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जन्म,आयु,भोग.मृत्यु

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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जन्म, आयु, भोग,मृत्यु
नवम्बर मास की तेरह तारीख़ की अर्ध रात्रि को आचार्य ज्ञानेश्वर जी का हृदय आघात से निधन हो गया। उनके सभी परिचितों को सूचित किया गया। जिसने भी सुना अचम्भित हो गया। उनकी इस अकाल मृत्यु के समाचार ने सभी को स्तब्ध कर दिया और सभी के मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था कि यह कैसे हो गया? क्योंकि उन के परिचित व चाहने वाले उनकी संयमित जीवन शैली से भली भाँति परिचित थे। लोग परस्पर एक दूसरे को social media और what’s App पर संवेदना संदेश भेज रहे थे।आश्चर्य भी हुआ और वेदना भी इस बात की हुई कि जो स्वयं को आर्य समाजी समझते हैं वे भी वैदिक सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं, वे सांत्वना दे रहे थे कि यह सब ईश्वर की मर्ज़ी है, ईश्वर की मर्ज़ी को कौन मिटा सकता है।ईश्वर ने जितने श्वास और भोग लिख दिये है, समाप्त हो गए हैं। ऐसा मानना मिथ्या धारणा है और ईश्वर पर दोषारोपण करना है। ऐसे अवसरों पर कई बार हम किमकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं। कई प्रकार के संशय, शंकाएं औऱ अनसुलझे प्रश्न हमारे मन मस्तिष्क में उभरने लगते हैं।
हम एक क्षण के लिए मान भी लें कि ईश्वर ने हमारी आयु व भोग निधारित कर दिया है तो हमारी समाज की दण्ड व्यवस्था औऱ न्यायालय की न्याय व्यवस्था का ढांचा ध्वस्त हो जाता है। किसी भी समाज को सुव्यवस्थित चलाने के लिए दण्ड और न्याय आधार भूत स्तंभ माने जाते हैं।हत्यारा हत्या कर के भी दण्ड का पात्र नहीं हो सकता क्योंकि उसका मानना है कि इस व्यक्ति के श्वास व आयु पूरी हो चुकी है और लुटेरे भी दूसरों की सम्पत्ति को लूट कर बच जाएंगे क्योंकि उस व्यक्ति का भोग समाप्त हो गया है। इस प्रकार के समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज हमारी स्वाध्याय की परम्परा लगभग छूट चुकी है। आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय से ही अनेकों अनसुलझे प्रश्न स्वयं ही सुलझने लग जाते हैं। जन्म, आयु, भोग,, मृत्यु ये अत्यंत ही सूक्ष्म विषय है, हम इन्हें प्रमाणिक आर्ष ग्रंथों के शब्द प्रमाणों से समझने का प्रयास करें।
जन्म –
जन्म की व्याख्या ऋषि दयानन्द सरस्वती जी उपदेश-मंजरी( जिस में पूना में दिए गये पन्द्रह व्याख्यान हैं) में बड़े ही सरल शब्दों में करते हैं कि सब साधनों से युक्त होकर क्रिया-योग्य जब शरीर होता है, तब जन्म होता है। जन्म शरीर और जीवात्मा इनका संयोग है। शरीर और जीवात्मा का वियोग मृत्यु कहलाता है।आत्मा सत-चित-स्वरूप है, आत्मा शरीर नहीं है. आत्मा नित्य, अजर, अमर है. यह शरीर आत्मा का निवास स्थान है।शरीर को रथ की संज्ञा दी गई है। आत्मा जब इस पर आरूढ़ होता है तब रथी कहलाता है और रथ से पृथक होते ही अर्थी कह दिया जाता है। आत्मा का अपना कोई रूप-रंग व आकार नहीं है, जैसा शरीर धारण करता है, वैसा ही दिखने लगता है. शरीर का मिलना अपने किये शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरूप होता है। हमारे कर्मों के अनुसार ही हमें मानव शरीर मिला है।
जन्म क्यों होता है?
ऋषि पतंजलि जी जन्म का कारण अविद्या को मानते हैं।अविद्या पाँच प्रकार की है अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश। ये पाँचो क्लेश हैं।इन पांचों क्लेशों में एक भी यदि व्यक्ति में है तो जन्म अवश्यमभावी है।
योग दर्शन के द्वितीय पाद में सूत्र संख्या तेरह-
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा।।
जिस का अर्थ है कि जब तक व्यक्ति में अविद्या आदि क्लेश रहते हैं, तब तक उन अविद्या आदि क्लेशों से प्रेरित होकर वह जो भी अच्छे-बुरे कर्म करता है उन कर्मों का फल जाति, आयु और भोग रूप में मिलता है।
ॠषि गौतम भी मिथ्या ज्ञान को जन्म का कारण मानते हैं। न्याय दर्शन द्वितीय अध्याय,में भी ऐसा ही एक सूत्र देते हैं कि –
दुःख-जन्म-प्रवृत्ति-मिथ्याज्ञानानामुत्तरो Sपाये तदनन्तरापायादपवर्गः ।।
आयु-
आयु, को बढ़ाया और घटाया जा सकता है। दीर्घ आयु के लिए ब्रह्मचर्य, आहार,निद्रा और व्यायाम जो निरोगता के स्तंभ माने जाते हैं, व्यक्ति इन का पालन यथावत करता हुआ आयु को बढ़ा सकता है। इनका पालन शिशु के गर्भ धारण के साथ करने होते हैं।हमारे किए गए शुभ और अशुभ कर्मों के फलस्वरूप माता-पिता को संतान और संतान को माता पिता मिलते है। संतान को कैसे माता-पिता चाहिए और माता-पिता को कैसी संतान चाहिए, इसमें चुनाव नहीं है। कर्मों के अनुसार संबंध ईश्वर की न्याय व्यवस्था से बनते हैं अर्थात जहाँ कर्मों की equation ठीक बनती है, संतान और माता-पिता के संबंध बन जाते हैं और कर्मों की equation केवल ईश्वर ही बनाता है क्योंकि वह सर्वज्ञ होने से कर्मों को जानता है और किस कर्म का फल कब और कहां देना है जानता है। आजकल परिवेश अर्थात आसपास के वातावरण का भी स्वास्थ्य पर भारी मात्रा में प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण अनेक असाध्य रोगों की जननी है। फलस्वरूप आयु पूरी तरह से प्रभावित हो रही है और लोगों का गलत रहन-सहन और आहार का प्रभाव भी आयु को घटा रहा है। गर्भ धारण होते ही शिशु पर माता के आहार, विचार और परिवेश का प्रभाव पड़ता है और ये ही हमारी आयु को बढ़ाने और घटाने में कारण बनते हैं। एक समझदार किसान भी फसल की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए भूमि को कैसे तैयार करना है भली-भाँति जानता है और इस प्रकार उत्तम संतान के निर्माण के लिए माता-पिता शिशु के लिए गर्भ रुपी भूमि तैयार करते हैं और संस्कार विधि में इस का उल्लेख किया गया है। प्रथम तीन संस्कार( गर्भाधान, पुंसवन और सीमोत्नयन) तो गर्भ काल में करने का प्रावधान है। बालक माता से नाड़ी द्वारा श्वास, आहार एवं भाव के साथ ही साथ वंशानुगत होने वाले रोगों के किटाणुओं को जिन्हें medical science में genetic diseases अर्थात genes से होने वाले रोगों से लिया जाता है, आयु को बढ़ाने और घटाने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। Medical science में genetic संबंधी रोगों पर research हो रही है और जब इन genes पर पकड़ पा ली जाएगी तो निश्चय रोगों के निदान में अद्भुत सफलता मिलेगी साथ ही आयु बढ़ जाएगी। प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आज advance medical के कारण ही व्यक्ति की average आयु बढ़ गई है और महिलाओं तथा शिशु की मृत्यु दर में कमी आई है। हमारी जीवन शैली, सात्विक आहार और परिवेश निश्चय ही आयु बढ़ाने में सहायक होते हैं परन्तु पैतृक सम्पदा के रूप में मिलने वाले genes की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। आचार्य ज्ञानेश्वर जी की अकाल मृत्यु के लिए genetic factor भी हो सकता है और राम गोपाल गर्ग परोपकारी पत्रिका में लिखते हैं “ गत माहों में चिकित्सक ने सावधानी काम में लेते हुए औषधी खाने को दी थी पर आचार्य जी यह कहते रहे कि मुझे कुछ भी बीमारी नहीं है, दवा की आवश्यकता नहीं है”।
भोग-
भोग को भी बढ़ाना व कम करना व्यक्ति के अपने अधिकार में है। आलस्य-प्रमाद, दुर्गुणों और दुर्व्यसनों के कारण व्यक्ति मिली सुख-सम्पदा को नष्ट-भ्रष्ट कर लेता है और दूसरी ओर पुरुषार्थ से, सात्विक जीवन शैली से व्यक्ति प्रचुर मात्रा में धन और ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है।
जन्म से मृत्यु पर्यन्त का काल जीवन है।यह कर्म का काल है।इस काल को कर्मभूमि भी कह दिया जाता है।जीवन का प्रारम्भ जन्म से होता है तो अंत मृत्यु से होता है. जन्म और मृत्यु यह दोनों जीवन के दो छोर हैं एक प्रारम्भ तो दूसरा अंत. मृत्यु से पूर्व अपने जीवित काल में ही शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं।व्यक्ति का जन्म साधारण हो सकता है,लेकिन ऐसे कर्म करता है कि अपनी मृत्यु को एक इतिहास बना लेता है।इसी जीवन काल में धर्म, अर्थ काम,मोक्षाणाम् की सिद्धि जपोपासना से की जा सकती है। ऋषि दयानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं कि अपने सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतंत्र, परन्तु जब वह कर्म कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन हो कर फल भोगता है। मृत्यु के उपरान्त ईश्वर की न्याय व्यवस्था में बंध जाते हैं और किये हुए कर्मों का फल कर्त्ता को ही भोगना होता है। कठोपनिषद जिसे आत्मा परमात्मा का संवाद कहा जा सकता है में यमाचार्य नचिकेता को उपदेश देते हैं कि एक प्रेय मार्ग है जो इन्द्रियों को प्रिय है। इन्द्रियों का अनुसरण करना और दूसरा श्रेय मार्ग जो इन्द्रियों को वंश करके उन्हें अपने स्वयं के अनुकूल चलाना। प्रेय मार्ग भोग का मार्ग है और श्रेय मार्ग तप का मार्ग है।श्रेय मार्ग पर चलना छुरी की तेज़ धार पर चलने के समान है। दोनों के लक्ष्य पृथक-पृथक हैं। ये दोनों पुरुष को बांधते है, इन में से जो श्रेय का अवलम्बन करता है, उस का कल्याण होता है जो प्रेय को चुनता है, वह असली उद्देश्य से गिर जाता है। श्रेय और प्रेय दोनों मनुष्य को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान परीक्षा करके उन में भेद करता है। बुद्धिमान प्रेय की अपेक्षा श्रेय को चुनता है, किन्तु मंदबुद्धि मनुष्य योग-क्षेम देने वाला होने से प्रेय को अधिक पसंद करते हैं। प्रेय मार्ग में पड़े हुए मनुष्य स्वयं को बुद्धिमान और पंडित मानने लगते हैं परन्तु यही मूढ़ जन होते हैं। ये अंधे से ले जाए जाते हुए, अंधों की तरह ठोकरे खाते हुए मारे-मारे फिरते हैं अर्थात जन्म और मृत्यु के चक्र में पिसते रहते हैं। हम अपने जीवन काल में कुछ ऐसे सत्कर्म जरुर कर लें कि मृत्यु के बाद हमारी आत्मा की शान्ति के लिए दूसरों को शान्ति सभाएं व प्रार्थनाएं ना करनी पड़े। दूसरों के द्वारा की गई प्रार्थनाएं हमारे बिल्कुल भी काम आने वाली नहीं हैं। अपना किया हुआ काम व दान ही काम आता है। मन की भूमि पर ऐसे बीज न बोंये कि कल उन की फसल काटते समय आंसू बहाने पड़े।
मृत्यु के उपरान्त कुछ कर्तव्य परिवार वाले मृतक के प्रति करते हैं जिसे अंतेष्टि संस्कार कहा जाता है।मृतक के प्रति और कोई कर्तव्य शेष नहीं बचता है।परिवार वाले परिवार में कुछ दिन चाहें तो यज्ञ का आयोजन करवा सकते हैं और करवाना भी चाहिए यह एक अच्छी परम्परा है, और वैदिक विद्वान द्वारा प्रवचन करवाना और धर्मोपदेश की प्रवृति के लिए भी संस्थानों को जितना धन चाहें दान करें। इस प्रकार अच्छी परम्पराओं का पालन करना चाहिए। ऐसे सात्विक कर्म पुण्य की कोटि में आते हैं। सगे-संबंधी भी चादरों और फूलों के बदले अधिक से अधिक सुगन्धित सामग्री और घृत की आहुतियाँ दें, जिससे पर्यावरण दूषित नहीं होगा और सामग्री तथा घृत भेंट करने वाले पुण्य के भागीदार भी बन जायेंगे।
मृतक पर चादरें और फूल चढ़ाने की परम्परा चल पड़ी है जो अवैदिक और एक अंध परम्परा है। फूल तो वाटिका की शोभा बढ़ाते हैं और पर्यावरण संरक्षण करते हैं। फूलों को मृतक देह पर चढ़ाना जड़ पूजा ही है। कई परिवारों में सुहागिनों के मृत देह को अंतेष्टि से पूर्व साज सामग्री से सजाने की परम्परा चल पड़ी है। ऐसे कर्म पाप कर्मो की कोटि में आते हैं। अस्थियों को पवित्र नदियों में बहाने से नदियों के जल को दूषित कर दिया जाता है। यह सब जानते हैं कि जल ही हमारा जीवन है। ऐसे पाप कर्मो से स्वयं को बचाया जा सकता है। ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने संस्कार विधि में अंतेष्टि संस्कार की विधि का जो वर्णन किया है सभी आर्य जनों को उस का पालन करना चाहिए और साथ ही अपने परिचितों को भी प्रेरित करना चाहिए।आर्ष ग्रंथों के स्वाध्याय से बुद्धि तीव्र सूक्ष्मरूप और तार्किक हो जाती है, जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण कर सकती है।आर्ष ग्रंथों के नियमित स्वाध्याय से हम नित्यप्रति ज्ञान-विज्ञान बढ़ाकर स्वयं के तथा अन्य लोगों के भी अनेकों संशयों व जिज्ञासाओं का समाधान कर सकते हैं।
परमात्मा से प्रार्थना है कि हमारी आर्ष ग्रंथों के स्वाध्याय की रूचि बने।
ओ३म् शम्।
राज कुकरेजा /करनाल
Twitter@ Rajkukreja 16

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