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लोकतंत्र तो हैं पर विरोध प्रदर्शन का मंच कहाँ है

लिखा रेत पर
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अपनी बात जनप्रतिनिधियों तक पहुँचाने के लिए  जन्तर-मंतर पर अब आवाज उठाकर प्रदर्शन नहीं कर सकते। सुना है 6 अक्टूबर से ही सरकारी शांति इस विरोध प्रदर्शन के शोर के खिलाफ है।

सेंट्रल असेम्बली बमकांड की घटना  को भले 88 साल गुज़र गए हों किन्तु इस घटना के बाद के भगतसिंह के वाक्य आज भी लोगों के ज़हन में गूंजते हैं कि बहरी सरकार को सुनाने के लिये धमाकों की आवाज़ की आवश्यकता होती है। हालांकि बम असेम्बली में खाली स्थान पर ही फेंका गया था। इस बमकांड का उद्देश्य किसी की हत्या या हानि पहुंचाना नहीं था बल्कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे लोगों तक अपनी बात पहुंचाना था। हालांकि तब देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था, आज हम स्वतंत्र है और शांति पूर्ण तरीके से अपनी बात अनेकों माध्यमों से सत्ता के कानों तक पहुंचा सकते हैं।

कहा जाता है लोकतंत्र में ना कोई राजा होता, न कोई प्रजा। बल्कि कुछ समय के लिए चुने हुए जनप्रतिनिधि होते है तो विरोध करना और अपनी बात रखना लोकतंत्र में मौलिक अधिकार बनता है तो भला इसे कोई कैसे छीन सकता है? हो सकता है इतने ज़्यादा धरने-प्रदर्शन देखकर राजनेता निराश हो गये हो पर बड़े बुजुर्ग कहते कि ये धरने प्रदर्शन का अंदाज ही किसी भी लोकतंत्र को जिंदा रखने में दवा का काम करता है. देश के सभी बड़े-छोटे नेताओं को चाहिए कि इस विषय पर साथ बैठकर चर्चा करें लेकिन सवाल यह है ऐसे मुद्दों पर आजकल साथ बैठ कौन रहा है?

हमारे ग्रामीण अंचलों में एक कहावत है कि बिना रोए तो मां बच्चें को दूध भी नहीं पिलाती, इसी तरह लोगों की दिक्कते-परेशानी सरकारें बिन धरने प्रदर्शन के पूरी कर दे तो वो लोग प्रदर्शन ही क्यों करें? सरकार और नागरिक का रिश्ता बड़ा ही नाज़ुक होता है। विश्वास का भी होता है और अविश्वास का भी। समर्थन का भी होता है और विरोध का भी, मांग का भी होता है और इनकार का भी। एक परेशान नागरिक के तौर पर आप एक बार सड़क पर उतरकर देखिये आपको स्वयं ज्ञान होगा कि देश की अनेकों सरकारी संस्थाएं वाकई कितनी असंवेदनशील हो गई हैं।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी और वहां अपनी बात रखने की कोई जगह नहीं! मैंने कहीं पढ़ा था कि हमारी दिल्ली लंडन के हाइड पार्क या अमेरिका  के  व्हाइट हाउस जैसी क्यों नहीं हो सकती? देश की राजधानी दिल्ली में आखिर ये क्या हो रहा है? प्रदर्शनों के लिए जंतर-मंतर बंद, संसद मार्ग बंद, वोट क्लब बंद, नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के सामने नारे लगाने का सवाल ही नहीं, कोई प्रधानमंत्री तक, सरकार तक अपनी आवाज कैसे पहुंचाए?

लोकतंत्र हमेशा सरकारों को मंच देकर सुनता आया है इसलिए अगर लोकतंत्र जीवित रखना है तो सुनना बंद मत कीजिये, ये कोई विरोध शोर नहीं अपितु ये विरोध ही लोकतंत्र के गीतों से सजी वो थाल है जिनसे हमेशा सत्ता के ललाट पर तिलक होता आया है। आपने भी किया, आगे आने वाले भी करेंगे! कालिदास की प्रमुख कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम का प्रसंग है कि जब माता गौतमी आधी रात में दुष्यंत के महल के बाहर पहुंचती हैं और सैनिक से पूछती हैं क्या में इस समय राजा दुष्यंत से मिल सकती हूं तो सैनिक कहता है अवश्य “माता” एक नागरिक होने के नाते ये आपका मौलिक अधिकार है आप घंटा बजाइए, सोता हुआ दुष्यंत महल से बाहर ज़रुर आएगा। वो तब का लोकतांत्रिक भारत था, लेकिन पिछले दिनों तमिलनाडु के किसान अपनी मांगों के नाम पर नग्न होकर, चूहे खाकर, मृतक किसानों की खोपड़ियां लेकर प्रदर्शन करते रहे, अपनी बात रखने के लिए अपनी मांगों का घंटा बजा रहे थे लेकिन मिलने, सुनने कौन आया?

एक लोकतंत्र ही तो है जो स्वीकारता है इस देश की विविधताओं को, अनेको संस्कृतियों के समागमों को, विभिन्नताओं को, अलग-अलग भाषाओं और धर्म-सम्प्रदायों समेत विरोध और पक्ष के सभी सुरों को, केवल मतदान करने और सरकार बना लेने भर से एक नागरिक का लोकतांत्रिक कर्तव्य पूरा नहीं होता बल्कि उसका असली संघर्ष सरकार बनने के बाद शुरू होता है जब वह अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने खड़ा होता है। इसलिए उसने आपको चुनकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाई अब उसे विरोध और प्रदर्शन का मंच देना भी आपकी नैतिक ज़िम्मेदारी है।

इराक से जाकर कुर्द लोग अमेरिका की नीति के खिलाफ व्हाइट हाउस के बाहर प्रदर्शन कर सकते है, म्यांमार में रोहिंग्या शरणार्थी संकट के विरोध में, अलग बलूचिस्तान की मांग को लेकर या गुआंतानामो बे स्थित जेलों को बंद करने की मांग को लेकर मतलब विरोध कहीं का हो, मांग कोई भी हो दुनिया के किसी भी विरोध प्रदर्शन से व्हाइट हाउस को कोई ऐतराज नहीं है। नई दिल्ली को चाहिए कि वो विरोध प्रदर्शनों के लिए जगह के साथ ही उन्हें तमाम सुविधाएं भी दे। लोगों के मन की सुने ताकि वो भी आपके मन की बात इतनी ही तल्लीनता से सुन सकें, लोकतंत्र की ताकत है शांतिपूर्ण तरीके से विरोध। इसे कमजोर नहीं करना चाहिए। खुलकर बोलिए क्योंकि डर लोकतंत्र को मारता है। ये विरोध ही लोकतंत्र का असली घंटा है बजाते रहो, हिंदी के कवि दुष्यंत कुमार ने लिखा है कि

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूं, तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूं, ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूं।

राजीव चौधरी

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