Menu
blogid : 23168 postid : 1338902

मुख्य प्रथम तीन गुरु

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
  • 62 Posts
  • 115 Comments

गुरु शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। प्रथम गु जिस का अर्थ है अंधकार तथा रु का अर्थ है दूर करने वाला। संयुक्त अर्थ है अंधकार को दूर करने वाला। अज्ञानता रूपी अंधकार को जो दूर कर दे वही गुरु है। प्रेरणा देने वाले, सार्थक संदेश देने वाले, मार्ग दिखाने वाले, शिक्षा देने वाले और सत्य बताने वाले, बोध कराने वाले ये सब गुरु की कोटि में आते हैं।

guru

इस संसार की समस्त जीवात्माओं का स्वाभाविक तथा नैमित्तिक ज्ञान प्रदाता सर्वप्रथम, सर्वश्रेष्ठ, सर्वज्ञ, निराकार एक मात्र परमपिता परमात्मा है। यह गुरु प्रत्येक जीवात्मा के अन्तस्तल में वास करता है और अच्छे कार्यों में प्रवृत्त होने पर उसमें उमंग, उल्लास, निर्भयता तथा निकृष्ट कार्य में प्रवृत्त होने पर भय, शंका, लज्जा, संकोच आदि उत्पन्न करता है।

सृष्टि के आदि में ऋषिओं ने उस सर्वप्रथम, सर्वश्रेष्ठ, सर्वज्ञ, एक मात्र परमपिता परमेश्वर जो गुरुओं का गुरु है, उस गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है। गुरु का ज्ञान ही उसे गुरु की कोटि में रखता है, क्योंकि ज्ञान के बिना गुरु, गुरु कैसे हो सकता है?

मनुष्य के मननशील गुण को प्रखर तथा उपयोगी बनाने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। अगर मनुष्य के नवजात शिशु का मनुष्यों से दूर किसी वन में पशुओं के बीच पालन हो, तो वह मनुष्य के स्थान पर पशु बन जाएगा। वह मनुष्यों की तरह खाना-पीना, बोलना नहीं सीख सकता, क्योंकि परमात्मा ने मानव को नैमित्तिक ज्ञान वाला बनाया है, अर्थात वह किसी के माध्यम से सीखता है।

इससे सिद्ध होता है कि मानव के निर्माण में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है तथा शिक्षा के महत्वपूर्ण आधार स्तंभ प्रथम तीन गुरु हैं। सच्चे गुरु व शिक्षक का आरंभ साक्षरता से होता है और समापन सुसंस्कारिता के उच्च स्तर पर पहुंचने तक अनवरत चलता रहता है। गुरु एक नहीं अपितु अनेक हैं, जो जितना जिस अंश में ज्ञान दे, उसी अंश में वह गुरु है।

सर्वप्रथम हमें यह समझना होगा कि वास्तविक गुरु कौन है? क्योंकि गुरु तो वर्तमान में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरु के सही स्वरूप को कुछ स्वार्थी और ढोंगी लोगों ने विकृत कर दिया है। आज इन पाखण्डी गुरुओं का जाल बिछा हुआ है। जन सामान्य केवल उन्हीं गुरुओं को गुरु स्वीकार कर रहा है, जो उन के कान में मंत्र फूँक देता है और मंत्र को भी गुप्त रखने का परामर्श दिया जाता है। अन्यथा मंत्र का प्रभाव गुण समाप्त हो जाता है।

ऐसे तथाकथित गुरु,गुरु की कोटि में नहीं आते। ये लोग प्रकाश नहीं अविद्या, अंधकार फैलाते हैं। जन सामान्य का शोषण करते हैं। विडंबना यह है कि लोग यह क्यों नहीं समझते कि समस्त व्याधियों में गुरु की वास्तविकता में ताल मेल होना ही अनिवार्य है। गुरु की वास्तविकता, सर्वोपरियता, और सर्वग्राह्यता को समझने का प्रयास करें।

ऋषि दयानंद सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय समुल्लास के प्रारंभ में लिखते हैं कि जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो, तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है। वह कुल धन्य है और संतान भाग्यवान है, जिसके माता-पिता धार्मिक और विद्वान होते हैं। सांसारिक, शारीरिक गुरुओं में सर्वप्रथम-सर्वश्रेष्ठ गुरु जन्म देने वाली माता होती है।

सांसारिक गुरुओं में माता का स्थान इसलिए सर्वोपरि है, क्योंकि जीवात्मा सबसे प्रथम अपनी माता के उदर में इस संसार में सबसे पहले, सबसे अधिक संगति माता की पाता है। इस कारण माता के आचार, विचार, आहार से सर्वाधिक प्रभावित होता है। माता प्रथम गुरु है, क्योंकि जितना माता अपनी संतान को प्रेम करती है और उसकी हितैषी होती है, उतना अन्य कोई नहीं होता है। संतानों को भी माता से सर्वाधिक शिक्षा मिलती है। इस कारण माता प्रथम गुरु है।

किसी ने बड़ा ही सुन्दर लिखा है कि अपने बच्चे के लिए मां शास्त्र का काम करती है और पिता शस्त्र का। दोनों का उद्देश्य अपने बच्चे के मंगलमय और उज्ज्‍वल भविष्य का निर्माण ही होता है। मां पुचकारकर बच्चे को समझाती है और पिता फटकार कर। जो काम एक मां प्यार से करती है, वही काम एक पिता थोड़ा कठोरता दिखाकर करता है।

जीवन न बिना शास्त्र के चलता है और न बिना शस्त्र के। जहां पर सही और गलत का निर्णय न हो वहां शास्त्र काम आता है और जहां पर निर्णय ही गलत हो वहां शस्त्र काम आता है। वह जीवन अवश्य ही गलत दिशा में बढ़ता है, जिसमें न शास्त्र का सम्मान हो और न शस्त्र का अंकुश।

अत: हमारे जीवन में मां रूपी शास्त्र और पिता रूपी शस्त्र का सम्मान बचा रहे, ताकि हमारे जीवन का पथ प्रदर्शन होता रहे। कभी प्यार से और कभी मार से, कभी पुचकार से तो कभी फटकार से, माँ और पिता दोनों हमारा जीवन संवारते हैं।

महान वह मनुष्य होता है, जो सबसे अधिक उपकार करता है। सभी माता-पिता व आचार्य अपनी संतानों व शिष्यों पर उपकार करते हैं। माता-पिता व आचार्य अपनी संतानों व शिष्यों का बौद्धिक विकास करते हैं। अतः सभी संतानों के लिए माता-पिता व आचार्य महान हैं ।

आचार्य चाणक्य के अनुसार अधिक लाड-प्यार करने तथा बच्चों की उचित अनुचित अर्थात सभी इच्छाएं पूर्ण करने से उनमें अनेक अवगुण उत्पन्न हो जाते हैं। भविष्य में ये अवगुण ही बच्चों की प्रगति और विकास में बाधा बन जाते हैं। अत: लाड-प्यार के साथ प्रताड़ना भी परम आवश्यक है। एक कुम्हार चाक पर घूमते मिट्टी के लौंदे को कभी प्यार से थपथपाकर, कभी सहला कर तो कभी पीटकर उसे एक सुंदर बर्तन का आकार दे देता है। बाद में वही बर्तन अपनी सुंदरता से लोगों को आकर्षित करता है। माता-पिता और आचार्य, शिक्षक को कुम्हार की भांति मिट्टी रूपी संतान का पालन पोषण और शिक्षित करना चाहिए।

आज परिस्थितियां और भी विषम बन गई हैं। माता-पिता से जैसी संस्कारित शिक्षा मिलनी चाहिए, उस दिशा में अवहेलना हो रही है। उसमें माता-पिता अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने में भटक गए हैं। वे बच्चों के केवल अधिक से अधिक भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रदाता बन रहे हैं। गुरु भी गुरु न होकर वैतनिक शिक्षक बन गए हैं। अन्य व्यवसायों की भांति शिक्षक भी व्यवसायी बन चुके हैं।

सबकी मानसिकता बन रही है कि काम कम और वेतन अधिक। शिक्षा का पवित्र क्षेत्र भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा। ये भी अकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। अध्यापक केवल पुस्तकस्थ विद्या पढ़ाने और परीक्षा पास कराने वाले शिक्षक या अध्यापक बन रहे हैं। आचार्य व गुरु का भाव लुप्त प्राय हो गया है।

सांसारिक शारीरिक गुरु चाहे माता-पिता और आचार्य अथवा अन्य विषयों के ज्ञान प्रदाता अन्य गुरुओं के लिए अनिवार्य है कि परिवार, समाज और देश के लिए अपने दायित्वों के प्रति जागरूक होकर अपने कर्तव्य को भी समझें, क्योंकि किसी भी राष्ट्र निर्माण के कर्णधार ये तीनों प्रथम गुरु ही मुख्य भूमिका निभाते हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh