भाषा की “लंकेश पत्रिका” की सम्पादक और लेखक गौरी लंकेश, आज मौन है आज उनका ट्विटर हेंडल भी अनाथ सा दिखाई दे रहा है. ये सच है कि गौरी राइट विंग के खिलाफ थीं. पर वो एक ऐसी इंसान थीं, जिन्होंने वाकई कोशिश की थी कि लोगों को समझाया जा सके. लेकिन जिसने गोली चलाई शायद गौरी की बात उसकी समझ से परे रही होगी!

ये कोई पहला मौका नहीं है कि जब किसी एक विचारधारा के मानने वाले को मौत के नींद सुला दिया गया हो. नरेंद्र दाभोलकर की  2013 में पुणे में हत्या कर दी गयी थी. गोविंद पानसरे को 2015 में कोल्हापुर में और उसी साल एमएम कलबुर्गी को धारवाड़ में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी.

ये सब ऐसे नाम है जो आज सबके रटे रटाये हो गये लेकिन कुछ नाम और भी है जो छुपे रह गये. जिनकी विगत वर्षो में हत्या हुई, अकेले बिहार ही में हिन्दी दैनिक के पत्रकार ब्रजकिशोर ब्रजेश की बदमाशों ने गोली मार कर हत्या कर दी. इससे पूर्व भी सीवान में दैनिक हिंदुस्तान के पत्रकार राजदेव रंजन और सासाराम में धर्मेंद्र सिंह की हत्या की जा चुकी है. पिछली सरकार में उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार को कथित रूप से जलाकर मार डालने के आरोप में पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था. कहा जाता है कि कथित रूप से फेसबुक पर मंत्री के खिलाफ लिखने के कारण पत्रकार जगेंद्र सिंह को जान गवानी पड़ी.

गौरी लंकेश की हत्या मंगलवार आधी रात को हुई लेकिन उसकी हत्या किसने की यह विपक्ष को सूरज उदय होने के साथ ही पता चल गया था. लेकिन बाकि के सभी पत्रकारों की हत्या का राज आजतक दफन है “1992 के बाद से भारत में 27 ऐसे मामले दर्ज हुए हैं जब पत्रकारों का उनके काम के सिलसिले में कत्ल किया गया. लेकिन किसी एक भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी है.”

गौरी लंकेश की हत्या का शोक सन्देश उसी तरह लिखा गया,  जिस तरह जितना जल्दी लिखा गया और राजनेतिक लोग उसकी हत्या का कारण गिनाने बैठ गये रातों-रात बैनर पोस्टर छप जाना मुझे अजीब सा लगा सच कहूँ तो आज मुझे राजनीति एक बार फिर अमीर और लेखिका की हत्या पर संवेदना गरीब सी दिखाई दे रही है.

कोई इसे लोकतंत्र तो कोई भाषा की हत्या  बता रहा है, विपक्ष के बड़े नेता और दुसरे पाले के भावी प्रधानमंत्री ने तो यहाँ तक कहा कि जो सरकार के खिलाफ बोलेगा वो मारा जायेगा. मुझे नहीं पता ये दुआ है या बद्दुआ या कोई चेतावनी? पर इतना कह सकता हूँ एक साझा दुःख सिर्फ एक खास विचारधारा का राजनितिक दुःख बनकर रह गया या कहो जब तक इस निर्मम हत्या पर देश के लोगों  अन्तस् छलकता तब तक इस दुःख की राजनितिक बंदरबांट हो चुकी थी.

पुलिस का कहना है कि वह हत्यारों का पता नहीं कर पाई है. किसी ने उन्हें देखा नहीं. गौरी लंकेश के घर में घुसकर उनपर सात गोलियाँ दागकर वे चलते बने. अँधेरे में कहीं छिप गए. हाँ राजनेता जरुर इल्जाम एक दुसरे पर लगा रहे है यूँ कहिये इस दुखद अवसर पर अपनी राजनीतिक हैसियत दर्ज करा रहे है. लेकिन जब राजनीति हत्या की संवेदना का उत्सव वोटों के रूप मनाने लगें, जब धर्म और विचारधारा के नाम पर पिस्तौल निकलने लगे तो किसी लेखक या पत्रकार का मारा जाना सिर्फ वक्त की बात है.

बयानों की आंच पर गौरी के हत्या के कारणों की हांड़ी रख दी गयी है अभी आंच की राजनीति को ठंडा होने का इन्तजार करें जिस दिन केरल में संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या का कारण पता चल जायेगा उस दिन इस हांड़ी का मुंह खोल कर देख लेना. कुछ कारण हाथ आ जाये तो मुझे भी दिखा देना उन खोलते सवालों के पानी से बहुत लोगों के चेहरे धोने है

साधारण घरों जब किसी घर में मौत होती है उस दिन घर का चूल्हा खामोश होता है अगले दिन उस पर चाय बनती है तीसरे दिन रुखी सुखी रोटी भी लोग खाते है वक्त के साथ गम ढीला होता है और उस चूल्हे पर पकवान भी बनते है.

लेकिन राजनितिक मौतों पर ऐसा नहीं होता यहाँ पहले दिन चूल्हे पर बयानों के पकवान बनते है और वक्त के साथ वो चूल्हा ठंडा हो जाता है. आज सबके पास गौरी लंकेश की हत्यारी खबर है पर कौन था पनसारे? कौन था दाभोलकर, कौन था कलबुर्गी, किसी को ज्ञात नहीं? यह याद रखना अभी भी जरूरी होगा कि यह सब मरना नहीं चाहते थे बोलते रहना चाहते थे लेकिन इन्हें चुप कर दिया गया. जिसने भी इन पर गोली चलाई वो नहीं जानता होगा कि उसने गोली देश की संस्कृति और विविधता पर चलाई है. आज वो सब चुप है बस हम बोल रहे है…राजीव चौधरी

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