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हमारे प्राइमरी स्कूल / हमारी प्राथमिक शिक्षा

सोचिये-विचारिये
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स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यूं तो देश में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है, किन्तु यह प्रगति सरकारी स्तर पर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में और माध्यमिक तथा प्राइमरी शिक्षा में निजी क्षेत्र में ही हुई है. प्राइमरी शिक्षा में सरकारी स्कूलों का स्तर तो आज़ादी के बाद के समय से वर्तमान में रसातल में पहुँच चुका है. प्राथमिक शिक्षा के सरकारी स्कूलों, जिन्हें प्राइमरी अथवा परिषदीय स्कूल कहा जाता है, की वर्तमान दशा आज दयनीय है. वहां ना तो बच्चों के बैठने को पर्याप्त फर्नीचर है और ना ही पढने के लिए उपयुक्त भवन. इन स्कूलों में बच्चों को स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था नहीं होती और ना ही साफ़ सुथरे शौचालय. सरकारी स्कूलों में पढने वाले इन बच्चों को सरकार की तरफ से किताबें, ड्रेस, दोपहर का भोजन और ना जाने क्या क्या उपलब्ध कराया जाता है, किन्तु सब जानते है की इनमे से चौथाई सुविधाएँ भी सरकारी स्कूलों के बच्चों को नहीं मिल पाती हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा है, जो इन सरकारी स्कूल के बच्चों को मिल ही नहीं पाती. अब इसकी वजह शिक्षकों का स्कूल में ना आना भी हो सकती है, पढाई का नीरस होना भी हो सकता है और बच्चों का स्वयम ही पढाई के प्रति अरुचि भी हो सकता है.
इसके आलावा यहाँ पढ़ाने के लिए नियुक्त अध्यापक/अध्यापिकाएं भी पढ़ाने के अतिरिक्त सब कुछ करते है. कभी इन्हें जनगणना में लगाया जाता है, कभी चुनावों में ड्यूटी लगायी जाति है और इन सब बेगारों से बचा हुआ समय ये लोग शिक्षक संघों की बैठकों और राजनीती करने में लगते है. उत्तर प्रदेश में तो शिक्षक विधायक के लिए विधान परिषद् में कुछ सीटें आरक्षित है इसलिए शिक्षकों की राजनीती फायदे का सौदा भी है. ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ परिवहन की उचित सुविधाएँ नहीं है, उन क्षेत्रों में नियुक्त शिक्षक तो ड्यूटी पर जाना ही नहीं चाहते है. ऐसे शिक्षक या तो क्षेत्रीय अधिकारी से अपनी “सैटिंग” रखते है और या अपना राजनैतिक प्रभाव दिखा कर घर बैठे ही हाजिरी लगवा लेते है.
सरकारी स्कूलों के अध्यापक/अध्यापिकाओं की मनमर्जी और स्कूली भवनों की दुर्दशा तथा अन्य सुविधाओं के आभाव में देश का निम्न माध्यम वर्ग अपने बच्चों को गली मोहल्लों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये निजी स्कूलों में स्कूलों की हैसियत से ज्यादा फीस देकर पढ़ाने को मजबूर है. निजी क्षेत्र के इन स्कूलों के पास भी बहुत अच्छे भवन और अन्य सुविधाएँ नहीं होती किन्तु दिखावा कर ये अविभावकों को फुसलाने में सफल हो जाते है. यहाँ अविभावकों की जमकर लुटाई होती है. ड्रेस किताबें टाई बेल्ट जूते सभी कुछ या तो स्कूल में ही मिलता है और या स्कूल द्वारा बताई गयी दूकान पर. इन स्कूलों में भी बच्चों को ज्ञान ना बाँट कर रट्टा लगाना सिखाया जाता है. सरकारी प्राइमरी स्कूलों में अध्यापक/अध्यापिकाएं का वेतन ३५/४० हजार होता है तब भी वे नहीं पढाते किन्तु निजी क्षेत्र के इन कथित पब्लिक अथवा कोंवेन्ट स्कूलों में अध्यापक/अध्यापिकाएं 1000 अथवा 1500 के वेतन में भी बच्चों को जमकर रट्टा लगवाते है.

प्राइमरी शिक्षा के सरकारी स्कूलों में सुधार का क्या तरीका है??
सरकारी क्षेत्र के प्राइमरी स्कूलों की व्यवस्थाओं में सुधार के लिए किसी समय यह मांग उठी थी की प्रशासनिक अधिकारीयों के बच्चों को इन स्कूलों में ही शिक्षा लेना अनिवार्य कर दिया जाय. यह माना जा सकता है की इस व्यवस्था के उपरान्त ये अधिकारी इन स्कूलों में रूचि लेना शुरू कर देंगे और व्यवस्थाएं सुधर जाएँगी. किन्तु यह व्यवस्था व्यावहारिक प्रतीत नहीं होती. इसके स्थान पर इन स्कूलों के सोशल ऑडिट की व्यवस्था अधिक कारगर साबित हो सकती है. जिस क्षेत्र में स्कूल स्थित हो वहाँ के सामाजिक लोगो की एक समिति बनाई जाए जिसका कार्यकाल तीन वर्ष का हो. इस समिति में राजनितिक व्यक्ति ना हों तो बेहतर होगा. सरकारी स्तर से उस स्कूल को कितनी सुविधाएँ और शिक्षण सामिग्री मिल रही है इसकी पूरी सूचना इस समिति को नियमित तौर पर भेजी जाये और यह समिति उसके सदुपयोग को सुनिश्चित करे. विद्यार्थियों में बटने वाले दोपहर के भोजन की देखरेख भी यही समिति करे. विद्यालय के अध्यापक/अध्यापिकाओं की उपस्थिति पंजिका की जांच औचक रूप से इस समिति के सदस्यों द्वारा की जानी चाहिए. इस समिति की हर तीन माह में समीक्षा बैठक हो जिसके सूक्ष्म सम्बंधित शिक्षा अधिकारी और जिलाधिकारी के पास आवश्यक रूप से भेजे जाये. समिति के सदस्यों को दूसरा लगातार कार्यकाल ना मिले. इसके आलावा अविभावक शिक्षक गोष्ठी का हर दुसरे माह कराया जाना भी स्कूलों के अच्छे सञ्चालन में मदद कर सकता है. शिक्षा विभाग के अधिकारीयों, उच्च अधिकारीयों और स्कूल की सोशल ऑडिट कमेटी के सदस्यों के नाम एवं फोन नम्बर पते सहित हर स्कूल में आवश्यक रूप से लिखे होने चाहिए, जिससे अविभावक स्कूल में गड़बड़ियों की शिकायत कर सकें. जिलाधिकारी इस समिति के कार्यों पर निगाह रखें और अच्छे प्रदर्शन के लिए समिति के सदस्यों को वार्षिक आधार पर स्वतंत्रता दिवस अथवा गणतंत्र दिवस पर सम्मानित किया जाये. ऐसे ही कुछ प्रयासों से देश भर के सरकारी स्कूलों की दशा में पर्याप्त सुधर लाया जा सकता है, जिससे देश के आम नागरिक को अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के लिए निजी क्षेत्र के महंगे स्कूलों पर निर्भर ना रहना पड़े.

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