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ईश्वर न्यायकारी है।

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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ईश्वर न्यायकारी है।
न्यायकारी शब्द का बड़ा ही सरल अर्थ है कि हमारे किए गए कर्मों का फल ठीक-ठीक जो देता है, वह न्यायकारी होता है। जो कर्ता को उसके कर्मों के अनुसार न अधिक, न न्यून फल मिलता है उसे न्याय कहते हैं।किसी भी संगठन, संस्था और राष्ट्र की व्यवस्था को सुनियोजित ढंग से चलाने के लिए कुछ विशेष नियम बनाए जाते हैं, जिन्हें आज की भाषा में संविधान कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य बनता है कि इन नियमों का पालन यथावत करे और यदि नियमों का उल्लंघन करता है,या नियम पालन करने में असावधानी बरतता है या फिर भूल करता है तो वह दण्ड का पात्र बनता है। इस न्याय व्यवस्था को सुनियोजित ढंग से चलाने के लिए ही पुलिस,कचहरी,अदालतें व न्यायालय बनाए गए हैं।न्यायाधीश बिना प्रमाणों के किसी को भी दोषित घोषित नहीं कर सकता है, इसलिए अपराधी सर्वप्रथम प्रमाणों (सबूतों) को ही नष्ट करने का प्रयास करता है।आज प्राय:देखने,सुनने में आता है कि प्रमाणों के अभाव के कारण अपराधी को छोड़ दिया जाता है। छूटने का एक कारण यह भी होता है कि आज भ्रष्टाचार का बोलबाला है, न्याय प्रणाली भी इस से अछूती नहीं है, यह विभाग भी अकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। अपराधी स्वछंद भाव से विचरता है। अपराधी को अब दण्ड का भय नहीं है,इसलिए घिनौने नरसंहार करने जैसे कुत्सित कर्म भी कर डालता है।कितनी बड़ी विडंबना है कि अपराधी को समझ नहीं है कि भले ही यहाँ की अदालत से छूट गया परन्तु ईश्वर की बड़ी अदालत के दण्ड से नहीं बच सकता क्योंकि ईश्वर की अदालत में ईश्वर के बनाए नियम सार्वभौम तथा सार्वकालिक होते हैं। सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा की व्यवस्था में ये नियम निष्पक्ष भाव से सब पर समान रूप से लागू होते हैं।ईश्वर को प्रमाणों की भी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ईश्वर स्वयं ही प्रत्यक्ष प्रमाण है।सर्व व्यापक होने से मनुष्यों की प्रत्येक क्रिया को निरन्तर देख, सुन जान रहा होता है। परमात्मा के बनाए नियम अटल हैं, स्वयं परमात्मा भी उन नियमों का उल्लंघन नहीं करता है। सृष्टि का निर्माण,विकास और विनाश- सब कुछ ईश्वरीय नियमों के अन्तर्गत अबाध गति से चल रहा है।ईश्वर सर्व व्यापक है, सर्वज्ञ है, वह सभी जीवों के कर्मों का दृष्टा है अर्थात हमारे मन, वाणी व शरीर से किए गए कर्मों को जानता है, जो जानता है, वह ही कर्मों के अनुसार फल देने का अधिकारी है। इसलिए ईश्वर न्यायकारी है।आध्यात्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है कि ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप को समझें।
वैदिक शास्त्रों में ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप का ही वर्णन है परन्तु जो लोग वैदिक शास्त्रों के सूक्ष्म सिद्धान्तों से अनभिज्ञ हैं और अनेक मत,पंथ,सम्प्रदायों की संकुचित सीमाओं में बँधे हुए हैं, ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप को नहीं समझते हैं,ऐसे अज्ञानी और दुष्टबुद्धि वाले स्वार्थी व्यक्ति स्वेच्छा से बुरे कर्मों को करते हैं किन्तु उन कर्मों के दु:खदायी फलों से बचने के लिए मन्दिर,मस्जिद,गिरजाघर आदि धार्मिक स्थानों पर जा कर कुछ दान-पुण्य करके कर्म फल से बचने का प्रयास करते हैं।ये स्वार्थ बुद्धि वाले नियमों की व्याख्या भी अपने अनुकूल करा लेते हैं।
कई लोग इस भ्रम के शिकार हैं कि जो भी पाप कर्म करेंगे या कर चुके हैं ,क्षमा याचना से ईश्वर क्षमा कर देते हैं। ईश्वर पाप क्षमा करें तो, उसका न्याय नष्ट हो जाएगा और सब मनुष्य महापापी हो जांएगे। कारण कि उनको पाप करने में उत्साह और निर्भयता हो जाएगी और जो अपराध नहीं करते, वे भी अधिक से अधिक अपराध करने लगेंगे और इस तरह अपराध करने से कोई भी नहीं डरेगा।लोक में यह देखने में आता है कि एक व्यक्ति रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ा जाता है और न्यायधीश अपराधी को दण्ड न दे कर उस पर दया करके उसे छोड़ देता है।अब उस व्यक्ति को दण्ड का भय नहीं है और ख़ूब रिश्वत लेता रहता है, सुख-सुविधा के सभी साधन जुटा लेता है।साथी कर्मचारी उस की सम्पन्नता से प्रभावित हो कर वे भी रिश्वत लेना शुरु कर देते हैं, दण्ड का भय नहीं है, जानते हैं कि पकड़े जाने पर न्यायाधीश दण्ड नहीं देगा, दया करके छोड़ देगा।दण्ड व्यवस्था न होने से सभी अधर्मयुक्त हो जांएगे,पाप कर्मों में भय न होकर संसार में पाप की वृद्धि और धर्म का क्षय हो जाएगा।कई धर्माधिकारी व्यक्ति भी अपने अनुयायियों को उनके किए पापों से बचने के लिए ईश्वर को भोग लगाना,क्षमा याचना करना,यज्ञ दान,तीर्थ-दर्शन, पवित्र नदियों में स्नान करना आदि उपाय बताते है।ये सब वैदिक सिद्धांतों के विरूद्ध है।ईश्वर की न्याय व्यवस्था में किए गए शुभ-अशुभ कर्मों का फल तो कर्ता को भोगना ही पड़ता है। पाप कभी क्षमा नहीं होते,किए पापों का फल भोगना अनिवार्य है ।यह ईश्वरीय नियम का अटल सिद्धांत हैअधिकतर लोगों का मानना है कि जो न्यायकारी है वह दयालु नहीं हो सकता और जो दयालु है वह न्यायकारी नहीं हो सकता कारण यह दोनों एक-दूसरे के विपरीत गुण हैं । वे अपने पक्ष की पुष्टि इस प्रकार करते हैं कि एक न्यायाधीश यदि वह चोर को दण्ड देता है तो वह न्यायकारी भले ही हो,पर दयालु नहीं रहा ।परन्तु महर्षि दयानंद सरस्वती जी का कहना है कि चोर को दण्ड देना न्याय तो है ही साथ ही उसके, ऊपर दया करना भी है।कारण दण्ड पाने के बाद वह चोर, चोरी करना छोड़ देगा जिससे उसका आगे का जीवन सुखी बन जाएगा ,इस लिए उस पर दया हो गई। यदि चोर को दण्ड न दे कर दया करके छोड़ देते हैं तो वह सदा चोरी करता रहेगा और उसका जीवन नष्ट हो जाएगा ।महर्षि का यह भी मानना है कि चोर को दण्ड दे दिया और उसको मानो दो वर्ष की जेल हो गई तो जेल में उसे सुधरने का अवसर मिल गया और संभावना भी है कि वह सुधर जाए और दूसरी ओर जिस भू खण्ड में वह चोरी करता था,तो उस भू खण्ड में रहने वाले दो वर्ष के लिए निर्भय व सुखी हो गए। यह भी हज़ारों लोगों पर दया हो गई।दोषी को दण्ड देना न्याय और दया दोनों हैं ।इस लिए महर्षि जी ने ईश्वर को न्यायकारी और दयालु दोनों कहा है । दया शब्द का सामान्य अर्थ है दया के स्वभाव वाला या दया करने वाला।परन्तु दया शब्द का एक और अर्थ जो लोक प्रसिद्ध है कि कोई कितना भी भंयकर अपराध करे,तब भी उसे दण्ड न दे कर छोड़ देना,क्षमा कर देना दया है।परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है।दया का सही अर्थ यह है कि मन में दूसरे का हित, उन्नति, कल्याण चाहना यह दया है।जब कल्याण की भावना से अपराधी को दण्ड देकर और अधिक अपराध करने से बचाया जाता है तो उसे न्याय कहते हैं।न्याय और दया में कोई विरोध नहीं है।दोनों का एक ही प्रयोजन है, वह है दूसरे का कल्याण, हित और उन्नति की चाह रखना।दया और न्याय में अन्तर केवल इतना है कि जो कल्याण की हमारे मन में भावना है,वह दया कहलाती है और उसके कल्याण के लिए हम वाणी एवं शरीर से जो भी क्रिया अर्थात दण्ड आदि देते हैं,वह न्याय कहलाता है।ईश्वर न्यायकारी भी है और दयालु भी है ।वह हम सबकी उन्नति,सबको सुख देना, दु:खों से बचाना चाहता भी है, यह उसकी दया है और हम जब अपराध करते, पाप कर्म करते तो दण्ड दे कर और अधिक पाप करने से हमें बचा भी लेता है, यह उस का न्याय है ।अत: ईश्वर में ये दोनों ही गुण हैं और इन दोनों गुणों में कोई विरोध भी नहीं है।ईश्वर अतुल्य है उसके समान और कोई नहीं है इस लिए उसकी तुलना भी किसी के साथ नहीं की जा सकती।ईश्वर न्यायकारी व दयालु है इसका दृष्टान्त माँ का दे सकते हैं, लोक में बालक की माँ बालक की सब से अधिक हितैषी है।बालक जब कोई अपराध करता है तो बालक भविष्य में अपराध न करे, उसे दण्डित करती है।जो माँ मोहवश बालक के अपराध को देख कर भी अनदेखा कर देती है,वह माँ अज्ञानता के कारण बालक का हित न करके अहित करती है।न्यायकारी व दयालु ईश्वर अपने बालकों का कभी भी अहित नहीं करता है।
समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग आध्यात्मिक विद्या से वंचित है।धर्म निरपेक्षता का आश्रय ले कर विद्यालयों में धर्म संबंधी और नैतिक मूल्यों संबंधी ज्ञान की चर्चा प्राय: नहीं की जाती। एक स्वस्थ व धार्मिक समाज पर ही राष्ट्र की नींव आधारित होती है।आज राष्ट्र में हिंसा,चोरी,व्यभिचार,चरित्र पतन बड़ी तेज़ी से हो रहा है,इस का मूल कारण भी नैतिक शिक्षा का पूर्ण अभाव है। परिणाम स्वरूप एक बहुत बड़ा समूह ईश्वर के सही न्यायकारी स्वरूप को न तो जानता है और न ही ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था को मानता है।कर्म फल जीवों के कर्मानुसार होता है,अन्यथा नहीं हो सकता है। जीवों को बिना पाप-पुण्य के सुख-दु:ख नहीं मिलते हैं।किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता और तुरन्त फल भी नहीं दे सकता।ईश्वर की न्याय व्यवस्था ही ईश्वर के स्पष्ट संकेत हैं कि न्याय का फल जगत में सुख-दु:ख की व्यवस्था है कि कोई अधिक सुखी है तो कोई अधिक दु:खी है। इसलिए ज्ञानी लोग ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप को समझते हैं कि कर्म शुभ हो या अशुभ ,चाहे ज्ञानपूर्वक किए गए हों या अज्ञानपूर्वक उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता।अज्ञानी लोग पाप करने से नहीं डरते क्योंकि वे ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप और उसकी न्याय व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते हैं। यह सोच उनकी अज्ञानता का बोधक है।
ईश्वर बिना ही कर्मों के किसी व्यक्ति को अपनी ओर से सुख दु:ख नहीं देता है,क्योंकि वह न्यायकारी है।न्यायकारी वही कहलाता है जो किसी को जितना जैसा कर्म किया हुआ हो उसके अनुसार ही फल देता हो।यदि फल की मात्रा या स्तर से कम या अधिक फल देता है तो वह न्यायकारी नहीं रहेगा बल्कि पक्षपाती हो जाएगा।ईश्वर सर्वज्ञ है,वह जानता है कि किस कर्म का फल कितना, कब, कैसे और किस रूप में देना है, यह अति सूक्ष्म विषय है। जीव अल्पज्ञ है,वह कितना भी उद्यम करे फिर भी पूर्णत: ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था नहीं जान सकता है। ईश्वर न्यायकारी है इसलिए पाप कर्म करने से डरना चाहिए।मन, वाणी और शरीर से सदा धर्मयुक्त कर्मों में प्रवृत्त रहना चाहिए। ऋषियों ने कहा है कि सुख का मूल धर्म है और दु:ख का मूल अधर्म है।
ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हमें सदबुद्धि प्रदान करे कि हम सत्य के ग्रहण और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहें।
राज कुकरेजा/ करनाल
Twitter @Rajkukreja16

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