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पेड़-पौधे और हम

जिंदगी का सच
जिंदगी का सच
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वो भी क्या दिन थे यारो
जब मिलजुल कर मौज मनाते थे
कभी पेड़ की डाल पर चढ़ते
कभी तालाब में डुबकी लगाते थे
रंग-बिरंगे फूलों से तब
भरे रहते थे बाग-बगीचे
सुंदर वातावरण बनाते और
आँगन को महकाते थे ||

कू-कू करती कोयल के संग
हम सुर से सुर मिलाते थे
रंग-बिरंगे तितलियों के पीछे
सरपट दौड़ लगाते थे
पक्षियों की चहचाहट में
जैसे, खुद को ही भूल जाते थे
मिलजुल कर मौज मनाते थे ||

स्वच्छ वायुं की कमी नहीं थी
और हरियाली हर ओर फैली थी
नीर भरे तालाब थे सारें
नदियाँ मदमस्त हो, बहती थी
समय पर ऋतुयें आती
और पर्यावरण में ताजगी थी
पेड़ पोधे लगाकर शायद लोगो ने
प्रकृति की सुन्दरता जैसे
सस्ते दामों में पायी थी
ऐसी हरियाली छायी थी ||

आज की स्थिति देखकर
जैसे थोडा मैं सहम गया
ना ऋतुओ का नियम रहा
ना इंसा ही सोच रहा
मीठे पानी का स्रोत घटा और
सूर्यदेव का तेज बढ़ा
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से
हिमखंड पिघलने का दौर बढ़ा
स्वच्छ वायु कहाँ से पाए ना
जब दूर-दूर तक ना कोई वृक्ष रहा ||

छुमंतर सी हो गई हरियाली अब
ना वृक्ष लगाने का दौर बढ़ा
करोडों लोग प्यासे मर जाते
जब से मीठे पानी का स्रोत घटा
पानी लीटर में सिमट गया
बोतल वायु का दौर बढ़ा
संकट इतना बढ़ गया
तब भी इंसान ना कुछ सोच रहा
ना वृक्ष कटाई को रोक रहा
अब भी इंसान ना कुछ सोच रहा
ना वृक्ष बचाने की सोच रहा ||

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