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सर्व प्रथम हम स्वयं को जाने. हम में से अधिकांश तो स्वयं की पहचान नहीं रखते हैं. यदि जानते हैं तो ठीक रूप में व्यवहार नहीं कर पाते हैं. प्रश्न उठता है कि मैं हूँ कौन, कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाना है. आध्यात्मिक स्तर पर चिन्तन ही इस का समाधान कर सकता है. मैं एक आत्मा हूँ मैं कहीं से नहीं आया और मुझे जाना भी कहीं नहीं है. मैं अजर-अमर हूँ. मैं अनादि काल से हूँ और अनादि काल तक रहूँगा. न मैं जन्म लेता हूँ, न ही मैं मरता हूँ. मरता तो मेरा शरीर है. यह शरीर मुझ जीव को अपने अच्छे और बुरे कर्मो के फलस्वरूप ईश्वर ही अपनी न्याय व्यवस्था के अनुसार प्रदान करता है, जिस शरीर के साथ मुझ आत्मा का संयोग करता है, मैं वैसा ही दिखने लगता हूँ. शरीर मेरी सांसारिक यात्रा में साधन है. शरीर, मन, इन्द्रियां और प्राण जड़ हैं. मैं चेतन आत्मा ही इन सब का स्वामी हूँ.
इन सब साधनों में मन अति सूक्ष्म तथा शक्तिशाली साधन है. आत्मा के अति निकट इस का वास है और आत्मा से चैतन्य प्रभाव को ग्रहण करके चेतन की भांति कर्म करना आरम्भ कर देता है. मन ज्ञान इन्द्रियों द्वारा बाह्य जगत का ज्ञान प्राप्त कर कर्म इन्द्रियों द्वारा कर्म में प्रवृत होता है. मन कम्पूटर की भांति जड़ है, जैसे कम्पूटर स्व चालित नहीं है. चेतन सत्ता जैसा निर्देश देती है, तदनुसार कार्य करता है, वैसा ही मन है. मन जड़ है और चेतन सत्ता इस को चलाने वाली आत्मा है. मन का धर्म है संकल्प-विकल्प करना अर्थात विचार शक्ति को उत्पन्न करना, परन्तु इस में इतनी क्षमता नहीं कि स्वयं विचार उठाये. चेतन आत्मा जो विचारना चाहता है इसी मन द्वारा ही विचारता है. भूल यही करते हैं कि दोष मन पर ही डाल देते हैं और स्वयं को निर्दोष सिध्द करने का स्वभाव बना लेते हैं कि मैं क्या करूं मन मानता नहीं, मन अति चंचल है, मन ही विचार रहा है और न जाने इस निर्दोष मन के लिए क्या-क्या मिथ्या आरोप धारण कर लेते हैं. मन द्वारा विचार तरंगे उत्पन्न करते हैं और ये विचार तरंगे इतनी तीव्र गति से कार्य करती हैं कि लगने लगता है कि मन स्वचालित है.
स्वयं को समझने के लिए सर्व प्रथम दृढ़ निश्चय से आत्मा और शरीर को समझे कि मैं आत्मा हूँ और शरीर, मन प्राण इन्द्रियाँ मेरे साधन हैं. मैं ही इन का स्वामी और ये मेरे सेवक हैं. कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि जब राजा मंत्री पर नियन्त्रण नहीं रखता तो मंत्री स्वछन्द हो कर अपनी मनमानी करने लगता है. अब राजा कहता है कि मैं क्या करूं मंत्री ही नहीं सुनता. राजा यहाँ भूल करता है उस ने ही तो मंत्री को स्वछन्द बनाया है. यही अवस्था आत्मा की है. आत्मा से ही चैतन्य मन को मिलता है और लगने लगता है कि मन ही चेतन है. विचारों को जब आत्मा उठाना चाहता है तो मन ही उस का सहयोगी होता है. परम पिता परमात्मा के अनुपम उपहारों में से मन को सर्व श्रेष्ठ उपहार कहा जाए तो अतिश्योंक्ति नहीं होगी. मन ही विचारों का प्रवाह है जिस का नियन्त्रण आत्मा करता है. विचार सकारात्मक और नकारात्मक होते हैं, कौन से विचार उठाने हैं, इस का चयन आत्मा करता है. ये विचार ही चित्त पर संस्कार बन जाते हैं. चित्त को कम्पुटर के उदाहरण से बड़ी सरलता से समझा जा सकता है. कम्पुटर का आविष्कार चित्त पर आधारित है. वैज्ञानिकों ने चित्त की कार्य शैली पर ही चिन्तन कर के ही कम्पुटर के प्रोग्राम की व्यवस्था की है. कम्पुटर और मन दोनों जड़ हैं. दोनों को चलाने के लिए एक चेतन सत्ता चाहिए. मन विचारों को चित्त पट पर अंकित करता है, इसे स्मृति और कम्पुटर की भाषा में memory कहा जाता है. मन को जैसे विचार देते हैं, वैसे ही हमें मिलते हैं. garbageingarbageout का सिद्धांत पूर्णतः काम करता है. चित्त और कम्पुटर में इतना सामर्थ्य नहीं कि वे अपनी ओर से कुछ जोड़ सके अथवा वहां से मिटा सकें. चित्त और कम्पुटर में भेद केवल इतना है कि कम्पुटर मानवी कृति है और चित्त ईश्वर की एक अनुपम देनों में से एक देन है.
हमारा व्यक्तित्व हमारे द्वारा उत्पन्न किये विचारों पर ही निर्भर करता है, जिन्हें हम अपने मन से उठा रहे होते हैं. विचारों की गुणवत्ता का भी मैं चेतन आत्मा जिम्मेवार बनता हूँ. अच्छे – बुरे, सकारात्मक – नकारात्मक – सृजनात्मक – ध्वंसात्मक विचार हो सकते हैं. हम जिस प्रकार के विचार उठाते हैं, वैसा ही हमारा स्वभाव बनता जाता है. इसी स्वभावनुसार कर्म करने में प्रवृत होते हैं, जो कालांतर में संस्कार बन जाते हैं और लगातार करने से हमारी आदत बन जाती है जिस में हमारा निज का व्यक्तित्व झलकता है. मनीषियों ने भी इसी सिद्धांत को सुंदर शब्दों में व्यक्त किया है- संकल्पमयः पुरुषः. इस का भाव भी यही है कि मनुष्य जैसा संकल्प करता है वैसा ही बन जाता है. हमारा मन ही शिव हो क्योंकि जब तक मन शिव संकल्पों से युक्त नहीं रहेगा, तब तक हमारे लिए किसी भी क्षेत्र में उत्कर्ष पाना सम्भव नहीं है. मन को साध कर ही मनुष्य उन्नति की ओर अग्रसर होता है और मन की जीत पर ही उस की जीत निर्भर है. मन के हारने पर उस का हारना अवश्यम्भावी है, समस्याओं का मूल कारण हम स्वयं हैं. समस्त मानसिक समस्याओं का समाधान मन की सार्थक चिन्तन शैली से ही हो सकता है.
अब जब यह अच्छी प्रकार सिद्ध कर लिया है कि शरीर और आत्मा दोनों एक नहीं हैं, दोनों की अपनी अलग सत्ता है, इस ज्ञान के साथ यह समझना भी अति आवश्यक है कि शरीर भौतिक पदार्थो से बना है और आत्मा अभौतिक है. शरीर और आत्मा की आवश्कताएं भी अलग-अलग हैं, शरीर की पुष्टि भौतिक पदार्थो से होती है. भौतिक साधनों की उपलब्धि व अनुपलब्धि से शरीर सुखी व दुःखी होता रहता है, दूसरी ओर आत्मा सदा आनन्द की खोज में भटकती रहती है. आत्मा नित्य है इसलिए नित्य आनन्द जो ईश्वर से मिल सकता है उस को पाना चाहता है. हम प्रायः अपने जीवन में प्रत्यक्ष करते रहते हैं कि कई लोग कहते हुए सुने जाते हैं कि उन के पास प्रचुर मात्रा में धन-सम्पति है, भौतिक सामग्री है सन्तान आज्ञाकारी है और इस दृष्टि से स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं, परन्तु भीतर ही भीतर आशंकित, भयभीत ,अशांत उदास तथा एक असुरक्षित की भावना से सदा घिरे रहते हैं. उन्हें जीवन में एक खालीपन हर पल सताता रहता है. कारण को पकड़ नहीं पाते कि जिन जड़ व चेतन पदार्थों में वे सुख मान रहे हैं, वे स्वयं में अनित्य हैं. जो स्वयं अनित्य है वे नित्य सुख दे ही नही सकते अनित्य पदार्थो में तो क्षणिक सुख होता है.
स्व के प्रति एक मिथ्या धारणा है कि सुख और दुःख का आश्रय अन्यों पर आधारित है. हम परिस्थितियों को व दूसरों को सदैव अपने ही अनुकूल बनाना चाहते हैं जो असम्भव है. इसे इस श्लोक द्वारा स्पष्ट किया गया है.
सुखस्य दुःखस्य न कोsपि दाता परोप ददातीति कुबुद्धिरेषा |
अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्म सूत्रैर्ग्रथितोहि लोकः ||
अर्थात कोई किसी को न सुख देता है, न दुःख. दूसरों ने ह्में सुख दिया है अथवा दुःख दिया, यह कुबुद्धि है. मैं करने वाला हूँ, यह व्यर्थ का अभिमान है, वास्तव में तो यह सम्पूर्ण संसार स्वकर्म में आबद्ध हैं. जैसा करोगे वैसा भरोगे. परिस्थिति के अनुकूल स्वयं को ढालना पड़ता है और दूसरों के संस्कार अलग-अलग होने से उन्हें भी स्वयं के अनुकूल नहीं बना सकते अपितु प्रयास करें कि यथा सम्भव उनके अनुकूल बन जाएँ. जहाँ अधिकार और कर्तव्य का प्रश्न उपस्थित हो, वहां कर्तव्य पालन की भावना से स्वयं को सुखी बनाया जा सकता है .प्रारम्भ में इस सिद्धांत को पकड़ने में कठिनाई लग सकती है परन्तु परिणाम सुखद ही होता है
हम प्रायः जन्म-जन्म के संस्कारों व बाह्य वातावरण और अविद्या के आवरण के कारण अपने स्व अर्थात निज स्वरूप को पहचान नहीं पाते. जब शरीर और आत्मा दोनों के स्वरूप अलग हैं तो आत्मा के स्वरूप को समझने में सुविधा हो जाती है कि मैं आत्मा नित्य, आनादि शांत, पवित्र, धार्मिक और एक स्वतंत्र सत्ता हूँ. जब तक आत्म ज्ञान जागृत नहीं हुआ तब तक सब बेकार और व्यर्थ है. आत्म ज्ञानी व्यक्ति अपनी इन्द्रियां, मन और बुद्धि को नियम-सयंम में रखता हुआ आत्म तत्व की ओर बढ़ता है. आत्म ज्ञानी व्यक्ति सभी प्राणियों के साथ आत्मवत्सर्वभूतेषु व्यवहार करता है, वह मिथ्या अहंकार व अभिमान से दूर रहता है. इस लिए केवल विज्ञान ही नहीं आध्यात्मिक ज्ञान भी आवश्यक है. विज्ञान के विकास के बाद हमें सुविधाएं प्राप्त हुई है, ये क्षणिक हैं. भौतिक सुख प्रदाता हैं. शारीरिक सुख का अनुभव हैं. मन की भूख कैसे शांत होगी और मन का सुख क्या है इस का उतर विज्ञान के पास नहीं है क्योंकि लोग अभी तक वैज्ञानिकों से इस का उतर भी नहीं पा सके कि मृत्यु के बाद आत्मा का क्या होता है? शरीर के उपरान्त क्या आत्मा मर जाती है? अविद्या के कारण अपने-अपने मतों के आधार पर लोगों ने भिन्न-भिन्न मान्यताएं बना रखी हैं. आत्म सम्बन्धी ज्ञान तो आध्यात्मिक वैज्ञानिक ही दे सकते हैं. बड़ा ही सुंदर कहा जाता है—-
सब ज्ञान तो सीख लिया, पर आत्म ज्ञान ही सीखा ना|
यही कारण है कि पंडित भी, अनजान भी भटकते देखें हैं||
भौतक विज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. ऋषि कणाद दोनों अर्थात भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान को समझना ही धर्म मानते हैं, जिस से अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि होती है. अभ्युदय जिस के द्वारा लौकिक कल्याण अर्थात वर्तमान जीवन काल में सुख-सुविधाओं की प्राप्ति होती है, तथा निःश्रेयस अर्थात मोक्ष प्राप्ति होती है. अतः अपने निज की पहचान, आत्म सम्बन्धी ज्ञान का होना परम आवश्यक है. परम पिता परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हमें सद्बुद्धि प्रदान करे जिस से आत्म सम्बन्धी सूक्ष्म ज्ञान को समझ सकें
धियो यो नः प्रचोदयात्
राज कुकरेजा
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