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तलाक़, डाईवोर्स, संबंध विच्छेद क्यों ?)
समाधान
वैदिक विवाह संस्कार।
विद्वानों का मत है कि एकाकी विचरने वाले के लिए किसी प्रकार का विधान अपेक्षित नहीं होता, परन्तु मनुष्य सामाजिक प्राणी है। बहुतों के साथ रहने वाला है। जिसमें अनेक व्यक्ति मिल कर गति करते हैं, वह समाज कहाता है। वह गति मर्यादित और क्रमबद्ध होती है। सम्यक् गति करने वाले मानव समुदाय का नाम समाज है। समाज में उसके प्रत्येक व्यक्ति के लिए कर्तव्य और अधिकार निर्धारित रहते हैं। इसी का नाम समाज – व्यवस्था है। गृहस्थ जीवन जिसे गृहस्थ आश्रम की संज्ञा दी गयी है, समाज व्यवस्था का मुख्य अंग है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों, देशों व स्थानों में गृहस्थ जीवन प्रारंभ करने से पूर्व विवाह संस्कार होना अनिवार्य है।सभी समुदायों में विवाह को मान्यता प्राप्त है, भले ही रीति रिवाजों में भिन्नता है।
विवाह का मुख्य प्रयोजन ही सन्तानोत्पति है। प्राचीन काल से ही दो शरीरों को परस्पर विवाह बंधन में जकड़ने की सभ्य समाज में परम्परा बनी हुई है ताकि वंश का प्रवाह बना रहे।
ॠषिओं ने बताया है कि गृहस्थ आश्रम संसार के सुख दुःख का परिक्षण करने की प्रयोगशाला है।गृहस्थ आश्रम कोई लापरवाही और समय नष्ट करने का स्थान नहीं है। यहाँ ईमानदारी से धन कमाना, बच्चों को अच्छा सभ्य नागरिक बनाना, देशभक्त बनाना, ईश्वरभक्त बनाना, चरित्रवान बनाना, परोपकारी बनाना आदि आदि बहुत जिम्मेदारी के काम करने होते हैं। यह तो तपस्या करने का स्थान है। विवाह एक भरोसा है, समर्पण है, ऐसा कहा गया है कि त्याग की मूर्ति स्त्री है, जो पितृ कुल अर्थात स्वयं का घर छोड़, पर पुरुष को जीवनसाथी के रूप में स्वीकार कर लेती है, दूसरी ओर पुरूष भी आश्वासन दे कर अपरिचित स्त्री को घर सौप देता है।
रिश्ते में प्रीति होना और एक दूसरे के प्रति सम्मान होना ज़रूरी है। सत्यार्थप्रकाश के चौथे समुल्लास में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने लिखा है, कि वर तथा कन्या का गुण कर्म स्वभाव मिलाकर ही विवाह करें। विवाह से पहले लड़के – लड़की के गुण कर्म स्वभाव मिलाने चाहिए। गुण कर्म स्वभाव मिलाने का अभिप्राय है, दोनोँ के विचार लगभग एक से हों। रुचि, योग्यता, धर्म शक्ति, शारीरक बल पारिवारिक धन संपत्ति आदि लगभग समान हो। ऐसा न हो, कि एक बहुत धनवान परिवार से हो, और दूसरा बहुत निर्धन। एक बहुत बलवान हो और दूसरा बहुत निर्बल। एक तो धर्म में रुचि रखता हो और दूसरा भोगी विलासी हो। बिना गुण कर्म स्वभाव मिलाए बेटे बेटियों का विवाह कर देने से जीवन भर की समस्या हो जाती है। और इस स्थिति में बेटियों को अधिक सहन करना पड़ता है। माता-पिता, जो अपने बच्चों को बडे लाड प्यार और मेहनत से पालते हैं, वे विवाह के समय इस बात का विशेष ध्यान रखें, कि गलत जोड़ियाँ न बनाएँ। ऐसा करने से उनको भी पाप लगेगा। जोड़ियाँ भगवान नहीं बनाता, हम अपनी इच्छा से बनाते हैं।
ऋषियों का संदेश भी यही है कि चाहे लड़का लड़की पूरा जीवन कुँवारे बैठे रहें, यदि उनके गुण कर्म स्वभाव आपस में न मिलते हों, तो विवाह नहीं करना चाहिए।दुखी हो कर दाम्पत्य जीवन से विवाह ही न करना, वह कम दुखदायक होगा।
विरुद्ध गुण कर्म वालों का विवाह करने पर हमेशा झगड़ा होने के कारण से अधिक दुख होगा। परंतु आजकल लोग इस बात को न जानने के कारण, लापरवाही से गृहस्थ आश्रम को यूँ ही नष्ट कर रहे हैं। इससे अपनी , परिवार और देश की बहुत हानि कर रहे हैं। ऐसा न करें, और गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे, इससे उल्टा काम करेंगे, तो परिणाम भी उल्टा ही होगा। आजकल अधिकतर ऐसा ही हो रहा है।शौहर अपनी बीवी को तलाक़ दे रहा है तो हस्बैंड अपनी वाइफ़ को डाइवोर्स दे रहा है। इधर हिन्दुओं के शब्दकोश में भी संबंध विच्छेद जैसा शब्द पति पत्नी के पवित्र संबंध में दूरियाँ उत्पन्न कर रहा है। स्मरण रखने वाली बात है कि रिश्ते कभी भी कुदरती मौत नहीं मरते। इनको हमेशा इंसान ही कत्ल करता है। नफरत से, नज़र अंदाजी से तो कभी गलतफहमी से। बिखरने के बहाने तो बहुत मिल जाएंगे, आओ हम जुड़ने के अवसर खोजें। ईमानदारी से पालन करके पुण्य के भागी बनें। वैदिक विवाह संस्कार की उपादेयता को समझें।
सभी मत – मतान्तर विवाह को पवित्र बंधन स्वीकार करते हैं और अपनी-अपनी रीति अनुसार आयोजन करते हैं। वैदिक विवाह संस्कार सर्वश्रेष्ठ संस्कार की कोटि में रखा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है।दुर्भाग्य है कि भौतिक साधनों की चकाचौंध ने संस्कार को गौण और प्रदर्शन को प्रधान कर्म बना कर रख दिया है।वैदिक विवाह की मुख्य विशेषता है, वर एवं वधु को मंत्रों व कर्म काण्ड के द्वारा संस्कारित व दीक्षित करना।
मधुपर्क, लाजाहोम, शिलारोहण, सप्तपदी ये चार मुख्य कर्म वर व वधु से करवाए जाते हैं।
मधु पर्क में मधु माधुर्य का, दधि शीतलता तथा घृत स्नेह का प्रतीक है।
लाजाहोम
लाजाएं प्रतीक हैं त्याग पूर्ण जीवन की। कन्या अपने मातृ कुल का मोह तथा सुख सुविधाओं का परित्याग कर पति के कुल के सौभाग्य, समृद्धि हेतु अपने जीवन को समर्पित कर देती है।
शिलारोहण
शिला प्रतीक है दृढ़ता की।वधु का पैर शिला पर रखवाना पारिवारिक जीवन में आने वाली विविध कठिनाइयों में पाषाण के सदृश रहने का सदुपदेश देता है।
सप्तपदी
सात मंत्रों के द्वारा रखे सात कदम वधु को अन्न, शक्ति, सुख, प्रजा, ॠतु चर्या, मैत्रीचीज भाव को प्राप्त करने का सारगर्भित संदेश देते हैं। सप्तपदी में सात पद अर्थात् मंत्र के रूप में सात वाक्य बोले जाते हैं जो कि विवाह की सबसे महत्वपूर्ण रस्म है, इसके बिना विवाह को मान्यता नहीं दी जा सकती है।सात पद क्रमशः इस प्रकार हैं
पहला पग – इषे एक पदी भव। अन्नादि प्राप्ति के लिए।
दूसरा पग – उर्जे द्विपदी भव। बल की प्राप्ति के लिए।
तीसरा पग – रायस्पोषाय त्रिपदी भव। ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए।
चौथा पग – मयोभुवाय चतुष्पदी भव। दाम्पत्य सुख के लिए।
पांचवा पग – प्रजाभ्य पंचपदी भव। संतानोत्पत्ति के लिए।
छठा पग – ॠतुभ्य षटपदी भव। ॠतुओं की अनुकूलता के लिए।
सातवाँ पग – सखे सप्तपदी भव। आजीवन मित्र भाव के लिए।
सुखी दाम्पत्य व गृहस्थ के लिए वैदिक विवाह संस्कार की श्रेष्ठता को समझें,यही ईश्वर से प्रार्थना है।
राज कुकरेजा/ करनाल
Twitter @Rajkukreja 16
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