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हमारी अपनी कमज़ोरियों ने ही पाखंडी बाबाओं को जन्म दिया है

लिखा रेत पर
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बाबा राम रहीम को दस-दस साल की सज़ा हो गई। देखा जाए तो पूरे घटनाक्रम में न्याय व्यवस्था पहले, राजनीति दूसरे और भक्ति कहो या अंधश्रद्धा सबसे निचले पायदान पर रही। लेकिन दिक्कत यह नहीं है कि सरकार की इसमें मिलीभगत रही और उसने इतना बड़ा कांड होने दिया, संकट यह है कि कोई दूसरी पार्टी यह कहने को तैयार नहीं है कि डेरा में क्या कांड हुआ करते थे। पूरा देश जानता है, मगर जब तक कोई बोलेगा नहीं, वैकल्पिक आवाज़ नहीं उठेगी तो लोग किसके साथ खड़े होंगे? साधारण इन्सान को तलाश है ऐसी शक्ति की जो धर्म में उसे डुबा सके, सरल माध्यम से उस तक धर्म पहुंचा सके, उसके दुःख हर सके।

हमेशा असली सवालों को, नकली जवाबों से लोग अपनी सोच और सुविधा के अनुरूप ढक देते हैं। जो असली सवाल यहां खड़ा है, वो यह है कि आखिर ये सत्संगी लोग कौन हैं? कहां से आए और क्यों ये किसी बाबा के लिए मरने-मारने पर उतारू हो गए? शुक्रवार की दोपहर तक जो भीड़ भक्त थी, दिन ढलते-ढलते वो हिंसक गुंडों में बदल गई, लेकिन ये गुंडे किसने पैदा किए? मीडिया, बाबा, धर्म या सरकार ने? दरअसल जिन्हें आज गुंडा कहा जा रहा है, कहीं ये सब हमारी धार्मिक व्यवस्था की देन तो नहीं?

जिन्हें लोगों ने कभी मंदिरों से दुत्कारा, कभी धर्मस्थलों में घुसने से रोका। जिन्हें यह समझाया गया कि जीवन में दुःख और परेशानी का इलाज सिर्फ धर्म से ही होता है। इसी स्वर्ग की कामना और मुक्ति की इच्छा ने ऐसे बाबाओं को खड़ा किया। किसी बेटे ने जब दुत्कारा, बहू ने जब खरी खोटी सुनाई, पड़ोस के दरवाज़े जब बंद हुए, तो लोगों ने बाबाओं के द्वार खटखटाए। मुक्ति की आस, परेशानी का निवारण, सुख की इच्छा दुःख का निवारण कौन नहीं चाहता? मैंने कहीं पढ़ा था कि दरअसल इस भीड़ के मूल में दुःख है, अभाव है, गरीबी है और शारीरिक-मानसिक शोषण है। किसी का ज़मीन का झगड़ा चल रहा है तो किसी को कोर्ट-कचहरी के चक्कर में अपनी सारी जायदाद बेचनी पड़ी है। किसी को सन्तान चाहिए तो किसी को नौकरी! शायद ये तमन्नाएं ही जन्म देती हैं धर्मों को, डेरों को, आश्रमों को और बाबाओं को। अब इसे आप धर्म कहें, पाखंड कहें, अंधविश्वास कहें या अशिक्षा, सबकी अपनी-अपनी सोच है।

जब आप खिड़की खोलते हैं तो ताज़ा हवा के साथ कुछ धूल भी अन्दर आ जाती है, ठीक इसी तरह जब आप धर्म का दरवाजा खोलते हैं तो आस्था की हवा के साथ वो चलन भी अंदर घुस आते हैं जिन्होंने लाखों दिमागों पर पहले से ही कब्ज़ा कर रखा होता है। भारत में दुनिया के सबसे स्वस्थ बुद्धिजीवी रहते है, आप सेक्युलर हों या नॉन सेक्युलर, नेता हो या अभिनेता, बिजनेसमैन हो या फटेहाल, गुरुजी की चौखट ज़रूर चाहिए। अमिताभ बच्चन और अम्बानी जब तिरुपती में करोड़ों के गहने चढ़ाते हैं तो आस्था होती है, लेकिन जब एक गरीब झीनी सी बीस-तीस की रूपये की चादर लेकर किसी आशा में मंदिर, पीर पर लगी भीड़ में खड़ा होता है तो अन्धविश्वास बन जाता है।

“बात अच्छे या बुरे बाबा की नहीं है, बात यह है कि क्या लोकतंत्र इसी का नाम है कि आप वोटों के लालच में लोकतंत्र को भी किसी किसी बाबा, या गुरु के खूंटे पर बकरे की तरह बांध दें?”

जब फिल्म अभिनेत्री कैटरीना कैफ फतेहपुर सीकरी में ख्वाजा शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में अपनी फिल्म की सफलता के लिए चादर चढ़ाकर मन्नत का धागा बांधती है तो उस समय पूरे देश के लिए वो आस्था का विषय बन जाता है। प्रियंका चोपडा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की प्रसिद्ध दरगाह पर चादर चढ़ाई  जाती है तो वो बड़ी खबर बनती है। इसके सुबह-शाम राशिरत्न, लक्ष्मी दुर्गा यंत्र बेचने वाली मीडिया किस मुंह से अन्धविश्वास पर भाषण देती है?

यदि सिरसा डेरे वाले बाबा को रेप केस में सज़ा ना मिलती तो फिर यह सवाल भी ना उठता कि उनका चरित्र कैसा है। उनकी ताकत वैसी ही बनी रहती और हर रोज लोकतंत्र उनकी चौखट पर माथा टेकता रहता। लोकतंत्र को जनता के बजाय बाबाओं की ही सेवा करनी है तो सत्ता भी उन्हीं के हाथों में सौंप दें और खुद मुक्ति पा लें उनके चरणों में बैठकर। किस नेता और किस अभिनेता का गुरु नहीं है? कोई यथा बाबा पर भरोसा जताए बैठा तो कोई तथा पीर पर और फिर यूं होता है कि जिसके पास जितने भक्त, उतनी ही उसकी वाह-वाह। वोट लेने हैं तो राजा को भी उस चौखट पर माथा रगड़ना ही पड़ेगा।

सरकार के मंत्री दो दिन पहले तक बाबा का गुणगान कर रहे थे, चढ़ावा चढ़ा रहे थे। बात अच्छे या बुरे बाबा या पीर की नहीं है, बात यह है कि क्या लोकतंत्र इसी का नाम है कि आप वोटों के लालच में बेचारे लोकतंत्र को भी किसी गुरु, किसी बाबा या किसी पीर के खूंटे पर बकरे की तरह बांध दें? बाद में जब आप वो खूंटा तोड़े तो लोकतंत्र में भगदड़ ज़रूर होगी, फिर एक बाबा छीन लो या दस।

धर्म की व्यवस्था में कभी बाबाओं की कमी नहीं होगी। कोई चन्द्रास्वामी, कोई नित्यानंद, कोई आसाराम या रामपाल खड़ा होता रहेगा। राजनीति भी उनके कदमों में झुकती रहेगी। जिस दिन लोगों को यह ज्ञान हो जाएगा कि सुख-दुःख परेशानी यह सब जीवन का हिस्सा है और चलता रहेगा, परेशानी सबके जीवन में आती है, भगवान राम ने भी 14 वर्ष इसमें भोगे, अब हम भी तैयार हैं- उस दिन लोग इन सबसे स्वत: मुक्त हो जाएंगे।..राजीव चौधरी

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