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सियासी बबूल बो कर आम की उम्मीद क्यों ?

sach ke liye sach ke sath
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बबूल बो कर आम की उम्मीद क्यों ?
गुलामी से उबरने के बाद हमने लोकतान्त्रिक व्यवस्था चुनी। लोकतान्त्रिक व्यवस्था जनता की ,जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी इस आश्वस्ति ने अवाम को खुश किया। दुर्भाग्य देखिये की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोक हाशिये पर खड़ा है। तंत्र की चक्की में पिसता इस मुल्क का आम आदमी कार्यपालिका और विधायिका की रियाया की हैसियत में है। न्यायपालिका की कार्य प्रणाली ,बिलम्बित न्याय प्रक्रिया ने न्यायपालिका पर आम आदमी के विश्वास को आहत किया है।
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तंत्र के क्रूर पंजों में फंसे ,छटपटाते इस मुल्क के आम आदमी की स्थिति यह है की उसे खुद को जिन्दा साबित करने की जंग सालों -साल लड़नी पड़ती है और तंत्र की जांच जारी रहती है की खुद को जिन्दा बताने बाला जिन्दा है या नहीं?जीवित मृतक संघ की मौजूदगी ,हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तन्त्र के क्रूर एवं घिनौने रूप का आईना है। नौकरशाही से त्रस्त आम आदमी की अपने नुमाइंदों तक सीधी पहुँच एक टेढ़ी खीर है। जिसे उसने अपना नुमाइंदा चुना होता है वह लग्जरी गाड़ियों के काफिले में ,संगीन धारियों के घेरे में ,दलालों ,चाटुकारों से घिरा होता है। व्यवस्था से परेशान हाल हमारे लोकतंत्र का लोक आज हताशा की स्थिति में है।
जिस लोकतान्त्रिक व्यवस्था को हमारे संविधान ने अंगीकृत किया आज उस व्यवस्था में आम आदमी सबसे निरीह ,सबसे लाचार सबसे परेशान हाल है। इस हालत के लिए हमारी निर्वाचन प्रणाली तो दोषी है ही इस मुल्क का मतदाता भी कम दोषी नहीं है । दशक दर दशक हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का तंत्र मजबूती हासिल करता रहा और लोक कमजोर होता रहा। संविधान ने अवाम को वोट की जो ताकत दी जाने -अनजाने सियासी दांव -पेंच में फंस कर हमने वह ताकत खोई है। अवाम के सामने गुड ,बेटर ,बेस्ट का विकल्प उत्तरोत्तर लुप्त होता गया । धनबल ,बाहुबल ,गनबल का प्रभाव बढ़ा।
सत्ता की चाभी हथियाने के लिए बूथ कैप्चरिंग का प्रयोग शुरू हुआ। इस प्रयोग ने उन ताकतों में राजनैतिक महत्वाकांक्षा जगाने का काम किया जिनका उपयोग प्रत्याशियों ने चुनाव जिताऊ हथियार के रूप में करना शुरू किया था।उन ताकतों ने अपना महत्त्व समझना शुरू किया। जो ताकत किसी को चुनाव जीता सकती है खुद क्यों नहीं जीत सकती ?यहीं से राजनीती के अपराधीकरण का खुला खेल शुरू हुआ। कल तक जो अपनी ताकत का इस्तेमाल प्रत्याशियों के लिए किया करते थे वह खुद प्रत्याशी बन कर माननीय बनने लगे। चुनावी प्रक्रिया में माफिया ,अपराधियों का इस्तेमाल सियासत की मजबूरी हो सकती है परन्तु इस कोढ़ को पालने का अपराध तो हम मतदाताओं ने ही किया है।यदि मतदाता ने मताधिकार की अपनी ताकत का प्रयोग किया होता तब अपराधियों ,माफियाओं की जैसी सियासी भूमिका मौजूदा चुनावों में है कत्तई न होती। सियासी हमाम में इस मोर्चे पर सभी राजनैतिक पार्टियां नंगी हैं।
सियासत ने हमें जाति ,धर्म,क्षेत्र के आधार पर बांटा। साम -दाम ,दण्ड -भेद चाहे जैसे चुनावी मोर्चा फतह करने और इस मद में किये गए पूँजी निवेश की भरपाई ने आज राजनीती को धन वृष्टि करने बाला उद्योग बना डाला। त्रिस्तरीय चुनाव से लेकर संसदीय चुनाव तक में प्रत्याशियों की तरफ से शराब ,कबाब ,साड़ी के अलावा क्षेत्रीय क्षत्रपों की निगरानी में वोटों की खरीद फरोख्त का खेल खुल्लम खुल्ला होने लगा ।
सियासत ने अपने स्वार्थ साधने के लिए लोकतंत्र से खिलवाड़ करने का अपराध किया है इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र का जो चेहरा आज हमारे सामने है उसके जिम्मेवार हम भारत के लोग ही हैं। सियासत को कोसते समय हम भूल जाते हैं की सियासी बबूल के जो कांटे आज हमें चुभ रहे हैं वह सियासी बबूल बोया जरूर राजनेताओं ने परन्तु उसकी हिफाजत करने ,उसे खाद पानी देने का अपराध हमने भी किया है। बबूल बोने के बाद आम के फल की उम्मीद क्यों की जाए ?हमारा लोकतंत्र लूट तंत्र में तब्दील हो गया इसके लिए हम राजनीति ,राजनेताओं या व्यवस्था को कोसते समय यह भूल जाते हैं की बबूल बोया है तो उसमे आम तो फलेंगे नहीं। बबूल बोया है तो प्रतिफल में उसके झाड़ झंखाड़ और कांटे ही तो मिलेंगे।
लोकतंत्र की पुनर्बहाली के लिए हमें लोकतंत्र की पवित्र चादर से बदनुमा धब्बों को मिटाने ,लोकतंत्र की पवित्र चादर को छलनी करते धनबल ,बाहुबल ,गनबल ,माफिया बल के काँटों से बचाने की पहल करनी होगी।लोकतंत्र के लोक को संविधान ने मताधिकार की जो ताकत दी है उसे पहचानना होगा। लोकतंत्र के वर्तमान स्वरुप को हम श्री जय प्रकाश बागीश की इन पंक्तियों में देख सकते हैं –
कौन जीतेगा कौन हारेगा ,जो भी जीतेगा जान मारेगा
हम गरीबों का लहू सस्ता है ,ये भी गारेगा वो भी गारेगा !!

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