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ज़मीर जाग उठा

हंसी ठट्ठा
हंसी ठट्ठा
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***राजीव तनेजा***
आज बीवी बडा उछल रही थी…पूछने पर खत हवा में लहराते हुए बोली…”मामा जी का खत आया है और छुट्टियों में मुम्बई बुलाया है”
“मैँ सोच में डूब गया कि ‘क्या करें?….जाएं के ना जाएं?..मन तो कर रहा था कि मना कर दूँ…वजह?…खर्चा बहुत हो जाएगा।सात-सात बच्चों को लेकर मुम्बई जैसे महँगे शहर में जाना कौन सा आसान काम है?अभी सोच ही रहा था कि बीवी ने तसल्ली दी कि….”चिंता क्यों करते हो?”
“मैँ हूँ ना”…माननी पडी उसकी बात..आखिर!..घर में चलती तो उसी की ही थी ना।सो!…जाना पडा।मन ही मन सोचे जा रहा था कि बीवी वहाँ जा के पता नहीं क्या-क्या ‘तमाशे’ करेगी?…कौन-कौन से ‘गुल’ खिलाएगी?..लेकिन कुछ-कुछ बेफिक्र सा भी हो चला था मैँ..रग-रग से वाकिफ जो था उसकी।इसलिए गारैंटी तो थी ही कि किसी भी हालत में लेने के देने नहीं पडेंगे।फिर क्या था?…बस!…टिकट कटाई और चल दिये अपनी सात बच्चों की ‘पलटन’ ले आम्ची ‘मुम्बई ‘की ओर।पूरे रास्ते बीवी चहकती हुई मुझे सब समझाती जा रही थी कि..किस से?,…किस तरह? …और कैसे पेश आना है?…वगैरा-वगैरा।प्लानिंग के मुताबिक स्टेशन पर उतरते ही उसकी तबियत ने बिगडना था …सो!…अपने आप तबियत कुछ ना-साज़ हो चली थी उसकी।…”हाय!…मैँ मर गयी”….”हाय! मैँ मर गयी”…जो उसने कराहना शुरू किया तो फिर ना रुकी”
“मैँ आई ही क्यों?…पता होता कि सफर में इतनी दिक्कत होगी,तो हम आते ही ना”….हुकुम के गुलाम के माफिक मैँ चुप-चाप दीन चेहरा लिये उसकी ‘हाँ में हाँ’ मिलाता चला गया।”पूरे रास्ते उलटियाँ करते आए हैँ ये बेचारे”मेरी तरफ इशारा करते हुए बीवी बोली…”अब इनकी भी तबियत ठीक नहीं रहती न”…”लम्बा सफर सूट जो नहीं करता है इन्हे”…”लाख समझाया कि सेहत ठीक नहीं है ,सो!…इस बार रहने दें लेकिन ये माने तब ना”….कहने लगे “बहुत दिन हो गये मामा-मामी से मिले हुए…दिल उदास हो चला है”…”सुनते तो मेरी बिलकुल हैँ ही नहीं ना”… “उफ!…ऊपर से मैँ भी बिमार पड गयी”…”अब इनका ख्याल कौन रखेगा?”बीवी रुआँसी होती हुई बोली…”मामा जी!आप एक काम कर दें…
हमारा वापसी का टिकट कटवा दें”…”दिल्ली जाएंगे वापिस”,….”किसी तरह इनकी तबियत ठीक हो जाए बस”बीवी ऊपरवाले को हाथ जोड विनती करती हुई बोली….”फिर कभी आ जाएंगे आपसे मिलने”…”यहाँ रहे तो आप भी नाहक परेशान होते रहेंगे हमारे लिए”…
“इतना काहे को सोच रही हो?….सब ठीक हो जायेगा”मामी बोली
“नहीं!..हम आपको परेशानी में नहीं डालना चाहते और फिर डाक्टर ने ताकीद जो की है कि जब तक ये पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते…
तब तक इन्हें खालिस’ केसर वाले दूध’ और अनार के ‘जूस’ के अलावा कुछ नही”…”ये डाक्टर भी पता नहीं क्या-क्या परहेज़ बता डालते हैँ?…अब परदेस में भला अनार कहाँ से छीलती फिरूँगी?”
“हमारे होते हुए कैसी बातें करती हो?…चिंता ना करो…सब इंतज़ाम हो जायेगा”
“लेकिन…
“तुम बेकार में ही नाहक परेशान हो रही हो…सब चिंता छोडो और बस आराम करो”मामी बोली
“मुझे शर्म ना आएगी?…मैँ महारानी की तरह आराम से बिस्तर पे पड़ी रहूँ और आप नौकरानियों की तरह सारे काम करती फिरें”बीवी आहिस्ता से बोली….मानो अपना फर्ज़ भर अदा कर रही हो
“अब जब तबियत ठीक नहीं है तो आराम करना ही होगा ना?…तुम्हारी जगह अगर मेरी अपनी बेटी होती तो क्या उसे मैँ यूँ ही जाने देती?”
“जैसा आप उचित समझें”बीवी की छुपी हुई कुटिल मुस्कान को समझ पाना मामा-मामी के बस की बात कहाँ थी?…दिन भर तो बीवी ने कुछ खाया-पिया नहीं…बस!…सर पे पट्टी बाँधे ‘हाय-हाय’ कर कराहती रही और…रात को अन्धेरे में चुप-चाप ठूसे जा रही थी दबा के माल-पानी।
काम करने के नाम पे उसका सर…दर्द के मारे फटने को आता था लेकिन….खाते-पीते और घूमते-फिरते वक़्त एकदम टनाटन।अब इतने बावले भी नहीं थे हम…पता था कि कब तबियत ने ठीक होना है और कब ‘नासाज़।खूब खातिरदारी हो रही थी हमारी…खाओ-पिओ और मौज करो के अलावा कोई काम नहीं था हमें।जूहू…चौपाटी…बान्द्रा…पाली हिल…फिल्मसिटी.. कोई जगह भी तो हमने नहीं छोड़ी थी।बीवी दिनभर पलंग तोडते हुए गप्पें मारती…. और मैँ सोफे पे लदा-लदा…उसकी ऐसी-तैसी करते हुए कभी ये खा….तो कभी वो पी।मामा-मामी दोनों बेचारे…दिन-रात हमारी ही तिमारदारी में लगे रहते।अपने घर में तो सब चीज़ ताले-चाबी के अन्दर थी…तो यहाँ खुला मैदान देख बच्चों का मन भी डोल गया..बाल-सुलभ जो ठहरा….रहा ना गया उनसे…टूट पडे एक-एक आईटम पर मानो ऐसा मौका फिर हाथ नहीं लगने वाला।कोई ‘कप्यूटर’ से पंगे ले रहा था तो…कोई ‘डी.वी.डी’ प्लेयर का ही बंटाधार करने पे तुला था ….कोई उनकी मँहगी किताबों के कागज़ का इस्तेमाल ‘हवाई जहाज़’ बना उन्हें उड़ाने में कर रहा था
तो कोई टीवी रिमोट के साथ ‘टक-टक’ किए जा रहा था..कभी कार्टून नैटवर्क…तो कभी ‘आज तक’ …अपने बच्चे ‘सबसे तेज़’ जो थे…उनका महँगा वाला ‘मोबाईल फोन ‘तो पहल्रे ही दिन ‘कण्डम’ हो कूड़ेदान की राह तक चुका था और अपने छोटे वाले ने तो जैसे उनका कोई भी बिस्तर सूखा ना छोडने की कसम खाई हुई थी।इधर चद्दर बदली …उधर फर्र से ‘फौवारा’ चालू।खरबूजे को देख खरबूजे ने भी रंग बदल डाला…अपने टॉमी ने भी आँखे मूंद जोश में आ जो टांग उठाई…नतीजन…उनका ‘लैपटाप’ अपनी अंतिम सांसे गिन रहा था।खूब ‘चिल्लम-पों’ हो रही थी…जिसके जो जी में आए वही कर रहा था।अब तक हम सब मिलकर साफ-सुथरे घर की ‘वाट’ लगा चुके थे।कोई ‘रोकने-टोकने’ वाला जो नहीं था।मामा बडा दिलदार था सो कुछ नही बोला लेकिन मामी के चेहरे पे कई रंग आ-जा रहे थे।परंतु अपुन को इस सब से क्या?
ये तो वो ही सोचें..जिन्होने बिना सोचे समझे न्योता भेजा था।हमारी खातिर चूल्हे पर हर वक़्त देगची चढी रहती थी…हरदम नये-नये पकवानों की फरमाईश जो आती रहती थी हमारी तरफ से..कभी ‘पिज़्ज़ा’ तो कभी ‘गुलाब जामुन”…आवभगत तो हो रही थी अपनी…चाहे बुझे मन से ही सही।हमारे बढते हौसले देख एक दिन मामी के सब्र का बाँध टूटना था सो…टूट ही गया आखिर।
“बडे ही बेशर्म हैँ ये तो,…जाने का नाम ही नहीं ले रहे”…”हुँह!…बडे आए न्योता भेजने वाले…अब भुक्तो”
“बडा प्यार उमड रहा था ना अपने भांजे पर?”
“बाज़ुयेँ अकड गयी थी मिले बिना जनाब की”
“साँस अन्दर-बाहर नहीं हो रहा था ना?”
“करते रहो’सेवा-पानी’..मैँ तो चली मायके”
“तभी बुलाना वापिस…जब ये मुय्ये मुफ्तखोर दफा हो गए हों”
“मैँ दरवाज़े से कान लगाए चुप-चाप सुन रहा था सब।सर शर्म से पानी-पानी हुए जा रहा था…अब मामा-मामी से आँखे मिलाने की हिम्मत नहीं बची थी मुझमें।सर झुका आहिस्ता से बोला…”जी!…काफी दिन हो गये हैँ…अब छुट्टियाँ भी खत्म होने को हैँ…होमवर्क भी बाकी है बच्चों का”…
“सो!…अब चलेंगे”
“बीवी आँखे तरेरते हुए मुझे घूरे जा रही थी कि मैँ ये क्या बके चला जा रहा हूँ?”लेकिन मै बिना रुके बोलता चला गया।कमरे में घुसते ही बीवी दाँत पीसते हुए बोली…”ये क्या बके चले जा रहे थे?”
“दिमाग क्या घास चरने गया था जो ऐसी बेवाकूफी भरी बातें किये जा रहे थे?”
मेरे सब्र का बाँध टूट गया,बोला…”कुछ शर्म-वर्म भी है कि नहीं या वो भी बेच खायी?आखिर!…और कितना बे-इज़्ज़त करवाएगी?”
“समझदार को इशारा काफी था,बीवी चुप लगा के बैठ गयी।पता जो था कि अब अगर वो एक शब्द भी फालतू बोली तो आठ-दस तो पक्के ही समझो।ज़मीर जाग उठा था मेरा..
“उन्हें दिल्ली आने का न्योता दे हम चल पडे वापिस…पीछे मामा-मामी भी मंद-मंद मुस्काए चले जा रहे थे….आखिर!…उनका पिण्ड जो छूट गया था हम मुफ्तखोरों से”
*** राजीव तनेजा***

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