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आखिर भारत और विदेशी कारपोरेट सेक्टर के दबाब में भारत सरकार ने खुदरा व्यापर में विदेशी निवेश को मंजूरी दे ही दी. यह कहना कठिन है की मनमोहन वास्तव में आर्थिक सुधारो को लागु करने के लिए प्रतिबद्ध है या वाशिंगटन पोस्ट में लगी फटकार के बाद उन्हें आर्थिक सुधारों को आगे ले जाने की याद आई. या कोयला घोटाले से ध्यान हटाने के लिए मनमोहन ने यह मोहिनी मन्त्र चलाया है. खेद की बात है की भारत के औद्योगिक घराने भी भारत के खुदरा व्यापर को हड़पने की फिकर में है. ये औद्योगिक घराने अब परचूनी बनने चले है. भारत के पांच लाख करोड़ के खुदरा व्यापर पर विदेशी व्यापारिक समूह कब्ज़ा करना चाहते है. पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी खुद आई थी अब अनेकों ईस्ट इंडिया कम्पनियों को सरकार द्वारा सम्मान पूर्वक बुलाया जा रहा है. सरकार कह रही है की इससे रोजगार मिलेगा. शायद कुछ हजार लोगों को रोजगार मिल जाये किन्तु करोड़ों फुटकर व्यापारी और उनके कर्मचारी बेरोजगार हो जायेंगे. रिटेल में एफडीआई भारतीय व्यापरिक परिस्तिथियों के अनुरूप नहीं है. इससे मात्र औद्योगिक घरानों को ही फायदा होगा, किसानो और अन्य लोगो को नहीं.
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