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कर्म फल: एक अति सूक्ष्म, गहन और दुर्गम विषय

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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कर्म फल एक अति सूक्ष्म, गहन एवं दुर्गम विषय है। हमारे ॠषियों ने वेद और वेदों से संबंधित आर्ष ग्रन्थों के आधार पर कर्म फल के कुछ सिद्धांत स्थापित करने के प्रयास किए हैं। जिज्ञासु जनों की शंकाओं का समाधान पूर्णतया नहीं हो सकता। जीव अल्पज्ञ है और पूर्ण ज्ञानी भी नहीं है। केवल ईश्वर ही सर्वज्ञ है और पूर्ण ज्ञानी है। वही जानता है कि जीवों को उनके कर्मों का फल कब, कैसे, कहाँ और किस रूप में देना है।


Swami Dayanand


स्‍वामी दयानंद सरस्वती जी अार्योद्दश्यरत्नमाला में कर्म की परिभाषा बड़े ही सुन्दर ढंग से करते हैं “ जीवात्मा मन, वाणी और शरीर से जो चेष्टा विशेष करता है, उसे कर्म ( क्रिया) कहते हैं।” जो सुख-दुख जीव भोगता है, वह उसके कर्मों का फल है।


ॠषि पतंजली जी योग दर्शन के द्वितीय पाद में कर्म फल का सूत्र देते हैं कि- सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:। अर्थ- जब तक व्यक्ति में अविद्या आदि क्लेश रहते हैं, तब तक उन अविद्या आदि क्लेशों से प्रेरित होकर वह जो भी अच्छे-बुरे कर्म करता है, उन का फल जाति, आयु और भोग के रूप में मिलता है।


जाति के अन्तर्गत मनुष्य जाति, पशु जाति, पक्षी जाति और कीट इत्यादि शरीरों को लिया गया है। आयु का तात्पर्य इन शरीरों के अनुसार जीवन काल और भोग है। इन शरीरों के अनुसार भोग्य पदार्थ अर्थात घास, अन्न, फल, सब्जियां, मांस आदि खाद्य पदार्थ और घर की अन्य सुख-सुविधाओं की सामग्री का उपलब्ध होना।


जाति जन्म से मृत्यु पर्यन्त बनी रहती है, परन्तु आयु, भोग को बढ़ाया और घटाया जा सकता है। दीर्घ आयु के लिए ब्रह्मचर्य, आहार, निद्रा और व्यायाम जो निरोगता के स्तंभ माने जाते हैं, व्यक्ति इनका पालन यथावत करता हुआ आयु को बढ़ा सकता है। आजकल परिवेश अर्थात आसपास के वातावरण का भी स्वास्थ्य पर भारी मात्रा में प्रभाव पड़ता है।


प्रदूषण अनेक असाध्य रोगों की जननी है। फलस्वरूप आयु पूरी तरह से प्रभावित हो रही है और लोगों का गलत रहन-सहन और आहार का प्रभाव भी आयु को घटा रहा है। भोग को भी बढ़ाना व कम करना व्यक्ति के अपने अधिकार में है। आलस्य-प्रमाद, दुर्गुणों और दुर्व्यसनों के कारण व्यक्ति मिली सुख-सम्पदा को नष्ट-भ्रष्ट कर लेता है। दूसरी ओर पुरुषार्थ से, सात्विक जीवन शैली से व्यक्ति प्रचुर मात्रा में धन और ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है।


दर्शन शास्त्रों में कर्म के फल के साथ कर्म के परिणाम और प्रभाव को भी अत्यंत महत्वपूर्ण समझा है। फल, परिणाम और प्रभाव को इस एक घटना क्रम से सुगमता व सरलता से समझने का प्रयास करें- बालक चाकू से खेल रहा था, माँ ने मना किया। माँ को अनसुना कर दिया। चाकू से उँगली कट गई और पास खड़ी बहन, बहते रक्त को देख कर रोने लगी। रोने की आवाज़ सुनकर माँ दौड़ी आई और आते ही बालक को चांटा मारा।


इस घटना क्रम में विशेष तीन क्रियाओं (उँगली का कटना, बहन का रोना, माँ का बच्चे को चांटा मारना) को लेकर विश्‍लेषण करें, तो चाकू से उँगली का कटना कर्म का परिणाम है, पास खड़ी बहन का रोना प्रभाव है और माँ का बालक को चांटा मारना कर्म का फल है। कर्म की निकटतम प्रतिक्रिया परिणाम है और परिणाम को जानकर जो मानसिक सुख-दुःख, भय और शिक्षा का मिलना, वह प्रभाव है।


कर्म का फल केवल कर्म करने वाले को ही मिलता है अन्य को नहीं, जबकि कर्म का परिणाम और प्रभाव अन्यों पर होता है। आधिभौतिक दुःख जो दूसरे प्राणियों से मिलते हैं, सड़क व रेल दुर्घटनाओं आदि का होना, जिस कारण यात्रियों को जान-माल की क्षति को झेलना, प्राकृतिक आपदाएँ जैसे अतिवृष्टि, बाढ़, भूकम्प, सूखा पड़ना इत्यादि घटनाओं से बहुत बड़े जनसमूह का इनकी चपेट में आना।


इस प्रकार की घटनाओं से जिनसे लोगों के एक बड़े जन समूह को दु:ख का मिलना, कर्मों के फल नहीं हैं, घटनाओं के परिणाम व प्रभाव के कारण व्यक्ति को दु:ख भोगना पड़ता है। जो कर्ता को सुख-दुःख न्यायपूर्वक मिले, उसे कर्म फल और जो सुख-दुःख अन्याय से मिलता है, वह कर्मों का फल नहीं है। ऐसे कर्मों को कर्म का परिणाम और प्रभाव कहा जाता है।


इस अन्याय की क्षतिपूर्ति करने का प्रावधान भी ईश्वर की व्यवस्था में है। इस व्यवस्था को ठीक-ठीक समझ सकें ऐसी अल्पबुद्धि वाले जीवात्माओं का सामर्थ्य भी नहीं है। कई बार व्यक्ति को कम पुरुषार्थ से कार्यों की सिद्धि अनायास होती ही जाती है, तो समझना चाहिए कि ईश्वर की व्यवस्था के अंतर्गत क्षतिपूर्ति हो रही है। इस क्षतिपूर्ति को लोग अपनी मोटी भाषा में प्रायः कहा करते हैं कि ईश्वर जब भी देता है तो छप्पर फाड़कर देता है।


जीवात्मा कर्म करने में स्वतंत्र है। कर्म करने में कर्ता स्वतंत्र है। कर्ता कहते ही उसे हैं, जो कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम। चाहे तो करे, चाहे तो न करे अथवा विपरीत करे। कर्म फल भोगने में जीवात्मा परतंत्र है।


कर्मों का फल जो कर्मों को जानता है, वह ही दे सकता है। एक चोर ने एक धनी के यहाँ चोरी की, यदि ऐसा माना जाए कि चोर ने धनी को उसके किसी पूर्व कर्म का फल दिया है, तो यह न्यायसंगत नहीं है और वैदिक सिद्धांत के विरूद्ध है। क्योंकि चोर धनी के कर्मों को जानता नहीं है। यदि यह माना जाए कि चोर तो नहीं जानता कि वह धनी के किस कर्म का फल दे रहा है, परन्तु ईश्वर तो धनी के उस पूर्व कर्म को जानता है।


ईश्वर ने चोर के माध्यम से धनी के पूर्व कर्म का फल दिलाया है। यदि चोर को ईश्वर के आदेशानुसार कार्य करने वाला साधन मात्र मान लिया जाए तो चोर दोषी सिद्ध नहीं हो सकता। कारण कि उसने तो ईश्वर के आदेश का पालन किया है। ऐसा मानना भी अनुचित है, क्योंकि लोक में हम देखते हैं कि चोर के विरुद्ध कार्रवाई की जाती है और न्यायालय उसे दण्ड भी देता है।


कई बार चोर पुलिस की पकड़ में नहीं आता, इसका यह अर्थ नहीं कि वह सज़ा से बच गया है। यह चोर का एक नया कर्म है, जिसका फल उसे ईश्वर की न्याय व्यवस्था के अनुसार अवश्य ही मिलेगा। न्यायाधीश के आदेशानुसार जल्लाद किसी अपराधी को फांसी पर चढ़ा देता है, तो जल्लाद को उसकी हत्या का दोष नहीं लगता। उसने तो न्यायाधीश की आज्ञा का पालन किया है, जो उसका कर्तव्य है।


ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है। वह जीवों के मन, वाणी और शरीर से किए जाने वाले सभी कर्मों को जानता है। उसे प्रत्यक्ष प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं ही प्रत्यक्ष साक्षी है और जीवों को उनके कर्मों का फल केवल ईश्वर ही देता है।


हम लोक में देखते हैं अपराधी को उसके अपराध के सिद्ध होने पर ही न्यायाधीश उसे दंड देते हैं। न्यायाधीश के पास प्रत्यक्ष प्रमाण न होने के कारण उन्हें अनेकों अन्य प्रमाण जुटाने पड़ते हैं और यह एक बहुत लम्बी प्रक्रिया बन जाती है, जिस कारण फैसला आने में विलंब हो जाता है। न्यायाधीश के लिए गए निर्णय में भूलचूक की संभावना सदा बनी रहती है। ईश्वर की व्यवस्था में साक्षी व प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती, ईश्वर सर्वज्ञ है, प्रत्यक्ष रूप में सब जानता है। उसके लिए गए निर्णयों में किसी भी प्रकार के भूल की संभावना नहीं है।


कर्म का फल कर्ता को ही मिलता है, यह ईश्वरीय नियम अटल है और क्षमा का प्रावधान नहीं है। अज्ञानी और दुष्ट बुद्धि वाले स्वार्थी व्यक्ति स्वेच्छा से स्वयं ही बुरे कर्मों को करते हैं, किन्तु उन कर्मों के दुखदायी फलों से बचने के लिए मन्दिर, मस्जिद, चर्च तथा अन्य धार्मिक स्थल पर जाकर कुछ दान-पुण्य करके कर्म फल से बचने का प्रयास करते हैं।


कई मत-मतान्तरों के धर्माधिकारी और आजकल के तथाकथित पंडे-पुजारी, बापू, बाबा लोग, महाराज आदि इन लोगों को किए गए पापों से बचने के लिए क्षमा याचना करना, तीर्थ यात्रा, पवित्र नदियों में स्नान करना, चर्च में पादरी के सामने confession करना आदि से पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि ऐसे सरल उपायों से पाप क्षमा होने लगें, तो जो लोग पाप कर्म नहीं करते वे भी करने लग जाएँगे और पाप कर्मों की वृद्धि होगी। पाखण्डी बाबा लोग अपने भक्तों से पुरुश्चरण करवाकर भारी मात्रा में धन का हरण करने में तनिक भी संकोच नहीं करते।


एक भक्त खाना बना रहा था, बिल्ली बार-बार परेशान कर रही थी, भक्त ने चूल्हे से जलती लकड़ी खींची और उसे बिल्ली के ऊपर दे मारी। बिल्ली वहीं ढेर हो गई। मरी बिल्ली को देखकर भक्त घबराया हुआ पोंगा पंडित के घर पहुंचा। घटनाक्रम सुनकर पंडित जी ने एक सोने की बिल्ली बनवाकर पश्चाताप के लिए दान करने का उपाय बताया। ऐसे पाखंडी बाबा लोग स्वार्थ बुद्धि होते हैं, वे अपने स्वार्थ करने के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं जानते, मानते।


वैदिक सिद्धांत के अनुसार कर्म और फल अन्योन्याश्रित हैं। फल भोगे बिना कर्म शांत नहीं होता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्। अर्थात् किए गए कर्मों का फल तो मनुष्य को अवश्य ही मिलता है। ईश्वर के पास न तो कागज है और न ही किताब है पर सब के कर्मों का हिसाब रखता है। किसी कवि ने बड़ा ही सुन्दर लिखा है…


मेरे दाता के दरबार में, सब लोगों का खाता।
जो कोई जैसी करनी करता, वैसा ही फल पाता।।

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