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जीवन यात्रा

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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जीवन यात्रा

जन्म से मृत्यु पर्यन्त का काल जीवन है l आत्मा का शरीर के साथ संयोग जन्म है l जन्म की व्याख्या ऋषि दयानन्द सरस्वती जी उपदेश-मंजरी ( जिस में पूना में दिए गये पन्द्रह व्याख्यान हैं) में कहते हैं कि शरीर के व्यापार और क्रिया करने योग्य परमाणुओं का संघात जब होता है तब जन्म होता है, अर्थात सब साधनों से युक्त होकर क्रिया-योग्य जब शरीर होता है, तब जन्म होता है, सारांश यह है कि इन्द्रिय, प्राण और अन्तः करण ये शरीर के मध्य जब उपयुक्त होते हैं, तब जन्म होता है l जन्म अर्थात शरीर और जीवात्मा का संयोग l शरीर और जीवात्मा का वियोग मरण अर्थात मृत्यु कहलाता है l आत्मा सत-चित-स्वरूप है, आत्मा शरीर नहीं है l आत्मा नित्य, अजर, अमर है l यह शरीर आत्मा का निवास स्थान है l आत्मा का अपना कोई रूप-रंग व आकार नहीं है, जैसा शरीर धारण करता है, वैसा ही दिखने लगता है l शरीर का मिलना अपने किये शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरूप होता है l हमारे कर्मों के अनुसार ही हमें मानव शरीर मिला है l शरीर का स्वरूप, बुध्दि, स्वास्थ्य आदि भी जो प्रभु प्रदत हैं, वे हमारे पिछले कर्मों के अनुसार हैं l ऋषि पतंजली जी योग दर्शन में स्पष्ट करते हैं कि कर्मो का फल जाति, आयु, और भोग रूप में मिलता है l जाति अर्थात मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट आदि शरीर का मिलना l आयु अर्थात इस शरीर के अनुसार जीवन काल l भोग का अर्थ इस शरीर के अनुसार भोग्य पदार्थो की प्राप्ति l यह जाति, आयु और भोग, शुभ और अशुभ कर्मों से उत्पन्न होने के कारण सुख और दुःख रूपी फल वाले होते हैं l अर्थात पुण्य कर्मों से मनुष्य को सुख दायक जाति, आयु और भोग मिलते हैं l पाप कर्मों से पशु, पक्षी, आदि के दुःख दायक जाति, आयु और भोग मिलते हैं l
मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य भी ऋषि लोगों ने जो निर्धारित किया है, उस की पूर्ति भी जीवन काल में सम्भव है l मानव जीवन का उदेश्य है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति l धर्म–जो सत्य व न्याय का आचरण है, अर्थ जो धर्म से पदार्थों की प्राप्ति करना है, काम–जो धर्म और अर्थ से इष्ट पदार्थों का सेवन करना है और मोक्ष–जो सब दुःखों से छुट कर पूर्ण आनन्द में रहना है l ऋषि गौतम जी जो न्याय दर्शन के रचयिता हैं, लिखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को तीन ऋणों से मुक्त होना अनिवार्य है जो इस जीवन काल में होना ही सम्भव है l पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण l जिस में प्रथम ऋण तो संतानोत्पत्ति के द्वारा अपनी वंश परम्परा को संचालित रखने से पूरा होता है l दूसरा देव ऋण संध्या, उपासना और यज्ञ आदि पुण्य कर्मों के करने से पूरित होता है l अंतिम तीसरा ऋषि ऋण वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना और उससे सम्बन्धित संस्थाओं को यथा सम्भव सहयोग करके व्यक्ति इन ऋणों से मुक्त हो सकता है l
ऋषियों ने जीवन काल को चार भागों में बांटा है l ये जीवन काल के चार पड़ाव हैं l प्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम है l यह आश्रम विद्या अध्ययन का काल
गया है l दूसरा गृहस्थ आश्रम जिस में विवाह संस्कार, संतानोत्पत्ति और सन्तान का लालन-पालन मुख्य कर्तव्य माना गया है l तीसरा आश्रम वानप्रस्थ जिस में व्यक्ति, जब सन्तान की सन्तान उत्पन्न हो जाए, पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत हो कर अर्थात पारिवारिक उत्तरदायित्वों का भार सन्तान को सौंप कर, वस्त्रादि सब उत्तमोत्तम पदार्थो को छोड़, दृढ़ इन्द्रिय हो कर वन में जा कर वसे l वानप्रस्थी होकर नाना प्रकार की तपश्चर्या, सत्संग, योगाभ्यास और सुविचार से ज्ञान और पवित्रता प्राप्त करे l पश्चात सन्यास ग्रहण करे l सन्यासी को उचित है कि परिव्राजक बन कर सारे जगत में घूमे और सत्य-विद्या का सदुपदेश करे l यही सन्यासी का मुख्य कर्त्तव्य कर्म है l
ईश्वर की असीम कृपा से प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतंत्र है l जीवन यात्रा में जीव अपना मार्ग स्वयं चयन करता है l यात्रा के दो ही मार्ग हैं l प्रेय मार्ग और श्रेय मार्ग l ये दोनों बिल्कुल विपरीत हैं l पृथक-पृथक फलों को देने वाले हैं l प्रेय मार्ग जो इन्द्रियों को प्रिय है l अर्थात संसार के सभी भोग्य पदार्थ जो विभिन्न प्रकार के दुःखों से युक्त, विकारी, अनित्य और क्षणिक-सुखदायी हैं, उन में सुख की भावना रखना l सबसे बड़ी भूल मनुष्य करता है कि भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करना अपने जीवन का उद्देश्य मान लेता है l परिणाम स्वरूप उपलब्धियों को प्राप्त करके और तृष्णा लालसा को बढ़ा लेता है जिस से मनुष्य को अतृप्ति, असंतोष, भय, परतन्त्रता और दुःख ही हाथ लगता है l तृष्णा के स्वरूप को श्री भर्तृहरि वैराग्यशतक में बड़ा सुंदर वर्णन करते हैं कि—
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता , तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः |
कालो न यातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः |
श्लोक का भाव है कि हम सांसारिक विषय भोगों का उपभोग नहीं करते, अपितु भोग ही हम को भोगते हैं l हमने तप नहीं किया, बल्कि तीनों ताप (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) जीवन भर हमें ही तपाते रहे l भोगों को भोगते-भोगते काल को हम ही नहीं काट पाए, काल ने हमको ही नष्ट कर दिया l तृष्णा तो बूढ़ी नहीं हुई, हम ही बूढ़े हो गये l
श्रेय मार्ग यह आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है l श्रेय पथ पर मनुष्य तृष्णा लालसा को समाप्त कर सकता है l ये सब भौतिक पदार्थ हमारे लिए साधन मात्र हैं, हम इन के लिए नहीं, ये हमारे लिए बने हैं l हमें इन का दास नहीं होना चाहिए प्रत्युत हमें महान उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इन्हें अपना सहायक समझ उचित सीमा तक इन साधनों का प्रयोग करना चाहिए l जब ऐसा बोध हो जाता है l तब सीधा अध्यात्म का मार्ग खुल जाता है l इस श्रेय मार्ग पर प्रगति करता हुआ जीव मोक्ष का अधिकारी बन जाता है l कठोपनिषद में यमाचार्य नचिकेता कोभी यही उपदेश देते हैं कि एक श्रेय मार्ग है, दूसरा प्रेय मार्ग है दोनों के लक्ष्य पृथक-पृथक हैं ये दोनों पुरुष को बांधते है l इन में से जो श्रेय का अवलम्बन करता है, उस का कल्याण होता है l जो प्रेय को चुनता है, वह असली उद्देश्य से गिर जाता है l श्रेय और प्रेय दोनों मनुष्य को प्राप्त होते हैं l बुद्धिमान परीक्षा करके उन में भेद करता है l बुद्धिमान प्रेय की अपेक्षा श्रेय को चुनता है, किन्तु मंदबुद्धि मनुष्य योग-क्षेम देने वाला होने से प्रेय को अधिक पसंद करता है l प्रेय मार्ग में पड़े हुए मनुष्य स्वयं को बुद्धिमान और पंडित मानने लगते हैं परन्तु यही मूढ़ जन होते हैं, ये अंधे से ले जाए जाते हुए, अंधों की तरह ठोकरे खाते हुए मारे-मारे फिरते हैं अर्थात जन्म और मृत्यु के चक्र में पिसते रहते हैं l
हमारे ऋषि-मुनियों ने और धार्मिक शास्त्रों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि ज्ञान के कारण ही मनुष्य को संसार में सर्वश्रेष्ठ प्राणी का गौरव मिला है और मनुष्य जीवन अनेक पुण्यों का फल है l इसलिए मानव जीवन दुर्लभ है और अमूल्य है l मनुष्य जीवन से बढ़ कर और कुछ कीमती नहीं है l मानव जीवन की महत्ता को कवियों ने व भजनोपदेशको ने अपनी कविताओं व भजनों के स्वरों में बड़े ही सुंदर ढंग से पिरोया है l
इस नर तन को पाना, बच्चों का कोई खेल नहीं |
जन्म-जन्म के शुभ कर्मों का, होता जब तक कोई मेल नहीं ||
हम समय रहते उठें, जागे और स्वयं को सम्भाले तथा अपने महान ऋषि-मुनियों के प्रशस्त मार्ग का अनुसरण करें, जिन्होंने अपनी जीवन यात्रा को बड़ी समझदारी से, सावधानी से, ज्ञानपूर्वक, जागरूकता और उद्देश्य पूर्ण ढंग से जी है और सम्पूर्ण विश्व के प्रकाश स्तम्भ बन गये हैं l बुद्धिमान लोग उन की जीवन यात्रा से प्रेरित और लाभान्वित हो रहे हैं l जीवन प्रवाह को धीरे-धीरे भौतिक जगत से अध्यात्म की ओर मोड़ जीवन यात्रा में अगली यात्रा के लिए सुखद सामान जुटाने का प्रयास कर रहे हैं l हम अपने जीवन काल में कुछ ऐसे सत्कर्म जरुर कर लें कि मृत्यु के बाद हमारी आत्मा की शान्ति के लिए दूसरों को शान्ति सभाएं व प्रार्थनाएं ना करनी पड़े l दूसरों के द्वारा की गई प्रार्थनाएं हमारे बिल्कुल भी काम आने वाली नहीं हैं l अपना किया हुआ काम व दान ही काम आता है l मन की भूमि पर ऐसे बीज न बोंये कि कल उन की फसल काटते समय आंसू बहाने पड़े l
जीवन का प्रारम्भ जन्म से होता है तो अंत मृत्यु से होता है l जन्म और मृत्यु यह दोनों जीवन के दो छोर हैं एक प्रारम्भ तो दूसरा अंत l मृत्यु से पूर्व अपने जीवित काल में ही शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं परन्तु मृत्यु के उपरान्त ईश्वर की न्याय व्यवस्था में बंध जाते हैं और किये हुए कर्मों का फल कर्त्ता को ही भोगना होता है l ऋषि दयानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं कि अपने सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतंत्र, परन्तु जब वह कर्म कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन हो कर फल भोगता है l मृत्यु के उपरान्त कुछ कर्तव्य परिवार वाले मृतक के प्रति करते हैं जिसे अंत्येष्टि संस्कार कहा जाता है l मृतक के प्रति और कोई कर्तव्य शेष नहीं बचता है l आजकल मृतक पर चादरें और फूल चढ़ाने की परम्परा चल पड़ी है जो अवैदिक और एक अंध परम्परा है l जड़ शरीर पर चढ़ाने के लिये चेतन फूलों का जीवन लेना कहाँ की बुद्धिमता है? ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने संस्कार विधि में अंत्येष्टि संस्कार की विधि का जो वर्णन किया है सभी आर्य जनों को उस का पालन करना चाहिए और साथ ही अपने परिचितों को भी प्रेरित करना चाहिए l चादरों और फूलों के बदले अधिक से अधिक सुगन्धित सामग्री और घृत की आहुतियाँ दें, जिससे पर्यावरण दूषित नहीं होगा और सामग्री तथा घृत भेंट करने वाले पुण्य के भागीदार भी बन जायेंगे l परिवार में कुछ दिन चाहें तो यज्ञ का आयोजन करवा सकते हैं और करवाना भी चाहिए यह एक अच्छी परम्परा है, और वैदिक विद्वान द्वारा प्रवचन करवाना और धर्मोपदेश की प्रवृति के लिए भी संस्थानों को जितना धन चाहें दान करें l इस प्रकार अच्छी परम्पराओं का पालन करना चाहिए l
जीवन का सार यह है कि ईश्वर ने अति चंचल, नश्वर संसार में हम जीवों की स्थिति की है, उस में भी पत्ते के तुल्य शीघ्र गिर जाने वाले शरीर में हमारा निवास कराया है l ऐसे नश्वर संसार और क्षण भंगुर शरीर में रहते हुए भी संसार और शरीर को नित्य अविनाशी जान कर हम जीव जगतपति प्रभु को भुला देते हैं l संसार में ऐसे फंस जाते है कि ईश्वर की वेद वाणी में रूचि नहीं रखते और न ही वेदवेत्ता महात्माओं के संग में ही श्रद्धा रखते हैं l ईश्वर वेद मन्त्रों के माध्यम से उपदेश करते हैं कि सत्संग करें l वेदवाणी पढ़े-सुने और व्यवहार में लायें l प्रेम से ईश्वर की भक्ति करके अपना लोक-परलोक सुधारें l

भरोसा कर तू ईश्वर पर, तुझे धोखा नहीं होगा |
यह जीवन बीत जाएगा, तुझे रोना नहीं होगा ||

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