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ईश्वर-प्रणिधान

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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ईश्वर-प्रणिधान
एक सन्यासी जी ईश्वर-प्रणिधान पर चर्चा कर रहे थे कि इस का सीधा सा अर्थ है समर्पण करना या समर्पित हो जाना. ईश्वर से प्रिय किसी को न मानना ही ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है. जैसे बालक को सबसे प्रिय माँ होती है. माँ से बिछुड़े हुए बालक के सामने सब लौकिक आकर्षण फीके होते हैं. उसे तो केवल माँ ही चाहिए. माँ ही बालक की श्रद्धा, निष्ठा व विश्वास की मूर्ति है. इसी से सम्बन्धित सन्यासी जी ने अपने जीवन का एक प्रसंग सुनाया कि एक नन्हा बालक माँ का कहना नहीं मानता था. अपनी हर बात मनवाने की ज़िद करता और माँ भी मोह वश उस की हर ज़िद के सामने अपने घुटने टेक देती. एक दिन जब बालक माँ का कहना नहीं मान रहा था तो उसी समय माँ की नज़र बाहर पार्क में टहलते हुए मुझ सन्यासी पर पड़ी. माँ ने बालक को धमकाते हुए कहा कि देखो यदि कहना नहीं मानोगे तो सन्यासी बाबा तुम्हें पकड़ कर ले जायेंगे. सन्यासी बाबा की धमकी से बालक माँ का कहना मान लेता. माँ को अब बालक से बात मनवाने का मानो हथियार मिल गया. एक दिन मैं परिवार से मिलने उन के घर गया. सन्यासी को आया देख बालक झट माँ की गोद में बैठ गया. जब भी मेरी दृष्टि बालक पर पड़ती, बालक मुझे क्रोध भरी नजर से देख कर अपनी मुठ्ठी तान लेता. मैंने माँ से पूछा कि बालक उस की ओर मुठ्ठी क्यों तान रहा है. माँ ने बताया कि आप का डर दिखा कर हम इस से काम करवा लेते हैं और अब मेरी गोदी में बैठा स्वयं को शेर समझ आप को मारने की धमकी दे रहा है.
आश्चर्य है ! कि एक सांसारिक माँ जो अल्प सामर्थ्य, अल्प बल और अल्प क्रिया वाली है, जिस माँ के साथ तो सम्बन्ध भी अनित्य है, उस की गोद में बैठा बालक स्वयं को निडर एवं निर्भीक समझ रहा है. बालक माँ की गोद में सुरक्षित है, उसे माँ पर पूरी श्रद्धा व विश्वास है. अध्यात्मिक जगत में ईश्वर ही जगत्जननी परम करुणामयी जगदम्बा है, हम सब की माँ है. यह माँ तो स्वयं अपने अनंत गुण-कर्म-स्वाभावों से तथा अपने बनाये दिव्य गुण युक्त जड़ व चेतन पदार्थों से हम सब मनुष्यों की निरंतर सब प्रकार से रक्षा कर रही है. यह माँ तो अत्यंत सामर्थ्य, अत्यंत बल एवं अत्यंत क्रिया वाली है और सकल ऐश्वर्य युक्त है. इस माँ के साथ तो नित्य सम्बन्ध है, जो अनादि काल से है और अनादिकाल तक रहेगा. इस माँ के सदृश हितैषी और कोई नही है. यही माँ ही हम सब की पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों को देने वाली है, विडम्बना यह है कि इस माँ पर बालक के समान अटूट विश्वास कोई विरला ही रख पाता है.
महर्षि पतंजली जी प्रणीत योग दर्शन में योगमय जीवन बनाने के लिए विविध उपाय बताये हैं. इन उपायों में एक उपाय ईश्वर-प्रणिधान भी है. प्रणिधान का अर्थ भक्ति विशेष हैं. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी स्तुति-प्रार्थना-उपासना के मन्त्रों के अर्थों में विधेम शब्द का अर्थ लिखते हैं कि ईश्वर की विशेष भक्ति किया करें. भक्ति का अर्थ भी ऋषि स्पष्ट करते हैं कि ईश्वर की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें अर्थात अपने आत्मा को परमेश्वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवें. समर्पित व्यक्ति ईश्वर से अधिक प्रिय किसी को नहीं मानता, ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल ही आचरण करते हुए, प्रत्येक कार्य ईश्वर को समर्पित करता है, और लौकिक फल की कामना नहीं करता. शरीर, बुद्धि, बल, धनादि समस्त साधनों का प्रयोग ईश्वर प्राप्ति के लिए ही करता है. भौतिक उपलब्धि जैसे धन, मान, प्रतिष्ठा यश आदि की प्राप्ति के लिए नहीं करता. ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी है. शरीर, वाणी तथा मन से कार्य को करते हुए मन में यह भावना बनानी चाहिए कि ईश्वर मेरी प्रत्येक चेष्टा को देख रहे हैं. इस लिए मैं छुप करके कोई भी कर्म नहीं कर सकता. मन, वाणी एवं शरीर से किये हुए सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर दें अर्थात जो कर्मों का फल मिले उसी को सहर्ष स्वीकार करना. मनुष्य की यह दुर्बलता है कि किये हुए शुभ कर्मों का फल तो अधिक चाहता है और अशुभ कर्मो का फल प्रथम तो चाहता ही नहीं, सोचता है कि क्षमा मांगने से फल नहीं मिलेगा या फिर कम मिलेगा. ऐसा समझना ईश्वर-प्रणिधान के विपरीत भावना है. न्यायकारी ईश्वर को न्यायकारी मानना ही ईश्वर प्रणिधान है.
अधिकांश लोग ईश्वर-प्रणिधान की विधि को ही नहीं जान पा रहे हैं. जिस ईश्वर की आज्ञा पालन करनी है, प्रथम उस के स्वरूप को शब्द प्रमाण से जानें. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी आर्योद्देश्यरत्नमाला में लिखते हैं ” ईश्वर-जिस के गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतन मात्र वस्तु है तथा एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्रव्यापक, अनादि और अनंत आदि सत्य गुण वाला है और जिस का स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनंदी, शुद्ध न्यायकारी, दयालु और अजन्मा आदि है. जिस का कर्म जगत की उत्पति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप पुण्य का ठीक-ठीक फल पहुंचाना है.” अधिकांश लोग ईश्वर के स्वरूप को नहीं समझ पा रहे हैं. परिणाम स्वरूप कितनी हानि हो रही है. बड़ी विडम्बना है कि ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न समझ कर अपने मन माने ईश्वर बना लेते हैं. वास्तविकता यह है कि सब विचार शील लोगों का आत्मा यह साक्षी देता है कि सृष्टि नियम विरुद्ध चमत्कार में विश्वास अज्ञानता व मूर्खता है. हमारी इस मूर्खता का लाभ स्वार्थी बाबा लोग गुरुडम के सहारे जो आजीविका चलाते हैं, जनता को भयभीत करने का वातावरण बनाते हैं और यही धूर्त लोग भयभीत व्यक्ति का सब प्रकार से शोषण और दोहन करते हैं. आज इन बाबा लोगों की भीड़ दूरदर्शन पर देखने को मिल रही है. ईश्वर में दृढ़ विश्वास न होने के कारण ही प्रायः व्यक्ति भयभीत रहता है. सत्य तो यह है कि जो ईश्वर से डरता है, वह और किसी से नहीं डरता है और जो ईश्वर से नही डरता वह सब से डरता है. अज्ञानी बन कर दैववाद ,जंत्री-तंत्री, झाड़-फूंक, गंडे-तावीज, जादू-टोना आदि सब जो अवैदिक तन्त्र के उपकरण हैं उन में फंसते जा रहे हैं. यदि हम थोड़ी गहराई में उतर कर विचारें कि क्या हम ईश्वर परायण हैं? तो हमें ईश्वर विश्वास की सार्थकता स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगती है. प्रायः बातें तो ऐसी करते हैं जैसे हम से बढ़ कर ईश्वर विश्वासी अन्य कोई है ही नहीं किन्तु जरा सी मुसीबत में धैर्य खो बैठते हैं और अधीर हो कर कार्य ऐसे-ऐसे करते हैं जिनसे परिलक्षित होता है कि जैसे हमारी दृष्टि में ईश्वर का कोई अस्तित्व ही न हो. इस समय पीर, फकीर ,मसान, गढ़ी कब्र समाधि पेड़, पत्थर. नदी -तालाब आदि ऐसी कोई भी जगह नहीं बचती, जहाँ मानव मस्तक झुकता नहीं है. यह हमारे हितों के विपरीत है, दुर्भाग्य यह है कि हम स्वयं ही ईश्वर से दूरी बना लेते है. ईश्वर विश्वास एवं आध्यात्मिकता ही हमें बुराइयों की ओर जाने से रोकती हैं.
एक बड़ी रोचक कथा है. भक्त ने भगवान की भक्ति की और भगवान उस की भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए भक्त से कहा कि वर माँगो. भक्त बोला कि मैं कैसे विश्वास करूं कि आप सर्वव्यापक, सर्वज्ञ हो और मुझे देख, सुन जान रहे हो? तुम तो मुझे दिखाई देते नहीं हो. मैं आप को देखना चाहता हूँ. भगवान बोले कि मैं तो निराकार हूँ दिखाई कैसे दे सकता हूँ पर चूंकि तुम्हें वचन दे चूका हूँ, मैं तुम्हारे साथ-साथ रहूँगा. भक्त ने कहा कि विश्वास नहीं होता. भगवान बोले कि तुम पीछे मूढ़ कर देख लेना कि तुम्हारे दो पैरों के पीछे जो और दो पैरों के निशान होंगे वे मेरे होंगे. अब भक्त अपने पीछे मूढ़ कर देख लेता और उसे दो अपने पैरों के व दो भगवान के पैरों के निशान दिखाई देते तो निश्चिन्त हो जाता. एक बार भक्त के परिवार में एक अप्रिय घटना के होने से भक्त अपने ही शोक में इतना डूब गया कि ईश्वर को ही भूल गया. थोड़ा सम्भला तो ईश्वर का आचानक उसे ध्यान आ गया. अब उस ने मूढ़ कर जो देखा तो उसे केवल दो पैरों के चिन्ह दिखाई दिए तो घबरा कर भगवान से बोला कि मुझे मालूम था कि दुःख की घड़ी में तुम भी साथ छोड़ दोगे. भगवान से गिले शिकवे कर ही रहा था कि उसे भगवान की ध्वनि सुनाई पड़ी कि भक्त ! मैं तो तुम्हारे साथ हूँ. जो दो पैरों के निशान देख रहे हो वे तो मेरे हैं. तुम्हे तो मैंने अपनी गोद में उठा रखा था, तुम तो अपने दुःख में इतने अधीर और विचलित हो चुके थे कि तुम्हारे में चलने का सामर्थ्य ही नहीं था और उल्टा तुम अपने दुःखों का सारा दोष भी मुझ पर ही डाले जा रहे थे. भूल गये थे कि अविद्या ही सब प्रकार के दुःखों की जननी है. हाँ मुझे तुम से बहुत बड़ी शिकायत है कि तुम प्रीत तो करना चाहते हो परन्तु रीत निभाना नहीं जानते. तुम तो दुःख की घड़ी में मेरा नाम तक भूल गये कि मेरा एक नाम भुवः भी है. मैं स्वयं दुःखों से रहित हूँ और अपने उपासकों को भी दुःखों से छुड़ाता हूँ, मेरे स्वरूप का भी ध्यान तुम ने बिसार दिया कि मैं स्वः अर्थात सुख स्वरूप हूँ और अपने भक्तों को भी सुख ही पहुंचाता हूँ. पर तुम ने मुझ पर विश्वास ही नहीं किया. उल्टा अपने दुःखों का मुझे दोषी ठहरा दिया. इस वार्ता पर आक्षेप कर सकते हैं कि अवैदिक है, हम इस के भाव को पकड़ें. इस के द्वारा मुख्य उद्देश्य को उजागर करना है कि ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास और विपरीत परिस्थितयों में भी उस से सम्बन्ध बनाये रखना. यही कथा हम सब के लिए एक अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण संदेश देती है कि कैसे संकट की घड़ी में हमारा ईश्वर में विश्वास डगमगाने लगता है. मन में कितनी ही शंकाएं व संशय उत्पन्न होने लगते हैं और ईश्वर की सत्ता पर से भी विश्वास डोलने लगता है कि ईश्वर है भी या नहीं.
ईश्वर प्रणिधान से, उस सर्वशक्तिमान जगत्पिता के निरंतर सम्पर्क में बने रहने से बुद्धि, शरीर, आत्मा, मन-मस्तिष्क सब का विकास होता है. ईश्वर विश्वास हमारे आत्मिक बल को इतना बढ़ा देता है कि सम्मुख आई घोरतम विपत्ति को भी व्यक्ति हंसते-हंसते सहन कर लेता है. विपत्तियों के पहाड़ ही क्यों न टूट पड़े परन्तु विचलित नहीं होता. ईश्वर विश्वासी को किंचित भी भय नहीं होता. ऐसी श्रद्धा व विश्वास विरले लोगों में होती है, इन विरले लोगों में ही वर्तमान काल में ऋषि दयानन्द सरस्वती जी का जीवन ईश्वर-प्रणिधान से ही ओत-प्रोत था, ऐसा उन के जीवन चरित्र का स्वाध्याय करने से ज्ञात होता है. वे ईश्वर विश्वासी और सत्यवादी थे. उनके जीवन में कितनी बार कितने ही प्रलोभन आये, मगर वे कभी भी असत्य के पक्षधर नहीं बने. प्रभु भक्त होने के कारण उन में अद्भुत सहनशक्ति तथा निर्भीकता थी. वे हर क्रिया-कलाप में ईश्वर से ही आबद्ध रहते थे. ईश्वर में इतना दृढ़ विश्वास कि प्रत्येक कार्य ईश्वर की आज्ञा लेकर करना उन का स्वभाव बन गया था. जीवन की अंतिम वेला में मृत्यु द्वार पर दस्तक दे रही थी, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना कर के मानों ईश्वर से देह त्यागने की आज्ञा ले रहे हों. आदेश मिलते ही अंतिम श्वास के साथ ईश्वर का धन्यवाद किया और मुख से शब्द निकले तेरी इच्छा पूर्ण हो. अकेले दयानन्द ने ईश्वर को अपना सुरक्षा कवच बना युग को चुनौती दी थी. ऋषि दयानन्द जी व उन की अमर कृत्ति सत्यार्थ प्रकाश पूरे विश्व का प्रकाश स्तम्भ हैं. क्योंकि मार्ग दर्शक वह है, जो सदमार्ग जानता है, उस पर चलता है, और दूसरों को प्रेरित करता है, सही रास्ता दिखाता है. ईश्वर पर विश्वास उस बच्चे की तरह होना चाहिए जो स्वयं को ऊपर उछाले जाने पर डरता नहीं, हसंता है क्योंकि उसे गिरने का अहसास ही नहीं है. ऐसा ही विश्वास ईश्वर पर हो तो वो आप को कर्म पथ पर कभी गिरने नहीं देगा.
हे परमेश्वर ! मैं आप को किसी भी मूल्य पर न छोडूं. आप की आज्ञाओं को भंग न करूं, सदा आपके अनुकूल प्रिय आचरण करते हुए आपका प्रिय भक्त बन जाऊं. ऐसी आप से प्रार्थना है।
राज कुकरेजा/करनाल

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