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सम्बन्ध

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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सम्बन्ध
सम्बन्ध शब्द का बहुत ही सुंदर अर्थ है – अच्छी प्रकार से बंध जाना. स्व की इकाई से परिवार बनता है, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र. राष्ट्र की भावना से पूर्णतः ओत-प्रोत होकर सम्पूर्ण विश्व में बन्धुत्व की भावना आ जाने पर सब अपने हैं, तब परायेपन का प्रश्न ही नहीं उठता. जीवन का प्रारम्भ ही सम्बन्ध से है. परिवार अर्थात सम्बन्धी गण व्यक्ति के एक ओर सुखों को बढ़ाते हैं तो सम्बन्धी ही दुःखों को कम भी करते हैं. किसी ने बड़ा ही सुंदर कहा है कि व्यक्ति के जीवन में सम्बन्धी और औषधि एक महत्व पूर्ण भूमिका निभाते हैं. दोनों ही उस की पीड़ा को कम करने का काम करते हैं, लेकिन औषधि अपना प्रभाव कुछ समय की सीमा तक कर सकती है पर सम्बन्धों को निभाने की कोई समय सीमा तय नहीं की जाती. (Relations and medicine play the same role in our life i.e. both care for us in pain. BUT amazing thing is that relations do not have an expiry date.)
सम्बन्ध को दो प्रकार का कहा गया है. एक को पारिवारिक सम्बन्ध तो दूसरे को वैचारिक. बालक जन्म से ही पारिवारिक सम्बन्ध से स्वतः बंध जाता है और विवाहोपरांत धर्म सम्बन्ध बनते हैं, जिन्हें धर्मानुसार जीवन पर्यन्त निभाना पड़ता है. निभा पाए अथवा नहीं, इस में पूर्णतः स्वतंत्र होता है. अपने व्यवहार के द्वारा ही मधुर और कटु सम्बन्ध बना लेता है. पारिवारिक सम्बन्ध बड़ी ही सूझबूझ से निभाने होते हैं. परिवार के सभी सदस्यों के समान विचार हों यह आवश्यक नहीं है. यह विचारों की विभिन्नता और विपरीतता भी तब होती है, जब विवाहोपरांत नई वधु का नये घर में प्रवेश होता है. यह होना स्वाभाविक ही है क्योंकि दोनों परिवारों के परिवेश और संस्कार तथा विचार एक समान नहीं हो सकते. बुद्धिमान लोग परिवार में परस्पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते हैं और कई बार विचारों की तो उपेक्षा कर देते हैं, सम्बन्धों में न तो दूरी बनाते हैं और ना ही दरार पड़ने देते हैं. इस प्रकार परिवार विघटन से बचे रहते हैं. परिवार एक माला है जिस में परिवार के सभी सदस्य रंग-बिरंगे मोती के समान पिरोये हुए हैं. इस माला की डोरी अत्यंत मजबूत होनी चाहिए. बड़ा ही सुंदर कहा गया है कि परिवार में परस्पर सदस्यों में तर्क-कुतर्क होता है, लड़ते-झगड़ते हैं और कई बार तो परस्पर बोल-चाल बंद करने की नौबत भी आ जाती है लेकिन अंत में परिवार, परिवार ही रहता है, अपने परिवार के स्नेह पर आंच नहीं आने देते हैं (No family is perfect. We argue, we fight, we even stop talking to each other at times, BUT in the end family is family. The love will always be there.) वैचारिक सम्बन्ध समान विचारों से बनते भी हैं और बिगड़ते भी हैं. जब तक विचारों में सामंजस्य रहता है तो सम्बन्ध मधुर और थोड़ा भी मतभेद हुआ तो वही मधुर सम्बन्धों में कड़वाहट आ जाती है और सम्बन्ध भी बिखरने लगते हैं.
माता-पिता का अपनी सन्तान के साथ सम्बन्ध सब से सुंदर व मधुर सम्बन्ध है इस सम्बन्ध का नाम है वात्सल्य. ईश्वर के बाद माता-पिता का ही स्थान है. बालक का सर्वाधिक हितैषी व शुभ चिंतक माता-पिता से बढ़ कर कोई नहीं हो सकता. केवल माता-पिता ही हैं जो अपनी सन्तान की सब ओर से उन्नति चाहते हैं और सन्तान की उन्नति से हर्षित होते हैं क्योंकि उन में ईर्ष्या जैसी भावना नहीं होती है. यह एक पवित्र सम्बन्ध है परन्तु बालक के युवा होने पर इस सम्बन्ध की गरिमा कम होने लगती है, कारण तो अनेक हो सकते हैं, परन्तु मुख्य तो दो ही हैं. प्रथम है कि माता-पिता का बालक को आवश्यकता से अधिक लाड-दुलार देना और अच्छे संस्कारों से वंचित रखना. विद्यालयों में भी संस्कार हीन व भौतिक शिक्षा तक सीमित रखना और दूसरा कारण है माता-पिता की अपनी सन्तान से यही अपेक्षा बनाये रखना कि बालक बड़ा होकर हमारे बुढ़ापे की लाठी बनेगा. माता जब बालक का निर्माण मोहवश, स्वार्थवश करती है तो इस सम्बन्ध की मधुरता व पवित्रता में कटुता पनपने लगती है. सम्बन्ध बिगड़ने लगते हैं, दोनों के सम्बन्धों में उदासीनता आने लगती है कि परिस्थितियां कई बार भयंकर रूप धारण कर लेती हैं. आज वृद्ध आश्रम खुल रहें हैं और वृद्ध माता-पिता अपने जीवन की संध्या इन आश्रमों में बिताने को विवश हो रहे हैं.
सम्बन्ध बिगड़ते हैं परस्पर एक दूसरे से आवश्यकता से अधिक अपेक्षाएं रखना, दूसरों के कर्तव्यों पर अपना अधिकार समझना और दूसरी ओर त्याग की भावना का न होना. इसी सन्दर्भ में एक महिला ने अपने विवाह के प्रारम्भिक जीवन में उसे किस प्रकार की तनाव पूर्ण परिस्थियों का सामना करना पड़ा अपनी आप बीती सुनाई जो हम सब को एक संदेश देती है. उस ने बताया कि किस प्रकार उसने ससुराल पक्ष की ओर से अनेकों अपेक्षाएं पाल रखी थीं तो दूसरी ओर सास ने भी बहू को ले कर अनेकों सपने संजोये हुए थे. दोनों की अपेक्षाएं एक दूसरे पर खरी नहीं उतर पाने के कारण और दोनों अपेक्षाएं एक दूसरे पर हावी होने लगीं. स्थिति तनाव पूर्ण एवं अशांत हो गई कि लगने लगा कि अब तो जीना ही भारी हो रहा है. अब किसी भी तरह सास से छुटकारा पाना ही है और इस के लिए योजना मन ही मन बना डाली और एक डाक्टर मित्र को विश्वास में ले लिया कि वे सास से छुटकारा पाने में उस की सहायता करे. डाक्टर मित्र ने परामर्श दिया कि सदैव के लिए छुटकारा पाने का सरल सा उपाय यही है कि उन्हें खाने में विष दे दिया जाए, पर ये सब बड़ी ही सावधानी पूर्वक करना पड़ेगा ओर विष की मात्रा भी कम परन्तु कुछ दिन लगातार देनी होगी और इतनी सतर्कता से करना होगा कि शंका की सुई तुम पर न घूमने पाए. इसके लिए पहले तुम्हें सास के विश्वास को जीतना पड़ेगा और अपने व्यवहार को उनके अनुरूप कम से कम कुछ दिनों के लिए करना होगा. सोचा कि कुछ ही दिनों की बात है और सदा के लिए स्वछन्द मुक्त जीवन तो जीने को मिल जाएगा. अब व्यवहार में मधुरता का रस घुलने लगा, सास की हर छोटी-बड़ी इच्छा का पालन बड़ी ही तन्मयता से होने लगा. बहु के इस परिवर्तित रूप को देख कर सास भी विचारने लगी कि कितनी अच्छी मेरी बहू है. मैं ही इसे समझ नहीं पाई और व्यर्थ में ही नोंक-झोंक करती रहती थी. सास का ह्रदय भी परिवर्तित हो गया और अब उस हृदय में माँ की ममता हिलोरे लेने लगी. बहु अब सास में अपनी ही माँ की छवि देखने लगी कि मन में धक्का सा लगा कि वह यह क्या अनर्थ करने जा रही है, विचार आते ही तुरंत डाक्टर मित्र के पास भागी और उसे सारी परिस्थिति से अवगत कराया और अब ऎसी दवा चाहिए जो दिए हुए विष के प्रभाव को कम कर सके. उस की मानसिक व्यथा को देख डाक्टर मित्र जोर से हंसी और बोली कि उस ने तो उसे माँ के वात्सल्य का विष दिया था अब इसे जीवन पर्यन्त देती रहना. मित्र की सूझ-भुझ पर उसे आश्चर्य हुआ रोते हुए बोली तुम्हारा किन शब्दों में धन्यवाद करूं जो तुमने एक घिनौने अपराध से ही नहीं बचाया अपितु मुझे जीवन भर होने वाली आत्म-ग्लानी से बचा लिया है और जीने की कला भी सिखा दी है, तुम्हारे ही कारण आज मैं सास की चहेती, लाडली बहू बन गई हूँ और सच्चे अर्थों में सम्राज्ञी बन कर परिवार के सदस्यों के दिलों पर राज कर रही हूँ.
परस्पर सम्बन्ध बिगड़ने में एक यह भी मुख्य कारणों में है कि प्रायः अन्यों के दोष देखने और उन्हें दूसरों को बताने में सुख लेने लग जाते हैं. दोष देखते-देखते व्यक्ति का स्वभाव इतना बिगड़ जाता है कि वे केवल दोष ही देखना प्रारम्भ कर देता है. इस से अध्यात्मिक उन्नति रुक जाती है. क्या सही है व क्या सही नहीं है इस का विवेक ही नहीं रहता. इस नियम से सभी को अवगत होना चाहिए कि कोई भी दो व्यक्ति ऐसे नहीं होते कि जिनकी बुद्धि शत-प्रतिशत एक जैसी अर्थात अनुकूल हो, इस लिए विरोध होगा ही. यह सोच ही व्यर्थ है कि सभी मेरे अनुकूल ही आचरण करें. संसार का नियम है कि यहाँ अच्छे-बुरे लोग होते ही हैं, इस लिए इस नियम को दृष्टि में रखते हुए चाहे कोई कितना विरोध करे, दुर्व्यवहार करे परन्तु उसके प्रति ईर्ष्या, द्वेष नहीं करना चाहिए. ईर्ष्या, घृणा, क्रोध इन अवगुणों का हल बहुत ही आसान है. हम सभी गुणों में से सर्वश्रेठ गुण को अपने स्वभाव में मिला सकते हैं जिस का नाम है क्षमा.
कोई भी सम्बन्ध पूर्णतः एक प्रकार से नहीं निभाये जा सकते और न ही इसकी अपेक्षा रखनी चाहिए. दो पौधे एक ही बगीचे में एक ही खाद-पानी के बाद ही एक प्रकार का फल नहीं दे सकते. प्रत्येक सम्बन्ध को अपनी ओर से यथोचित स्नेह, प्रेम, समय व ध्यान दें परन्तु उस सम्बन्ध के फल की, परिणाम की सीमित, संकीर्ण अपेक्षा रख कर अपने को कुंठित न करें. हमारा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लोगों से सम्बन्ध देश, काल व परिस्थितियों पर निर्भर करता है. हम सामाजिक प्राणी हैं, अपने अधिकारों की प्राप्ति व कर्तव्यों के पालन के लिए यह आवश्यक है कि हमारे सम्बन्धों में स्वार्थ, संकीर्णता, संकुचिता के स्थान पर द्रष्टि में प्यार और हृदय में विशालता को स्थान दें जो सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाती है. यदि हम विभिन्न रिश्तों में अपेक्षाकृत दूरी, सयंम नहीं रखेंगे तो हमारा श्रम व्यर्थ हो जाएगा. परिवार के सम्बन्धों में, कार्यालयों के सम्बन्धों में, मित्रों के सम्बन्धों में आध्यात्मिक परिपेक्ष्य के सम्बन्धों में बड़ी सावधानी से निर्वाह करना होता है.
आज के परिवेश में परिवारों का स्वरूप विशेषतया बड़े-बड़े शहरों में दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा है. अब हमारे घर बड़े हो गये हैं, पर परिवार छोटे हो गए हैं. इंटरनेट और टेलीफोन से तो सारे विश्व से जुड़ गये हैं, जिन्हें देखा नहीं व जानते नहीं, पर अपने शहर में उन लोगों से दूर हो गये हैं, जो हमारे भाई-बन्धु व मित्र हैं, जिन के साथ हमने बचपन बिताया है. हम चन्द्रमा तक जा कर वापिस आ गये हैं, पर हम अपनी गली में ही जा कर पड़ोसी से नहीं मिलते. अपने घरों की दीवारें ऊँची बनवाते जा रहे हैं, स्वयं को किल्लों में बंद कर रहें हैं, हर समय अनिष्ट की आशंका घेरे रहती है. जिस के भयंकर परिणाम सामने आ रहे हैं. असामाजिक तत्व निशंक हो कर सड़कों पर घूम रहे हैं. लोग भी भावना और सम्वेदना शून्य होते जा रहे हैं. आज मनुष्य अपने आस-पास तनाव का ऐसा ताना-बाना बुनता जा रहा है कि अपनी स्वाभाविक हंसी को भूल रहा है, जिस कारण पार्कों में बैठ कर कृत्रिम हंसी का आश्रय लेना पड़ता है.
सांसारिक जगत में हमारा माता-पिता से सम्बन्ध हमारे कर्म अनुसार और ईश्वर की न्यायव्यवस्था के अनुसार होता है. हमारे हर नये जन्म के साथ हमारे नये माता-पिता एवं सम्बन्ध बनते हैं. इन सम्बन्धों को शारीरिक सम्बन्ध कहा जाता है और यह हर जन्म के साथ बनते और बिगड़ते हैं. ऐसे सम्बन्ध अनित्य होते हैं. अध्यात्मिक जगत में हम ईश्वर के साथ अपना मनचाहा सम्बन्ध जोड़ने में पूर्णतया स्वतंत्र हैं. ईश्वर ही हमारी माता हमारा पिता, राजा, न्यायाधीश, सखा एवं बन्धु है. सच्चा सखा व बन्धु उसे माना जाता है जो संकट की घड़ी में साथ न छोड़े और यथा सम्भव सहायता भी करे. इस परिभाषा से ईश्वर खरी कसौटी पर उतरता है. सहायता करना तो ईश्वर का स्वभाव ही है. ईश्वर जीव के मन, वाणी और शरीर से किये जाने वाले सभी कर्मों को जानता है और हमारे अत्यंत गुप्त भेद किसी पर प्रकट नहीं करता. ईश्वर के गहन रहस्यों को जीव अल्प बुद्धि होने के कारण जान भी नहीं सकता. ईश्वर का स्वरूप भूः है, दुःखों से छुडवाने वाला है साथ ही स्वः है, सुखों को देने वाला है. ईश्वर स्वयं और अपने बनाये भिन्न-भिन्न पदार्थों से हमारी सहायता और रक्षा कर रहा है जिसे हम दैवी सहायता मानते हैं. ईश्वर के साथ हमारे सम्बन्ध नित्य एवं अनादि काल से है. अज्ञानता के कारण मायावी चकाचौंध में ईश्वर को भूल जाते हैं. विडम्बना तो यही है कि हम सांसारिक सम्बन्धों को निभाने में प्रायः सतर्क रहते हैं कि हमारे व्यवहार की छोटी सी भूल के कारण सम्बन्धों में शिथिलता न आ जाए परन्तु ईश्वर के प्रति अपने व्यवहार में उतने चौकने नहीं रह पाते. अविद्या के कारण ईश्वर से दूरी बना लेते हैं. ईश्वर हर समय और हर स्थान पर हमारे साथ है, इस को भी भूल जाते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक है और उस का आनन्द भी सर्वव्यापक है, उस के साथ सम्बन्ध न बना पाने के कारण हम उसके आनन्द को ग्रहण नहीं कर पाते. जिस सुख की आत्मा को तलाश है, वह आनन्द तो केवल ईश्वर से सम्बन्ध बनाने से ही मिल सकता है. एक कवि के शब्दों में—–
-प्यारे प्रभु से जिस का सम्बन्ध है |
उसे हरदम आनन्द ही आनन्द है ||
राज कुकरेजा /करनाल

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