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स्वाध्याय (भाग 2 )
स्वाध्याय का न करना अथवा स्वाध्याय के छुट जाने को ब्रह्मवेत्ता ऋषि याज्ञवल्क्य महा विनाश मानते हैं. ऋषि का यह कथन कितना सत्य है, प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने है. आज लगभग स्वाध्याय छुट ही गया है और हम सब महाविनाश के कगार पर ही खड़े हैं. अधिकांश लोग ईश्वर के सच्चे स्वरूप को नहीं समझ पा रहे हैं. परिणाम स्वरूप कितनी हानि हो रही है. बड़ी विडम्बना है कि ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न समझ कर अपने मनमाने ईश्वर बना लेते हैं. वास्तविकता यह है कि सब विचार शील लोगों का आत्मा यह साक्षी देता है कि सृष्टि नियम विरुद्ध चमत्कार में विश्वास अज्ञानता और मूर्खता है. हमारी इस अज्ञानता व मूर्खता के लाभ से स्वार्थी बाबा और धूर्त लोग गुरुडम के सहारे अपनी आजीविका चलाते हैं. जनता को भयभीत करने का वातावरण बनाते हैं और यही धूर्त लोग भयभीत व्यक्ति का सब प्रकार से शोषण करते हैं, दोहन करते है. आज इन्हीं धूर्त एवं बाबा लोगों की भीड़ दूरदर्शन पर देखने को मिल रही है. स्वाध्याय न होने के कारण प्रायः व्यक्ति भयभीत रहता है. अज्ञानी बन कर दैववाद, जंत्री-मंत्री, गंडे-तावीज़, जादू-टोना आदि सब जो अवैदिक तन्त्र के उपकरण हैं उन में फंसते जा रहे हैं. अंधे के पीछे अंधे चल रहे हैं, दिशा विहीन हो कर दुःख सागर के गर्त में गोते लगा रहे हैं, दूसरी ओर आज भेड़चाल का प्रचलन भी ज़ोरों पर है, इस प्रसंग में एक रोचक कथा याद आ रही है, जो आज की शोचनीय अवस्था पर खरी उत्तरती है. एक सेवक ने संत की सेवा की और संत ने प्रसन्न हो कर सेवक को एक गधा उपहार रूप में दिया. गधे को ले कर सेवक अपने गाँव की ओर चल दिया. रास्ते में अकस्मात् गधा गिर पड़ा और मर गया. सेवक ने अपने सिर से सफेद साफा उतारा और गधे पर डाल दिया और वहीं मरे गधे के पास बैठ कर रोने लगा. एक यात्री गुज़रा उसने चादर पर दो चार सिक्के डाल दिए. अब देखादेखी जो भी उस रास्ते से गुजरता सिक्के डालने लगा. सायंकाल सेवक ने देखा एक अच्छी-खासी राशि जमा हो गई थी. उसने सोचा आय का इस से बढिया साधन और कोई नहीं हो सकता. बस फिर क्या था, उसी स्थान पर गधे की समाधि बना दी और देखते ही देखते लोगों की भीड़ जुटने लगी. दूर-दूर तक प्रसिद्धि भी होने लगी. खबर संत के कानों तक पहुंची. मन में विचार आया कि चलो चल कर देखा जाए. आये तो झट से सेवक को पहचान लिया और सेवक उन्हें एकांत में ले गया और सारा घटना क्रम सुना दिया. सुन कर संत ने कहा-“बेटा इस में आश्चर्य की कोई बात नहीं है. जिस समाधि के पास मेरा डेरा है, वह इसी गधे की माँ की है.” यह एक भयंकर रोग देश में ही नही अपितु विश्व व्यापी स्तर पर सक्रामक के रूप में फैलता ही जा रहा है. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने इस महारोग का नाम दिया है, अविद्या और इस रोग की औषध बताई है- विद्या, विद्या अर्थात जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही मानना. विद्या का स्रोत्र हैं आर्ष ग्रन्थ.
स्वाध्याय ही जीवन की सफलता की कुंजी है. स्वाध्याय केवल आर्ष ग्रन्थों का ही किया जाता है, इसे अपने ह्रदय की गहराई तक उतारा जाता है. आज अधिकाँश लोग समाचार पत्र और निम्न स्तर की पत्रिकाओं के पढ़ने को स्वाध्याय मान लेते हैं. उन की यह धारणा ठीक नहीं है क्योंकि ऋषि व्यास जी ने जो स्वाध्याय की परिभाषा की है, उस पर यह खरी नहीं उतरती. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ-प्रकाश में लिखते हैं कि स्वाध्याय केवल आर्ष ग्रन्थों का ही होता है. जिन ऋषि लोगों के ग्रन्थ हैं वे आज हमारे मध्य नहीं हैं. ग्रन्थों द्वारा हम उन का सान्निध्य पा सकते हैं. इसे यूँ भी कहा जाता है कि ऋषि लोग ग्रन्थों द्वारा अपने दर्शन देते हैं. अनार्ष ग्रन्थ कपोल कल्पित मिथ्या ग्रन्थ हैं. आर्ष ग्रन्थों में ऋषि लोगों ने सहजता से महान विषयों को अपने ग्रन्थों में प्रकाशित किया है. ऋषि लोगों का आशय, जहाँ तक हो सके वहां तक सुगम और जिस के ग्रहण में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार का होता है. आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना. वेद, उपवेद, वेदांग, ब्रहामण ग्रन्थ, उपांग, उपनिषद इत्यादि आर्ष ग्रन्थ हैं. ये सभी ग्रन्थ उच्च कोटि के ग्रन्थ हैं, चूँकि हमारी शिक्षा भौतिक विज्ञान से होने के कारण हम इन्हें बिना ऊच्च कोटि के विद्वान् के अध्ययन-अध्यापन के नहीं ग्रहण कर सकते. वर्तमान काल में ऋषि दयानन्द जी के अनेकों उपकारों में एक उपकार उन का ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है. सत्यार्थ प्रकाश लगभग इन सभी आर्ष ग्रन्थों का निचोड़ है. अतः सत्यार्थ प्रकाश भी आर्ष ग्रन्थों की कोटि का ग्रन्थ है. मेरे कई बहन-भाई इस का भी स्वाध्याय करने में स्वयं को असमर्थ बताते हैं. कठिन कह कर छोड़ देते हैं. ऋषि दयानन्द जी भूमिका में ही लिखते हैं कि जो विद्या और धर्म प्राप्ति के कर्म हैं, प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् में अमृत के सदृश होते हैं. कठिन लगने का एक कारण यह भी है कि रूचि का न होना. जिस कार्य में रूचि होती है, वह कार्य सरल लगने लगता है. रूचि उत्पन्न करने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है. आरम्भ में केवल एक अथवा आधा ही पृष्ठ क्यों न पढ़े परन्तु अभ्यास प्रतिदिन का बनाएं तो कार्य सरल हो जाता है. प्रतिदिन थोड़ा ही सही पर स्वाध्याय करें अवश्य. एक बार अभ्यास बन जाये फिर तो लगने लगेगा कि इस में रस रस ही रस है. ऋषियों का संदेश भी यही है, उपदेश भी यही है, आदेश भी यही है — चरैवेति-चरैवेति
राज कुकरेजा/करनाल
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