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कथावाचक का शंका समाधान।

चिंतन के क्षण
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कथावाचक का शंका समाधान ?

मेरा यह लेख किसी की भी भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं अपितु अपनी भावनाओं को आप सब तक प्रकट करने का है।आप भी अपने ग्रुप्स में शेयर करके सहयोग करें।

पिछले कुछ दिनों से वटस्एप पर और सोशल मीडिया पर कथा वाचक देवकी नंदन का वीडियो काफ़ी शेयर किया जा रहा है। इस वीडियो में एक लड़की को कथा वाचक उस के द्वारा उठाई गई शंकाओं का समाधान कर रहे हैं।सर्व प्रथम तो ऐसे लोग श्रोताओं को शंका उठाने के लिए प्रोत्साहन ही नहीं करते क्योंकि ऐसा मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह रही हूँ।मंदिर में जब मैंने एक पौराणिक सन्यासी से यह जानने का प्रयास किया कि वे पुराणों की तर्क हीन व विरोधाभास की कथाओं पर विश्वास करते हैं? उन्होंने जो उत्तर दिया, उस से मैं सन्तुष्ट नहीं थी।इससे पूर्व कि मैं उनसे अगला प्रश्न करूँ वह उठकर चले गए और उनके अनुयायी ने मेरी ओर रोषपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा कि स्वामी जी अस्वस्थ हैं इस लिए आराम करने जा रहे हैं। यहाँ अपनी लोकप्रियता को बढ़ाने के उद्देश्य से ऐसा लगता है कि यह सब पूर्व योजना बद्ध है। मान भी लें कि लड़की की शंकाएं स्वाभाविक हैं।यदि लड़की में और श्रोताओं में थोड़ी सी भी तर्क बुद्धि होती तो कथा वाचक के अटपटे जवाबों से संतुष्ट न होती। यहां तो लड़की भी कथा वाचक की हाँ में हाँ मिला कर स्वयं भी और श्रोताओं के साथ राधे राधे के नारे लगाती दिखाई दे रही है।
लड़की के प्रश्न अत्यंत ही साधारण से हैं। उसने प्रश्न किया कि दूध को शिवजी की पत्थर की मूर्ति पर चढ़ाने की अपेक्षा गरीब बच्चों को पिलाना अधिक लाभप्रद होता है क्योंकि पत्थर की मूर्ति पर तो दूध का दुरुपयोग कर दिया जाता है। इस का जवाब बडा़ ही हास्यास्पद है। उनका मानना है कि वृद्ध माता-पिता को भोजन कराना बंद कर दें। दूसरा माता-पिता अपनी संतान का लालन पालन करते हैं और समृद्ध हैं तो संतान का कर्तव्य नहीं बनता कि वे जब कमाने योग्य हो जाते हैं तो अपने माता-पिता को भी यथा संभव देते रहना चाहिए। अब इन महाशय जी को कौन समझाए कि जीवित माता-पिता और जड़ पत्थर की मूर्ति में अंतर होता है। जीवित माता-पिता हमारी दी हुई वस्तु का सदुपयोग करते हैं और आजतक पत्थर की मूर्ति को खाते हुए किसी ने भी नहीं देखा है। महाशय जी इस बात को भलीभाँति जानते हैं क्योकि प्रत्येक का आत्मा सत्य असत्य को जानने वाला है तथापि अपने हठ और दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य की ओर झुक जाता है। देश काल के अनुकूल अपने पक्ष की सिद्धि करने के लिए बहुत से स्वार्थी विद्वान अपने आत्मा के ज्ञान के विरूद्ध भी कर लेते हैं।चाणक्य नीति में भी है कि “स्वार्थी दोषं न पश्यति”जिस का भाव भी यही है कि स्वार्थी लोग अपने काम की सिद्धि के लिए ग़लत कामों को श्रेष्ठ मान, दोष को नहीं देखते, विशेषकर जहां उसकी जीविका का प्रश्न है। यह भी ईश्वर की अति उत्तम व्यवस्था है कि जड़ मूर्ति नहीं खा सकती।यदि खाने लग जाए तो मूर्ति पर चढ़े चढ़ावे से सारे पण्डे-पूजारी औऱ कथा वाचक वंचित रह जाते, मंदिर में मूर्ति का नामोनिशान नहीं रहता।मूर्ति पूजा धन कमाने का अच्छा साधन है, ईश्वर प्राप्ति का नहीं। हमारे धार्मिक ग्रंथों में लिखा है कि किए गए शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही मिलता है।( अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभमशुभं) परन्तु कथावाचक लोगों को भ्रमित कर रहे हैं कि मंदिर में भगवान के दर्शन से और गंगा के स्नान से किए पाप क्षमा हो जाते हैं। पाप कर्म करके यदि इतने सरल तरीक़े से पाप के दण्ड से बचा जा सकता है तो इन महाराज कथावाचक से पूछना चाहिए कि लोगों में पाप कर्म करने की प्रवृति बढ़ेगी या नहीं क्योंकि पाप कर्म के फल से बचने का सुगम मार्ग उनको मिल गया है।ये कथावाचक लोग प्रवचन करते हैं कि जीवन में इतनी सम्पति कमा कर क्या करोगे?आखिर मरने के बाद कुछ भी साथ नहीं जाता।ऐसा बताने वाले महाराज एक कथा का लाखों रूपए लेते हैं।ऐसा सुनने में आता है।
संगठित धर्माचार्यों और पुरोहितों की परंपरा जब भगवान के नाम पर अज्ञान और अंधविश्वास का राज चलाए तो ये देश के दुर्भाग्य की निशानी है।भारत के दुर्भाग्य का एक मात्र कारण है कि हमने वेद विद्या का पढ़ना-पढ़ाना छोड़ दिया है।अत: भारत के सौभाग्य का कारण भी यही होगा कि हम वेदों का पढना-पढ़ाना प्रारंभ कर दें (ऋषि दयानंद सरस्वती)। धर्म हमारे आत्मा और कर्तव्य के साथ है। धर्म तर्क की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए।जो धर्म तर्क को सहन न कर पाए वह मानों रेत के ढेर पर खड़ा है।जीवन में धर्म के प्रति आस्थावान तो होना ही चाहिए परन्तु अंध श्रद्धा अधिक हानिकारक हो जाती है।
परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वे हम सब को श्रेष्ठ बुद्धि दे कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए सर्वदा उद्यत रहें।
राज कुकरेजा/ करनाल
Twitter@Rajkukreja16

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