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जीवन का सुनहरा काल

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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सूर्य उदय को जीवन के शैशव काल से, तो सूर्य अस्त को जीवन की वृद्ध अवस्था से उपमा दी जाती है। वृद्ध के लिए महत्वपूर्ण यह नही कि हमारी आयु क्या है …महत्वपूर्ण यह है कि हम किस आयु की सोच रखते हैं।…आज की परिभाषा में वृद्ध व्यक्ति को वरिष्ठ नागरिक और वैदिक काल की चार आश्रम व्यवस्था ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संयास ) के आधार पर वानप्रस्थी कहा जाता है।वृद्ध का लौकिक भाषा में वृद्धावस्था व बुढ़ापे के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द है, जिसे जीवन संध्या भी कहा जाता है। जीवन संध्या निराशा उत्पन्न करने वाला शब्द है, यथार्थता यह है कि इस काल में निराशा का कोई स्थान नहीं है।यह तो वह काल है जब व्यक्ति ज्ञान व अनुभव में समृद्ध होता है।अब वह अपने ढंग से जीवन जीने में स्वतंत्र होता है। व्यक्ति के जीवन काल पर दृष्टि पात करें तो प्रथम काल अध्ययन काल, महत्वाकांक्षाओं, प्रतियोगिताओं और संघर्ष का काल है। गृहस्थ काल पारिवारिक उत्तरदायित्वों का है। यह काल संबंधों को निभाने का काल माना गया है। इस काल में विचार न भी मिलते हों परंतु जन्म संबंध और धर्म संबंधों को अधिक महत्व देना होता है।

 

 

वरिष्ठ नागरिक (वानप्रस्थ ) ही एक ऐसा काल है जब व्यक्ति अपने कार्य क्षेत्र से निवृत हो जाता है, पारिवारिक, आज के परिवेश में कहें तो एक या दो बच्चे ही परिवार कहे जाते हैं, उनके उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाता है। बच्चे अपने कार्य क्षेत्र से जुड़ चुके होते है व परिणय सूत्र में भी बंध गए होते हैं।अध्ययन काल व गृहस्थ धर्म के कर्तव्य कर्मों के पालन में व्यक्ति इतना खो जाता है कि उसके पास समय ही कहाँ है कि वह अपनी रूचि अनुसार कुछ पल गुज़ार सके।अपनी ही रूचि अनुकूल जीवन जीने का यही सुनहरा काल है।आजकल हम पच्चीस, पचास और पचतर ( silver, golden, diamond jubilee ) वर्षों को उत्सव के रूप में मनाते हैं। सेवा निवृत्ति को भी एक बड़े आयोजन के साथ मनाने की परम्परा भी यही संकेत करती है कि व्यक्ति सम्मानपूर्वक अपने सेवा क्षेत्र से मुक्त हो गया है। इस दृष्टि से सेवा निवृत्ति के बाद का काल सुनहरा काल है, जिस पर पूर्णतया हमारा ही अधिकार है।

हम अपनी दैनिक दिनचर्या का प्रारम्भ ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना से करें जिसकी कृपा से एक और सुनहरा दिन मिला है।अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना होता है।भोजन की मात्रा कम और पौष्टिक, अपनी पाचन शक्ति के अनुरूप लेने से स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है।अस्वस्थ होना किसी प्राकृतिक नियम की अवहेलना मात्र है। प्रातःकाल और सांयकाल के भ्रमण को दिनचर्या का अभिन्न अंग बनाएँ ।पास के पार्क में जाकर अपने सामर्थ्यानुकूल हल्का फुल्का व्यायाम करें। भ्रमण काल और पार्क ही ऐसा स्थान है, जहां लोगों से परिचय होता है, विचारों का आदान प्रदान होता है।और यही परिचय प्रगाढ़ मैत्री का रूप धारण कर लेती है, यही मित्र सुख-दुःख के साथी बन जाते हैं, हमारी कुशल क्षेम के शुभ चिन्तक और विचार-विमर्श के सच्चे साथी। इस लिए बडा़ ही सुन्दर कहा जाता है कि -No body understands the reason,

Why we all meet in the journey of life!

We may not be related by blood,

We may not know each other from the beginning,

BUT God puts us together to be wonderful RELATION by Heart

हमारे कई साथी सेवा निवृत्ति के पश्चात खिन्न व चिड़चिड़ा स्वभाव वाले बन जाते हैं।समय इनके लिए बोझ बन जाता है।वे समझ नहीं पाते कि समय का सदुपयोग कैसे करें? इसका मुख्य कारण वर्तमान काल  में कम्प्यूटर जो कि latest technology है, आधुनिक विज्ञान की अद्भुत देन है को नहीं सीखते। यह कह कर इस की उपेक्षा कर देते हैं कि यह सब बच्चों के लिए है।प्रारंभ में हम भी यही भूल करते रहे हैं और अब अपने बच्चों के आभारी हैं जिन्होंने न केवल हमें प्रोत्साहित किया है अपितु हमारी इस मिथ्या धारणा का निवारण भी  किया है इसे सीखाने में पूरा सहयोग किया है। फलस्वरूप आज हम सोशल मीडिया का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। कम्प्यूटर में सब आयु वर्ग के लिए है तथा सब लोगों की रूचि के अनुसार विषय सामग्री उपलब्ध है। यह बहुत बड़ा सागर (ocean) है।ऐसा कोई विषय नहीं है जो इससे अछूता रह गया है।कम्प्यूटर द्वारा सारे विश्व से जुड़ सकते हैं। सुनहरा जीवन काल बनाने के लिए कम्प्यूटर को भी अपना जीवन साथी बना लें।

सेवा निवृत्ति के बाद हमारा यह कर्तव्य भी बनता है कि परिवार के संकुचित क्षेत्र से निकल कर समाज के विस्तृत क्षेत्र में प्रवेश करें और निष्काम भाव से  समाज के सेवा कार्यों में स्वयं को समर्पित कर दें।सेवा काल में समय अभाव के कारण ऐसे बहुत से कार्य थे, जिन्हें चाह कर भी हम नहीं कर पाते थे, इन कार्यों में महत्वपूर्ण कार्य स्वाध्याय है।अब समय है कि आर्ष ग्रंथों के स्वाध्याय का अभ्यास बनाएं। आर्ष ग्रंथों के स्वाध्याय से समय का न केवल सदुपयोग होता है बल्कि इस काल में ध्यान (Meditation), अध्ययन, वार्तालाप और स्नेह हमारे जीवन के प्रमुख अंग बन जाते हैं और जीवन शैली में अद्भुत परिवर्तन अनुभव होने लगता है क्योंकि ध्यान से स्मृति बढ़ती है, अध्ययन से ज्ञान बढ़ता है, वार्तालाप से स्नेह बढ़ता है और स्नेह से मैत्री बढ़ती है ।
स्वाध्याय करने से इस परिणाम व निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि यह जीना व मरना दोनों अपने आप में अद्भूत कलाएँ हैं।

यह जीवन के प्रति नकारात्मक सोच है कि—“जीवन केवल चार दिन का है और वे चार दिन भी दो दिन आरजू में और दो दिन इन्तज़ार में कट जाते हैं”  इस सोच वाले निराश व उदास रहते हैं। जीवन में दु:खों के लिए कौन उतरदायी है?, ना हमारी संतान, ना भगवान, ना गृह-नक्षत्र, ना संबंधी, ना पड़ोसी, ना सरकार। सैंकड़ों कारण हो सकते हैं जिनके कारण हम जीवन में कष्ट उठाते हैं और बिना कारण दोषारोपण दूसरों पर करते हैं।  यदि हम इन कष्टों के कारणों पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार करें तो पाएँगे कि कहीं न कहीं हमारी अपनी सोच व निर्बलताएं ही इनके पीछे हैं। हमारे दु:खों का मुख्य कारण अन्यों से अपेक्षाएँ रखना और दूसरों के कर्तव्यों पर अपना अधिकार समझना है। कोई किसी को न सुख देता है, न दुख।दूसरों ने हमें यह सुख दिया है अथवा दुख दिया है यह कुबुद्धि है।सत्यता तो यह है कि जब दूसरे हमारे बिना रह सकते हैं, हम भी रहने का अभ्यास तो कर सकते हैं।ऐसा करने से स्वयं को सांत्वना मिलती है और कुछ अंशों तक उद्विग्नता भी नहीं रहती।गिले-शिकवे, निंदा-चुग़ली से व्यक्तित्व पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो दूसरी ओर सर्वे भवन्तु सुखिना: का भाव चितपट पर सकारात्मक छाप छोड़ता है।

जीवन जीने के  बस दो ही रास्ते हैं -:या तो परिस्थितियों के साथ चलें, और खुश रहें। या परिस्थितियों को बदलने की ज़िम्मेदारी लें। शिकायत नहीं करें। इस समय परिस्थिति को बदलना संभव नहीं लगे तो परिस्थिति के साथ चलने का अभ्यास तो बना ही सकते हैं। परिस्थितियाँ कभी समस्या नहीं बनती, समस्या इसलिए बनती है, क्योंकि हमें उन परिस्थितियों से लड़ना नहीं आता। परिस्थिति नहीं बदल सकते, जीवन शैली  का दृष्टिकोण तो बदल ही सकते हैं। मन में केवल सकारात्मक विचार डालें। कोई भी व्यक्ति केवल इस लिए प्रसन्न नहीं दिखाई देता कि उसे कोई परेशानी नहीं है बल्कि इस लिए प्रसन्न रहता है कि उसका जीवन जीने का ढंग सकारात्मक है। जीवन जीने का सकारात्मक ढंग हमें एक परिचित सज्जन से मिल कर हुआ, जो रक्षा मंत्रालय से उच्च पद से सेवा निवृत हुए थे, सपत्नीक वानप्रस्थ आश्रम में एक कमरे में रह रहे थे, उन्हें मिल कर जानने की जिज्ञासा हुई कि वे वहाँ कैसे? उन्होंने बताया कि परिवार में उनके दो बच्चे, एक बेटी है जिसका विवाह सम्पन्न परिवार में कर दिया है, वह अपने कार्य क्षेत्र और गृहस्थी में व्यस्त है।बेटे का विवाह भी हो गया है।पुत्रवधू अलग विचारों वाली है और घर का शांत वातावरण अशांत न हो, वे यहाँ आ गए हैं। यहाँ आकर वे जीवन का भरपूर आनन्द उठा रहे हैं। बीच बीच में बच्चों से मिलने चले जाते हैं और बच्चे भी यहाँ मिलने आ जाते हैं।अपने अर्जित ज्ञान व अनुभव केवल आश्रम वासियों के साथ नहीं अपितु आस पास के ग्रामीण क्षेत्र वासियों के साथ भी बाँट रहे हैं। इसका श्रेय पुत्रवधू को देते हैं। इस आनन्दित जीवन के लिए पुत्रवधू के आभारी हैं।

कोई भी खाली तो सारा दिन बैठ नहीं सकता। मन, वाणी अथवा शरीर से कुछ न कुछ कर्म अवश्य ही करेगा।सम्पूर्ण जीवन में शरीर व वाणी की अपेक्षा मनसे अधिक कर्म करता है। मानसिक सामर्थ्य का उपयोग न करने से एक प्रकार से मन कमज़ोर बन जाता है जिससे अनेक मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।वृद्ध अवस्था की सीमा निर्धारित करना मुश्किल है कि मनुष्य कब बुढ़ा होता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि कोई भी व्यक्ति बूढ़ा नहीं होना चाहता। लौकिक भाषा में वृद्ध या बुढ़ा आदमी तब होता है जब इन्द्रियाँ शिथिल होने लगती हैं और शरीर की सुन्दरता झुर्रियों में बदलने लगती हैं। प्रश्न यह है कि आखिर हम सब बुढ़ापे से इतना क्यों डरते हैं? सबसे बड़ा भय तो यही रहता है कि दूसरे लोग हमें बुढ़ा न समझें।इस शारीरिक बुढ़ापे से सब बचने का प्रयास करते हैं। बुढ़ापा तो बिना निमंत्रण दिए ही आता है, जिस प्रकार यौवनावस्था जा कर वापिस नहीं आती तो बुढ़ापा भी आ कर वापिस नहीं जाता। बुढ़ा होना है, उससे डरते हैं। पति-पत्नी इस आशंका से भयभीत रहते हैं कि जीवन साथी कहीं बिछड़ न जाए? क्या जीवन को डर कर ही बिताने का नाम जीवन है? आश्चर्य तो इस बात का भी है कि हम सत्य से अधिक भयभीत रहते हैं।यही सत्य है कि मृत्यु अवश्यम्भावी है।हम उससे डरते क्यों हैं?

जो व्यक्ति निराश है उदास है, इस निराशा और उदासी से बचने के लिए क्या करे? इसके लिए सबसे पहले ईश्वर पर विश्वास रखे। ईश्वर सबका रक्षक है वह हमारी भी रक्षा करेगा। जीवन में यदि खुश रहना है तो स्वयं को शान्त सरोवर की तरह बनाएं जिसमें कोई अंगारा भी फेंके तो खुद बखुद ठंडा हो जाए। इस स्वर्ण काल को सुखमय बनाने के लिए हानिकारक एवं अनावश्यक वस्तुओं का तथा हानिकारक एवं अनावश्यक विचारों का संग्रह न करें। चित को सदा प्रसन्न रखें। ऋषियों ने चित की प्रसन्नता  के लिए कुछ विशेष उपयोगी सुनहरे गुर बताए हैं, उनका पालन करने से चित सदा प्रसन्न रहता है।जीवन में खुशियां अधिक हैं, दुःख कम हैं, सोच को बदलें, हमेशा अपने आशीर्वादों को गिनते रहें हमारे पास जो है उसमें आनन्दित रहें। जो नहीं है उसे सोचना छोड़ दें। दु:ख में भी सुखी रहे सकते हैं, सोचें कि जो हमारे पास है वह कितनों के पास नहीं है। अपने व्यवहार द्वारा स्वयं हर्षित रहें और अन्यों को भी हर्षित करें। अपने पास जो कुछ भी विद्या, धन और बल आदि है समय पड़ने पर उसे स्नेह, सम्मानपूर्वक दूसरों के साथ बाँटने से आनन्द की विशेष अनुभूति होती है। संसार भर में जो-जो सुखी हैं और सुख के साधनों से सम्पन्न हैं, उन सभी लोगों के प्रति मित्रता की भावना, दुःखी प्राणियों के प्रति करुणा की भावना करनी चाहिए। असहाय के दुःखों को दूर करना करुणा कहलाती है। जो अच्छे-नेक-पुण्य कर्म करने वाले हैं, उनको देख कर प्रसन्न रहें और जो बुरे अशुद्ध मानवीयता से विरूद्ध पाप कर्म करने वाले हैं उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखें।

विद्वानों का भी यही मानना है कि हम अपने जीवन काल में कुछ ऐसे सत्कर्म जरुर कर लें कि मृत्यु के बाद हमारी आत्मा की शान्ति के लिए दूसरों को शान्ति सभाएं व प्रार्थनाएं ना करनी पड़े। दूसरों के द्वारा की गई प्रार्थनाएं हमारे बिल्कुल भी काम आने वाली नहीं हैं। अपना किया हुआ काम व दान ही काम आता है। मन की भूमि पर ऐसे बीज न बोंये कि कल उन की फसल काटते समय आंसू बहाने पड़े। सत्कर्मों के करने का भी सेवा निवृत्ति काल ही एक सुनहरा अवसर है।आईए इस अवसर का यथोचित लाभ उठाएँ।

काव्य में बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में जीवन शैली को कवि ने पिरोया है—

हिम्मत न हारिए, प्रभु न विसारिए,

गिले शिकवे करके अपना हाल न बिगाड़िए, जैसे प्रभु राखे वैसे ज़िन्दगी गुज़ारिए ।

 

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