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अब डाक्टर नहीं रहे भगवान !

जनवाणी
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भगवान के बाद धरती पर अगर कोई भगवान है तो वह है डॉक्टर। मगर पिछले कुछ दिनों में लापरवाही की कुछ खबरों की वजह से यह पेशा सवालों से घिरता नजर आ रहा है। ज्यादातर डाक्टरों ने अब सेवाभावना को त्यागकर इसे व्यापार बना लिया है, उन्हें मरीज के मरने-जीने से कोई सरोकार नहीं है, वे जिन्दा मरीज तो दूर, लाश के पोस्टमार्टम करने का भी सौदा करते है। डाक्टरों के लिए आज पैसा ही सबकुछ हो गया है। वहीं कुछ ऐसे चिकित्सक भी है, जिन्होंने मरीजों की सेवा और उनकी जिदंगी की रक्षा को ही अपना मूल उद्देश्य बना रखा है। वे अपने इस मिशन में आगे बढ़ते जा रहे हैं।

इस मुद्दे पर बात इसलिए की जा रही है, क्योकि एक जुलाई को भारत देश में डाक्टर्स डे मनाया जाएगा। दरअसल, भारत में डॉ. बीसी रॉय के चिकित्सा जगत में योगदान की स्मृति में एक जुलाई को डॉक्टर्स डे मनाया जाता है। वहीं अमेरिका में ‘डॉक्टर्स डे’ की शुरूआत चिकित्सक के पेशे के सम्मान में जॉर्जिया निवासी डॉ. चार्ल्स बी आल्मोंड की पत्नी यूडोरा ब्राउन आल्मोंड ने की थी। वहा पहली बार 30 मार्च 1930 को ‘डॉक्टर्स डे’ मनाया गया। इस दिन जॉर्जिया के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ क्राफोर्ड डब्ल्यू लौंग ने ऑपरेशन के लिए पहली बार एनेस्थीसिया का इस्तेमाल किया था। इतिहास पर गौर करे तो, पहले डाक्टरों को भगवान माना जाता था। धरती पर अगर कोई भगवान कहलाता था, वह डाक्टर ही था। लोग डाक्टर की पूजा करते थे, आखिर पूजा करते भी क्यों नहीं। डाक्टर, जिंदगी की अंतिम सांस ले रहे व्यक्ति को फिर से स्वस्थ्य जो कर देते थे। पहले डाक्टरों में मरीज के प्रति सेवाभावना थी। मगर बदलते परिवेश में आज डाक्टर, भगवान न होकर व्यापारी बन गया है, जिसे मामूली जांच से लेकर गंभीर उपचार करने के लिए मरीजों से मोटी रकम चाहिए। पैसा लिए बिना डाक्टर अब लाश का पोस्टमार्टम करने के लिए भी तैयार नहीं होते। वे मृतक के परिजनों से सौदेबाजी करते है, और तब तक मोलभाव होता है, जब तक पोस्टमार्टम के एवज में डाक्टर को मोटी रकम न मिल जाए। मुझे आज भी वह दिन याद है, जब छत्तीसगढ़ के कोरबा शहर की पुरानी बस्ती निवासी एक गर्भवती महिला अपने पति के साथ गरीबी रेखा का राशन कार्ड लेकर इंदिरा गांधी जिला अस्पताल पहुंची, जहां मौजूद महिला चिकित्सक पूनम सिसोदिया ने जांच करने के बाद आपरेशन करने की बात कहते हुए महिला के पति से 10 हजार की मांग की तथा उसे अपने निजी क्लिनिक में लेकर आने को कहा। तब महिला के पति ने अपनी बदहाली की दास्तां रो-रोकर सुनाई, लेकिन उस डाक्टर का दिल तो पत्थर का था। उसने एक न सुनी और पैसे मिलने के बाद ही उपचार शुरू करने बात कही। इस चक्कर में काफी देरी हो गई और नवजात शिशु दुनिया देखने से पहले ही अपनी मां के गर्भ में घुटकर मर गया। डाक्टरों की बनियागिरी यही खत्म होने वाली नहीं है। दो दिन पहले ही उसी अस्पताल में पदस्थ एक चिकित्सक ने पोस्टमार्टम के लिए मृतक के परिजनों से सौदेबाजी की। ऐसे कई मामले है, जिसको याद करने के बाद डाक्टर शब्द घृणा लगता है। बदलते परिवेश में डाक्टर अब भगवान कहलाने के लायक नहीं रह गए है। उन्हे मरीज की जिंदगी से नहीं, बल्कि रूपए से प्यार है। अब उनमें समर्पण की भावना भी नहीं रह गई है, वे मरीजों से लूट-खसोट करने से बाज नहीं आते हैं। कई चिकित्सक तो फीस की शेष रकम लिए बिना परिजनों को मृतक की लाश भी नहीं उठाने देते।

हां, मगर कुछ चिकित्सक ऐसे भी है, जिन्होंने इस पेशे को आज भी गंगाजल की तरह पवित्र रखा हैं। वर्षो तक सरकारी अस्पताल में सेवा दे चुके अस्थि रोग विशेषज्ञ डॉ. जी.के. नायक कहते हैं दर्द चाहे हड्डी का हो, या किसी भी अंग में हो, कष्ट ही देता है। अस्थि के दर्द से तड़पता मरीज जब मेरे क्लीनिक में आता है तो मेरी पहली प्राथमिकता उसका दर्द दूर करने की होती है। दर्द से राहत मिलने पर मरीज के चेहरे पर जो सुकून नजर आता है, वह मेरे लिए अनमोल होता है। स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ रश्मि सिंह कहती हैं कि मरीज का इलाज करते-करते हमारा उसके साथ एक अनजाना सा रिश्ता बन जाता है। मरीज हमारे इलाज से स्वस्थ हो जाए, तो उससे बेहतर बात हमारे लिए कोई नहीं हो सकती। मरीज अपने आपको डॉक्टर के हवाले कर देता है, उसे डॉक्टर पर पूरा भरोसा होता है। ऐसे में उसके इलाज और उसे बचाने की जिम्मेदारी डॉक्टर की होनी ही चाहिए। डॉक्टरों द्वारा कथित तौर पर लापरवाही बरते जाने के बारे में बत्रा हॉस्पिटल के गुर्दा रोग विशेषज्ञ डॉ प्रीतपाल सिंह कहते हैं कि इलाज के दौरान किसी मरीज की तबियत ज्यादा बिगड़ने पर या उसकी मौत होने पर हमें भी पीड़ा होती है, लेकिन हम वहीं ठहर तो नहीं सकते। वह कहते हैं ’कोई भी डॉक्टर जानबूझकर लापरवाही नहीं करता। हां, कभी-कभार चूक हो जाती है, लेकिन मैं मानता हूं कि डॉक्टर भी इंसान ही होते हैं, भगवान नहीं। एक जुलाई को डॉक्टर्स डे मनाया जाता है। इसके बारे में डॉ. पी.के. नरूला कहते हैं अच्छी बात है कि एक दिन डॉक्टर के नाम है, लेकिन यह न भी हो तो कोई फर्क नहीं होता। खैर, चिकित्सकों को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास आज भी हो जाए तो, इस पेशे को बदनाम होने से बचाया जा सकता है।

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