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मेरे धर्म पिता (Father’Day)

चिंतन के क्षण
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मेरे धर्म पिता

व्यक्ति जब गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है तो उसका संबंध एक नए परिवार के साथ जुड़ जाता है और इस संबंध को बड़ा ही सुन्दर नाम दिया गया है — – – धर्म का संबंध । धर्म माता (सास) धर्म पिता (श्वसुर) । मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे जन्म दाता पिता और धर्म पिता दोनों ही आर्य विचारों के मिले हैं। आज पितृ दिवस के अवसर पर मैंने अपने जन्म दाता पिता का आभार व्यक्त किया है और धर्म पिता का आभार व्यक्त न करूँ यह मेरी कृतघ्नता होगी और धर्म पिता के प्रति अन्याय होगा। अत: धर्म पिता के प्रति श्रद्धा व विश्वास और आभार व्यक्त करते हुए एक संतुष्टि का भाव झलक रहा है। पिता जी तो अब हमारे मध्य नहीं हैं परन्तु उनकी स्मृति सदैव हमारे दिल में समाई हुई है। उनके जीवन की कुछ विशेषताओं ने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में मेरे व्यक्तित्व पर भी विशेष प्रभाव छोड़ा है। पिता जी का मानना था कि परस्पर विचारों की भिन्नता हो सकती है, विचारों की उपेक्षा कर दें परन्तु संबंधों पर आंच न आने दें, वे समझाते रहते थे कि जितनी आवश्यकता हो उतना ही सामान लेना चाहिए,”चादर देख कर पाँव पसारने चाहिए।” यह वाक्य उनका प्रिय वाक्य था।स्वयं बड़े ही संयमी और मितव्ययी थे, फिजूलखर्ची बिल्कुल पसंद नहीं करते थे।उनका मानना था कि कमाई सात्विक हो। भ्रष्टाचार की कमाई भौतिक सुख तो दे सकती है परन्तु आत्मिक संतुष्टि कभी भी नहीं दे सकती।उनकी दी हुई शिक्षा का उनके बेटे ( मेरे पतिदेव ) ने अक्षरश: पालन किया।ईश्वर की कृपा से जो पोस्ट उन्हें मिली थी, उसका कभी दुरुपयोग नहीं किया। पिता जी के पास जो भी व्यक्ति, जिस आस से आता, वे उसकी यथा संभव सहयोग अवश्य ही करते थे। सरलता व सादगी की साक्षात् मूर्ति थे ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। कई बार तो लोग उनकी सरलता का अनुचित लाभ उठा लेते परन्तु वे अपने मन को मलिन नहीं होने देते थे । उनका जीवन एक नियमित जीवन था। रात को जल्दी सोना और प्रात: जल्दी उठना यह उनके दैनिक जीवन की स्वाभाविक क्रिया थी और बच्चों के साथ प्रतिदिन प्रात: वैदिक मंत्रोचार के साथ स्वयं संध्या करते और बारी – बारी से बच्चों से प्रार्थना करवाते। प्रातः भ्रमण करने जाते, सायंकाल को हम सभी बच्चों को साथ लेकर जाते औऱ रास्ते में चुटकुले सुनते सुनाते अथवा दिमागी व्यायाम के लिए सामान्य ज्ञान के आधार पर प्रश्नोत्तरी करते जिससे हमारा भ्रमण के साथ मनोरंजन भी हो जाता था।
1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के दुष्प्रभाव की असहनीय पीड़ा, पिता जी को भी सहन करनी पड़ी। इस का प्रभाव घर की आर्थिक स्थिति पर अधिक पड़ा परन्तु बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता दी। शिक्षा के साथ किसी भी प्रकार का समझौता उन्हें स्वीकार नहीं था ।
शिक्षा के क्षेत्र में उदारवादी थे।उनका बेटा ( मेरे पतिदेव) ने जब Inter science में बड़े अच्छे अंक प्राप्त करने के बावजूद भी पिताजी की आर्थिक परेशानी को देखते हुए मन में विचार बना लिया था कि छोटा सा डिप्लोमा कोर्स करके पिताजी की आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास करेंगे परन्तु जब पिताजी को बेटे के मनोभावों का पता चला तो बेटे को समझाया कि इन्जीनियरिंग डिग्री में प्रवेश लो और उदाहरण दिया कि बच्चे माता- पिता के लिए पतंग के समान होते हैं और जब तक वे जितना ऊँची उड़ान भरते हैं, उसे डोर देते रहते हैं और उसके कट जाने पर उसी समय डोर खींच लेते हैं। इस प्रकार पिता जी की इच्छानुसार इन्जीनियरिंग डिग्री में प्रवेश ले लिया और पिता जी भी गर्व अनुभव करते कि उनका बेटा इन्जीनियर बन रहा है और इसके लिए उन्हें क्या त्याग करना पड़ा यह किसी को भी विदित नहीं होने दिया। पिताजी का पतंग- डोर का उदाहरण व उनके द्वारा किए गए त्याग की चर्चा प्रायः हम सभी बच्चों के साथ करते रहते हैं।
पिता जी आर्य समाज के प्रति पूर्णत: समर्पित थे।हम प्राय: कहा करते थे कि पिता जी स्वयं ही एक चलती- फिरती अार्य समाज हैं। आर्य समाज की रसीद पुस्तक कहीं भी जाते अपने पास ही रखते औऱ परिवार,परिजनों परिचितों एवं मित्रों से जहाँ हम दान माँगने से संकोच करते, वे निसंकोच दान मांग लेते थे। आर्य समाज प्रेम नगर करनाल उनके पुरुषार्थ का परिणाम है। आर्य समाज की सेवा, प्रदर्शन के लिए नहीं अपितु निस्वार्थ भाव से करते थे। ऐसे देव तुल्य पिता को परिवार की ओर से शत् शत् नमन। आइए पिता जी के गुणों को आत्मसात् करें, यही होगी सच्ची श्रद्धांजलि और सार्थक होगा पितृ दिवस का आयोजन।
राज कुकरेजा (पुत्र वधु)
Twitter @Rajkukreja16
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