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विचारक – एक कहानी

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गर्मियाँ अपने पूरे ज़ोर पर थीं। कपड़े पहनना भी जब समस्या बन जाये – ऐसी गर्मी। ऐसी ही एक शाम थी। सूरज उतार पर जरूर था पर राहत न थी। हवा भी ठहर सी गई थी। मानों दोनों मिल गए हों। ऐसे में एक क्षीण काया रुक-रुक कर चली जाती थी। उम्र अपने को अधिक बताने के लिए मानो व्यग्र हो।

 

 

“आज किसी तरह से जल्दी घर पहुँच जाऊँ। सच, मैं अपनी ज़िंदगी में कुछ न कर सका। बच्चों को अच्छा खिला-पिला पाता तो भी चलता। लेकिन मैं भी क्या करूँ ?

इतना सब तो करता हूँ। छोटी सी नौकरी में होता भी क्या है ?”

 

 

रामेश्वर दयाल आज गहरे सोच में था। क्या-क्या सपने देखे थे। सब ख़त्म हो गए। बेचारा … । वैसे वह आदमी अच्छा था । दीन दुनिया से कोई खास मतलब नहीं, कोई दो रोटी माँग ले तो देने में कोई खास संकोच भी नहीं। लेकिन ऐसे लोग दुनिया में सुखी नहीं देखे गए, यही हाल यहाँ भी था।

 

 

रामेश्वर के घर पर पत्नी और तीन बच्चे थे। दो लड़कियाँ और एक लड़का। लड़का सबसे छोटा था । रामेश्वर ने बड़ी कोशिश की कि लड़के को शहर के अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिला मिल जाए; लेकिन ऐसा न हुआ। होना भी न था। बाद में रामेश्वर सोचने लगा कि चलो अच्छा ही हुआ । इतने पैसे कहाँ से आते जो हर महीने भारी भरकम फीस भरी जा सकती । और इस तरह लड़का शहर के सरकारी स्कूल पहुँच गया। लड़कियों की पढ़ाई कम बल्कि घर पर अचार बनाने के काम में माँ का हाथ बँटाना ज्यादा होता था। उन दोनों का नाम भी सरकारी स्कूल के रजिस्टर में किसी पन्ने पर लिखा ही था।

 

 

आज रमेश्वर की साइकल खराब हो गई थी। ऐसे में उसे पैदल ही घर लौटना था। इतनी गर्मी में रिक्शा करने की बात मन में आई तो रामेश्वर की जेब ने मना कर दिया।

 

 

“लोग पता नहीं कहाँ से इतना पैसा ले आते हैं ? उस वी॰  के॰  को ही देखो … साल भर पहले यहाँ बदली हुई थी। जमीन खरीद ली है और अब मकान बनवाने की सोच रहा है। जरूर यह सब कुछ गड़बड़ कर रहे हैं। ये पसीना तो बस, उफ ! हवा पता नहीं कहाँ मर गई ! अमरीका वाले यूँ ही आगे नहीं बढ़ गए – सुना है वहाँ ठंड और बस कम ठंड, यही होता है मौसम का हाल । इस देश का कुछ नहीं हो सकता। अरे- अरे, देखो अब यह ट्रक वाला, उसकी चले तो ऊपर ही चढ़ा दे….।”

 

जान बची तो विचार आगे बढ़े … “अरे वाह, क्या मस्त कार है! अपनी ज़िंदगी में तो मिलने से रही। हूँ … क्यों न मैं कुछ धंधा कर लूँ….! लेकिन पैसे – पैसे कहाँ से आएँगे ? आज के जमाने में शादी की होती तो दहेज में माँग लेता। तब तो मुँह बंद रखा और ससुर जी भी चुप रहे। मैं कभी कुछ सही समय पर कर ही नहीं पाता ….! किस्मत में ही खोट है।”

 

 

दुनिया के सारे तंग हाथ वालों को सोचने की बीमारी हो जाती है। यही बात रामेश्वर के संग भी थी। जब वह साइकल पर चलता तो सोचते हुए, और जब पैदल तब तो कहना ही क्या। वह एक विचारक था और उस जैसे इस देश में करोड़ों थे और रहेंगे।

 

 

तभी विचारों की धारा रुकी। कोई चीज़ पैर से टकराई थी। रामेश्वर ने रुक कर देखा तो एक मोटा सा पर्स नीचे पड़ा था। उसने झट से उठा लिया। खोलने का लोभ वह संवरण न कर सका । लेकिन यह क्या … पर्स तो खाली था! “भाग्यहीन नर कछु पावत नहीं …”

 

 

रामेश्वर न दुखी था न सुखी । आज गीता का ज्ञान प्रकट था। “चलो किसी का नुकसान नहीं हुआ। नहीं तो मुझे अभी इसे लेकर थाने जाना पड़ता । लेकिन अब इस पर्स का क्या करूँ? पर्स खाली है तो क्या हुआ – है तो अच्छा । फेंकने पर कोई क्या सोचेगा ? अभी तो सब यही समझ रहे होंगे कि यह मेरा ही है। तभी तो मैंने इसे उठाया। लेकिन वह लड़का मेरी तरफ क्यों देख रहा है ? जरूर उसने मुझे पर्स उठाते हुए देखा होगा …! अब क्या करूँ ? कमबख्त टक-टकी लगाए देखता ही जा रहा है। आगे नाला पड़ेगा तब वहाँ इस पर्स को धीमे से टपका दूंगा। हाँ, … यही ठीक रहेगा।”

 

 

और इस तरह से रामेश्वर पर्स से मुक्ति पा गया। सच वह कितना शांत लग रहा था। शायद उसका घर आ गया था। उसने हाथ से माथे का पसीना पोंछा, अपने आप को सीधा किया और अपने मकान की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा …।

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