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फिल्म निर्माता निर्देशक रामगोपाल वर्मा से लेकर कई सारे लोग रियो ओलम्पिक में भारत को मिले दो पदको को लेकर विवादित टिप्पणी लिए घूम रहे है, तो वहीं सनल कुमार शशिधरन जैसे लोग थूक भी रहे है| हो सकता है इन लोगों की यह कोई मानसिक वृति हो! पर असलियत में देश इन बेटियों की जीत पर प्रसन्न होकर नाच रहा है| बस वो लोग ज्यादा दुखी दिखाई दिए जा रहे है जो लड़कियों की चाल और कपड़े की नाप से संस्कृति का क्षेत्रफल नापते हैं, जो हदें बनाते हैं उनके होने की, उनके जीने की| परेशान है वो जिनको उनके उछलने से सभ्यता दरकती दिखाई देती है| शायद इस सोच से अपने देश की महिलाएं वर्षो से लड़ भी रही है| मैं कोई कलयुग की भागवत कथा नहीं कहता कि मसाला मिलाता-मिलाता लोगों को आनंद में सराबोर कर दूँ| नहीं! बस एक चर्चा है जो होनी चाहिए वरना ओलम्पिक के 2 पदकों की वाह-वाह में सच की वो आह दब जाएगी जो घुटन लेकर जी रही है| जैशा प्यासी होकर भी मैराथन में भागी, साइना घुटने में चोट थी पर इसके बावजूद भी खेली। साक्षी जीत गयी, देश की बेटी जीत गयी| पर अचानक शोर मचा नहीं यार वो जाट की बेटी थी| जब वो बेटियां खेल रही थी इस देश के लोग ही थे जो इन्टरनेट उनकी जाति तलाश कर रहे थे शायद बेशर्मी की इससे बड़ी मिसाल किसी और देश में ना मिले? इस काम में गोल्ड मेडल मिलना चाहिए ना? सिंधू हार कर भी जीत गयी भले ही सिल्वर पदक मिला हो! किसी ने सिंधू की जीत पर थूका तो किसी ने साक्षी पर धार्मिक टिप्पणी की| शायद लोग भूल जाते है कि हार जीत तो युद्ध हो या हर एक खेल का उसका हिस्सा होता है| ये तो ओलम्पिक था यहाँ कोई हारता है तो कोई जीतता है, मगर सब वो खिलाड़ी सम्मानीय है जो ओलंपिक जैसे स्थान तक पहुँचते हैं।
लड़के ही क्यों, कुछ लड़कियां भी सोच रही होगी! पता नहीं कैसे घरवाले होते है इन महिला खिलाडियों के बड़ा पत्थर का जिगर होता होगा उनके घरवालों का जो अनजान लोगों के साथ अपनी लड़कियों को विदेश में खेलने भेज देते है| हमें तो हमारे घरवाले मामा- फूफा व् अन्य रिश्तेदारी में भी अकेली नहीं जाने देते| हम तो दसवीं के बाद इस वजह से घर बैठा लिए थे कि आगे का स्कूल पडोस के गाँव या शहर में था| दरअसल भारत जैसे देश में एक लड़की के रूप में जन्म लेकर दो पदक झटकना कोई मामूली बात नहीं है| उस देश में जहाँ साल दो साल से भी कम उम्र की बच्चियां भी कभी कभी दरिंदो की वासना का शिकार हो जाती है,| जहाँ लाखो लड़कियां पैदा होने से पहले गर्भ में में ही मार दी जाती हो!, जहाँ एक लड़की को स्कूल जाने के लिए मिन्नते करनी पड़ती हो| आमतौर पर हमारे भारतीय परिवेश में एक लड़का जब घर से खेलने जाता है तो उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होता यदि उसका खेल की तरफ झुकाव है तो ज्यादातर परिवार उसे सहारा देते दिखाई देते है| किन्तु जब ग्रामीण परिवेश में रहने वाली एक लड़की इस फैसले के बारे में सोचती है तो उसका मन सबसे पहले ये सवाल करता है कि पता नही घरवाले मानेंगे या नहीं? क्योकि जिस समाज में लड़की को पैरो से बिना आवाज किये चलना सिखाया जाता हो, उसे बताया जाता हो धप-धप की आवाज किये बिना चलना है| उसे नजरें कितनी उठाकर बात करनी है, हँसना है कितनी जोर से हँसना है| जिस देश में लड़कियों के लिए यह आदर्श मापदंड बनाया गया हो कि मर्दों के खाना खाने के बाद उसे खाना है| झाड़ू लगाते समय गले को चुन्नी से कितना ढकना है, सूट का आगे से गला इतना, और सलवार की मोहरी के साथ सूट का पल्लू कितना होना चाहिए, कुल्हे से इतना नीचे पल्लू का कट तक तय किया जाता हो| जहाँ उसे पुरुष की मर्दानगी में झुलसना पड़ता हो, उसे सिखाया जाता हो कि चूल्हे से आगे सोचना उसके लिए बेकार है| जहाँ उसे घर का कोई काम मना करने पर कभी भाई का मुक्का तो कभी माँ बाप की झिड़क खानी पड़ती हो! भला उस देश में उसका उछलना, कूदना छोटे कपडे पहनना कोई कैसे स्वीकार करेगा? इसके बाद भी वो सोचती है यदि पापा मान गये तो दादा-दादी, माँ मान गयी तो ताऊ या चाचा-चाची इन सबकी स्वीकृति भी लेनी पड़ती हो| इसके बाद भी प्रश्न समाप्त नहीं होते| फिर बात आती है कहाँ और किसके साथ खेलेगी? कोच कौन होगा? किसके साथ रहेगी? किसके साथ आएगी जाएगी? पडोस क्या कहेगा, आदि आदि प्रश्न भी खड़े होते है| इसके बाद यदि सब मामले ठीक-ठाक सुलझ जाये तो उसे परिवार की इज्जत मान का मांझा एक घोषित सामाजिक क्षेत्रफल में पकड़कर उड़ना पड़ता है|
शुक्र है ईश्वर का दोनों गर्भ से बचकर रियो तक पहुंची वरना भारतीय दल खाली हाथ उल्टा लौटता| साक्षी और सिंधु दोनों बधाई की हकदार है। दोनों का धन्यवाद् इस देश के लोगो को एक सीख देने के लिए कि औरतों को चूल्हे चौके में मत रखो, उसे हिम्मत दी जाये उसका शोषण बंद हो तो वो देश के लिए पदक भी जीत सकती है| अब लोगों को सिंधू के गले में लटके चांदी और साक्षी के तांबे पर अपना हक जताने और उसे देश की बेटी कहने से पहले, हर उस बेटी को भी स्वीकार करना होगा जिसके जिस्म से सरेआम कपड़े उतार लिए जाते हैं। जो हर रोज बस ट्रेन भीड़ में अपने अंगो पर कसी फब्तियों से खरोंची जाती है|सालों से अपने अस्तित्व के लिए लड़ती इन बेटियों की मेहनत पर, अगर अपनी इच्छाओं की रोटियां सेक ही रहे हो तो उन बेटियों को भी सम्मान व न्याय दिया जाना चाहिए, जो रेप का शिकार हुई आज कमरे के कोने में दुबककर साक्षी, सिंधू के सम्मान के आयोजन को लाइव देख रही है, नारी शक्ति पर बड़े-बड़े भाषण सुन रही है| इस देश के लोगों को एक महिला से प्रेम भी चाहिए, साथ में बच्चें भी, वो ही अच्छी तरह घर में झाड़ू पोछा करे और सबके जूते भी साफ करें, वो मार भी खाए पर आह ना करें| वो अपने चरित्र की रक्षा करते हुए मेडल भी जीत कर लाये इस देश में स्त्री का चरित्र कहाँ होता है घुटनों से ऊपर और पेट से निचे के स्थान को चरित्र का केंद्र समझा जाता इस स्थिति से पार पाकर यदि कोई लड़की ओलम्पिक जैसे महा मुकाबले के लिए देश की तरफ से क्वालीफाई करती है यही बहुत बड़ा सम्मान और गर्व है और यदि पदक जीत ले ये उस नारी की गौरव गाथा है| अब चाहें इसे शीश नवाकर स्वीकार करे या हलक में ऊँगली डलवाकर निर्णय हमारा है!! राजीव चौधरी
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